हल्द्वानी में हालात क्यों और कैसे बिगड़े कि 6 लोगों की मौत हो गई? 

उत्तराखंड के हल्द्वानी शहर में कल जो घटना घटी, उसके बारे में शायद ही यहां के लोगों ने कभी कल्पना की होगी। पिछले वर्ष गोला नदी के पास वनभूलपुरा के इलाके में रहने वाले अल्पसंख्यक समुदाय को भले ही इससे भी लंबे समय तक असमंजस की स्थिति में रहना पड़ा हो, लेकिन समय रहते सर्वोच्च न्यायालय के स्टे आर्डर के बाद यहां के 4,000 से अधिक परिवारों ने राहत की सांस ली थी।

लेकिन कल शाम से ही इस इलाके में बड़ी संख्या में पुलिस बल की तैनाती और लाठीचार्ज के बाद भारी पथराव की घटना के बाद जब 9 बजे रात मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की ओर से कर्फ्यू और उपद्रवियों को देखते ही गोली मारने के आदेश की खबर आई तो लगा कि पिछले वर्ष की तुलना में इस बार मामला कहीं अधिक गंभीर है। 

लेकिन सुबह हिंदुस्तान अखबार की हेडिंग खबर ‘हल्द्वानी में अवैध मदरसा ढहाने पर हिंसा, 6 मरे’ के साथ चाय की शुरुआत की तो लगा कि ऐसा गजब आखिर कैसे हो गया? खबर में साथ ही लिखा था कि वनभूलपुरा में हुए बवाल में दो एसडीएम सहित सैकड़ों पुलिसकर्मी भी घायल हैं और हल्द्वानी शहर में कर्फ्यू के साथ-साथ स्कूलों और इंटरनेट को भी बंद कर दिया गया है। दोपहर तक पता चला कि हल्द्वानी ही नहीं समूचे नैनीताल में स्कूल-कालेजों को आज के लिए बंद कर दिया गया है।

खबर है कि 100 से अधिक वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया और 300 से अधिक लोग घायल हुए हैं। कल शाम 4:30 बजे पुलिस बल और नगर निगम की टीम वनभूलपुरा के अवैध अतिक्रमण स्थल पर पहुंचती है, और शाम 5 बजे के करीब जेसीबी मशीन के आने के बाद तनाव बढ़ जाता है। समाचार पत्र के अनुसार, इसके 5 मिनट बाद पुलिसकर्मियों पर पथराव की घटना शुरू हो जाती है, और शहर में आगजनी और तोड़फोड़ शुरू हो जाता है।

इस घटना की सूचना प्रदेश की राजधानी देहरादून में भी पहुंचती है, जहां मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी एक हाई लेवल मीटिंग के बाद अशांति फैलाने वालों से सख्ती से निपटने के आदेश जारी करते हैं। जिलाधिकारी के द्वारा मुख्यमंत्री को सूचित किया जाता है कि अशांत वनभूलपूरा क्षेत्र में कर्फ्यू लगा दिया गया है, और दंगाइयों को देखते ही गोली मारने के आदेश दे दिए गये हैं।

यह पूरा मामला आखिर है क्या

इसके बारे में भी समाचार पत्रों का ही सहारा लेकर जानकारी साझा की जा रही है। वनभूलपूरा में ही एक क्षेत्र है मलिक का बगीचा। बताया जा रहा है कि यह भूमि नजूल की है। नगर निगम के अनुसार, मलिक का बगीचा नामक स्थान पर दो एकड़ जमीन पर अतिक्रमण कर मदरसा और धार्मिक स्थल का निर्माण किया गया था, जिस कब्जे को हटाने के लिए प्रशासन 29 जनवरी को घटना-स्थल पर पहुंचा था। उस दिन निगम ने एक पक्का निर्माण ढहाया था, लेकिन यहाँ पर बने मदरसे और धार्मिक स्थल को नहीं तोड़ा था। 

इसके अगले दिन अर्थात 30 जनवरी को एक बार फिर निगम की टीम घटनास्थल पर पहुँचती है और तार-बाड़ कर घेराबंदी कर वहां से चली जाती है। लेकिन उसी दिन संबंधित व्यक्ति को शाम को एक नोटिस जारी किया जाता है कि एक फरवरी तक मदरसे और धार्मिक स्थल को हटा ले। 

1 फरवरी के दिन प्रशासन की ओर से कोई कार्रवाई नहीं की जाती। 3 फरवरी को वनभूलपूरा के कई लोग नगर निगम पहुंचकर निगम के अधिकारियों के समक्ष अपना विरोध दर्ज करते हैं। दोनों पक्षों में समझौता नहीं हो पाता। 4 फरवरी को अतिक्रमण हटाने का फैसला निगम के अधिकारियों द्वारा तय किया जाता है, जिसकी भनक लगते ही वनभूलपूरा की दर्जनों मुस्लिम महिलाएं मलिक के बगीचे के पास जमा होकर दुआएं पढ़ने लगती हैं। वनभूलपूरा थाने में एसएसपी प्रह्लाद नारायण मीणा की मौजूदगी में प्रशासन एवं नगर निगम के अधिकारी बैठक कर फैसला लेते हैं कि दोनों निर्माण स्थलों को ध्वस्त न कर इस भूमि को सील करते हैं। इसके तहत रात को प्रशासन की एक टीम मदरसे और धार्मिक स्थल को सील कर देती है।

ये सारी खबरें राष्ट्रीय समाचार पत्रों से प्राप्त सूचना के आधार पर ली गई हैं, जिससे पता चलता है कि हल्द्वानी नगर निगम, जिला प्रशासन और वनभूलपूरा की स्थानीय आबादी के बीच इस मुद्दे पर पिछले एक सप्ताह से विचार-विनिमय की प्रक्रिया चल रही थी। घटनास्थल पर एक सप्ताह पहले भी एक निर्माण को प्रशासन द्वारा गिरा दिया गया था, लेकिन मदरसे और धार्मिक स्थल को पहले दौर में प्रशासन ने हाथ नहीं लगाया था। 2 एकड़ भूमि में तार-बाड़ और बाद में दोनों भवनों को सील करने की घटना पर भी कोई हंगामा नहीं हुआ। फिर अचानक से ऐसा क्या हो जाता है जो 8 फरवरी के दिन बड़ी संख्या में पुलिस फ़ोर्स के साथ प्रशासन विवादित स्थल को बुल्डोज करने आ धमकता है? 

नैनीताल कोर्ट के फैसले का भी इंतजार क्यों नहीं किया गया

यहां पर सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि हल्द्वानी नगर निगम और स्थानीय प्रशासन ने आखिर किस अदालती आदेश की बिना पर यह कार्रवाई की है? उक्त दोनों निर्माण-स्थल को बुलडोज करने के निगम के नोटिस को हल्द्वानी निवासी साफिया मलिक और अन्य ने पहले ही नैनीताल उच्च न्यायालय में चुनौती दी हुई थी।

बता दें कि हल्द्वानी के मलिक का बगीचा एवं अच्छन खान का बगीचा क्षेत्र में अतिक्रमण को बुलडोज करने के नोटिस पर नैनीताल कोर्ट में याचिका की सुनवाई न्यायमूर्ति पंकज पुरोहित की एकलपीठ को करनी शेष है। इस मामले में 14 फरवरी को सुनवाई होनी थी। निगम के नोटिस को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ता ने इसे निरस्त करने की मांग की थी। याचिका में कहा गया था कि इस भूमि के लीज का अधिकार उनके पास 1937 से है, जिसे मलिक परिवार ने उन्हें सौंपा है। ऐसे में सरकार इसे अपने कब्जे में नहीं ले सकती है।

इसका अर्थ तो यह हुआ कि उत्तराखंड में कानून और संविधान के लिए कोई स्थान नहीं रहा। निगम ने बिना अदालती आदेश हासिल किये, उक्त विवादित भूमि को नजूल की जमीन बताकर मदरसे और धार्मिक स्थल को तोड़ने के लिए बड़ी संख्या में पुलिस फ़ोर्स किस आधार पर मंगाई हुई थी? स्थानीय समाचर पत्रों की मानें तो इसके लिए करीब एक हजार से भी अधिक पुलिसकर्मियों को कई दिनों से तैनात किया गया था। इसके लिए शहर से बाहर से भी पुलिसकर्मियों को मंगाया गया था। नैनीताल जिले के अलावा उधमसिंह नगर और अल्मोड़ा से भी फ़ोर्स को मंगाया गया था। इतना ही नहीं, पीएसी सहित आईआरबी की दो-दो बटालियन एवं दमकल कर्मियों की भी ड्यूटी लगाई गई थी। हिंदुस्तान समाचार के अनुसार, 1000 पुलिसकर्मियों की तैनाती के बावजूद अराजक तत्व फ़ोर्स पर भारी पड़ गये और पुलिस को जान बचाकर भागने के लिए मजबूर होना पड़ा। 

आज सुबह नैनीताल जिलाधिकारी वन्दना सिंह और वरिष्ठ पुलिस अधिकारी प्रह्लाद मीणा ने प्रेस के साथ अपनी वार्ता में बताया है कि घायलों में दो लोगों की मृत्यु हुई है और तीन अन्य लोग गंभीर रूप से घायल हैं। घायलों के बारे में उनका कहना था कि पुलिस द्वारा आत्मरक्षा में उठाये गये कदम की वजह से ये लोग घायल हुए। आज शहर में हालात काबू में है और संवेदनशील क्षेत्रों में करीब 1,100 पुलिसकर्मियों की तैनाती की गई है।

जिलाधिकारी ने यह भी बताया है कि ‘मलिक का बगीचा’ पर कथित रूप से दो ढांचे (मदरसा और मस्जिद) सरकारी भूमि पर अतिक्रमण कर बनाये गये हैं। उनका यह भी दावा है कि अदालत के आदेश का अनुपालन करते हुए इन्हें ध्वस्त करने के लिए पूर्व में नोटिस भी जारी किया गया था। 

ये सभी सूचनाएं राष्ट्रीय समाचार पत्रों के प्रिंट माध्यमों से साझा की गई हैं। जिलाधिकारी वन्दना सिंह का बयान उच्च न्यायालय में 14 फरवरी 2024 को विचाराधीन मामले को देखते हुए गलतबयानी नजर आता है। भारतीय प्रशासनिक सेवा से सम्बद्ध अधिकारी को किसी भी राजनीतिक दबाव के बजाय स्वविवेक से काम लेना चाहिए। बहरहाल अब कुछ जानकारियाँ सोशल मीडिया एवं स्थानीय विधायक सुमित हृदयेश की मार्फत भी लेते हैं।

हल्द्वानी के कांग्रेस विधायक सुमित हृदयेश का बयान काबिलेगौर है 

स्थानीय विधायक और कांग्रेस विधायक सुमित हृदयेश ने अस्पताल में घायल पुलिसकर्मियों और आम नागरिकों का हाल जानने के बाद पत्रकारों के साथ जवाब में इसे पुलिस प्रसासन की बहुत बड़ी चूक बताया है। उनका साफ़ कहना है कि कोर्ट ने 14 फरवरी के दिन इस मामले पर अपना आदेश सुरक्षित रखा था, इसके बावजूद हल्द्वानी प्रशासन के उतावलेपन का ही यह परिणाम है। वहां के सम्मानित एवं अल्पसंख्यक समुदाय के मौलानाओं को विश्वास में लिए बगैर जिस उतावलेपन के साथ हल्द्वानी प्रशासन ने कार्रवाई को अंजाम देने की कोशिश की, आप वहां पहुँच जाते हैं और बिना सूचना दिए ही ऐसी कार्रवाई को अंजाम दिया। 

लेकिन जो कुछ भी हुआ, वह बेहद अनुचित हुआ है। आजादी के बाद से आज तक कभी भी हल्द्वानी शहर में ऐसा नहीं हुआ था। यह शहर के इतिहास में काला दिन है। जो कुछ भी घटित हुआ है, उसके लिए मुझे बेहद दुःख है। 

जिंतने भी पुलिसकर्मी और आमजन हैं, जिन्हें भी चोटें आई हैं या परेशानी हुई है, उनके साथ मेरी संवेदनाएं हैं। पथराव की घटना के बारे में पूछने पर सुमित हृदयेश ने इसकी निंदा करते हुए मांग की है कि इस घटना की जांच की जानी चाहिए और प्रशासन के द्वारा हडबडी में लिए गये फैसले पर सवाल उठाते हुए उन्होंने साफ किया कि प्रशासन कानून और व्यवस्था को अमल में ला पाने में पूरी तरह से विफल रहा। दोषियों पर कार्रवाई के सवाल पर स्थानीय विधायक का साफ़ कहना था कि सबसे पहले जांच बिठाई जानी चाहिए, जिन पुलिसकर्मियों को चोटें भी आई हैं, उसके पीछे भी इस पूरे मामले को अंजाम देने वाले प्रशासन की कार्रवाई के बारे में पड़ताल होना आवश्यक है। जो भी दोषी हो, वो व हहे सरकारी संपत्ति में आग लगाना हो या गाड़ियों को जलाया गया है, सब पर कार्रवाई होनी चाहिए।  

हालांकि, सोशल मीडिया पर सुमित हृदयेश की पोस्ट पर हिंदुत्ववादी शक्तियों की ओर से बड़ी संख्या में गाली-गलौज जारी है।

पूर्व में एनडीटीवी से सम्बद्ध रवीश कुमार ने भी X पर हिंदुस्तान टाइम्स की खबर को साझा करते हुए अपनी टिप्पणी में कहा है, “उत्तराखंड में छह लोगों की मौत हुई है। कई लोग घायल हैं। विपक्ष के बड़े नेताओं को उत्तराखंड के बनभूलपुरा जाना चाहिए। वहां जाकर और ठहर कर चीजों का पता लगाना चाहिए। वहाँ  जो हुआ है वह क़ब्ज़ा हटाने के नाम पर कुछ और भी नज़र आता है। वहाँ की ख़बरों में सरकार का ही पक्ष भरा है।  ऐसे मामलों में विपक्ष के बड़े नेताओं को मैदान में जाकर रोकने और संवाद करने का साहस दिखाना चाहिए। आप बहुसंख्यक आबादी को गोदी मीडिया और व्हाट्स एप के प्रोपेगैंडा के सहारे नहीं छोड़ सकते। चुनावी ध्रुवीकरण तो वैसे भी हो रहा है। 

विपक्ष इस तरह से चुप्पी लगाता रहेगा तोदेश भर में सामने आ रही सरकारी सांप्रदायिकता से नहीं लड़ पाएगा। इन बातों का भाषणों में ज़िक्र कीजिए। उत्तराखंड में भयंकर बेरोज़गारी है मगर बहस किस चीज़ को लेकर पैदा की जा रही है। वहाँ के युवाओं ने अगर यही भविष्य चुन लिया है तो दुखद है। उन्हें अख़बारों और चैनलों से सावधान रहने की ज़रूरत है। 

दिल्ली में रातों रात मस्जिद का वजूद मिटा दिया गया। दिल्ली शहर के लोगों ने अनदेखा कर दिया। वे हर ज़्यादती में अपनी चुप्पी के साथ शामिल होते जा रहे हैं। विपक्ष के नेता क्या मौक़े पर गए, आस-पास के लोगों को बताया कि क्या हो रहा है?

हिंदी के अख़बारों में मस्जिदों पर दावों की ख़बरें भरी रहती हैं। कभी नीचे मंदिर होने तो कभी अतिक्रमण हटाने का सहारा लेकर तनाव पैदा किया जा रहा है ताकि बाद की कार्रवाई से वोट के लिए माहौल बने। ऐसी अनेक ख़बरों से गुज़रते हुए साफ़ लगता है कि कोर्ट, पुलिस, सरकारी विभाग और गोदी मीडिया के अख़बार लगातार ऐसी ख़बरों और बयानों से हिंदू वोट बनाने में लगे हैं। ये बहुत दुखद और शर्मनाक है। 

नीचले स्तर पर कोर्ट की भूमिका पर बात होनी चाहिए। बात बात में सर्वे और स्टे के ज़रिए यह खेल खेला जा रहा है ताकि सब कुछ क़ानूनी लगे। सुप्रीम कोर्ट को अलग-अलग अदालतों में चल रहे ऐसे दावों और मामलों को देखना चाहिए। न्यायालय की व्यवस्था उसके हाथ में है। भारत में अदालती सांप्रदायिकता( court communalism) का एक नया ही रूप देखने को मिल रहा है। कम से कम सुप्रीम कोर्ट को उसका संरक्षक नहीं बनना चाहिए और न अनजान रहना चाहिए।”

पूरे घटनाक्रम को देखने से लगता है कि शाम 4:30 को जब निगम और पुलिस फ़ोर्स दोनों विवादित स्थलों को बुलडोज करने के लिए कदम उठा रही थी, तो पूर्व की तरह मुस्लिम महिलाओं ने एक बार फिर से वैसा ही कदम उठाने की पहल की, जैसा वे पहले भी कर प्रशासन को कदम पीछे हटाने के लिए बाध्य कर चुकी थीं। लेकिन इस बार प्रशासन पूरी तैयारी से आया लगता था। उसके उपर राजनीतिक दबाव भी निश्चित रूप से काम कर रहा हो, क्योंकि पिछली खबर के हवाले से ध्यान दें तो स्थानीय प्रशासन ने तब बुलडोज करने के बजाय विवादित स्थल को सील करने का फैसला लिया था। 

ऐसे वीडियो हैं, जिनमें साफ़ नजर आता है कि बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाओं को पुलिसकर्मियों ने बुरी तरह से लाठियों से पीटा। इसके बाद भीड़ उग्र हो गई और मामला हत्थे से उखड़ गया। जो पुलिस बल ड्यूटी पर तैनात था, उसे भी अंदाजा नहीं रहा होगा कि लोग इस कदर विरोध में आ सकते हैं, लेकिन स्थानीय स्रोतों से जैसी जानकारी मिल रही है, उसके अनुसार पुलिस पूर्व नियोजित योजना के अनुसार इस बार आई थी।

कल दोपहर को मौके पर मौजूद समाजसेवी एवं वरिष्ठ पत्रकार, ईस्लाम शेरी जी से जब जनचौक ने फोन पर हालात जानना चाहा, तो बेबसी में अपने आवास पर बैठे इस गांधीवादी कार्यकर्ता का कहना था कि उन्होंने घटनास्थल पर जैसे हालात देखे, उससे उन्हें अंदाजा हो गया था कि हो न हो कोई अनहोनी अवश्य होने वाली है। 75 वर्षीय इस्लाम कहते हैं, “अपनी उम्र और हालात के तकाजे को देखते हुए, मैं पहले ही घटनास्थल से अपने घर की ओर निकल गया था। कल से ही इंटरनेट बंद हैं। आज सुबह भी जिलाधिकारी ने जो प्रेस कांफ्रेंस आमंत्रित की थी, उसमें चुनिंदा पत्रकारों को आमंत्रित किया गया। मेरे लिए इस प्रेस वार्ता में न तो आमंत्रण आया और न मैं इस हालत में हूँ कि शहर के ऐसे हालात के बीच कार मंगाकर बाहर निकल सकूं। अब तो सबकुछ हालात सामान्य होने के बाद निष्पक्ष जांच में ही पता चल सकता है।”

हालाँकि उन्होंने स्पष्ट किया है कि गोलीबारी की घटना कर्फ्यू लगने से पहले हुई है। इसका मतलब है कि जिस कर्फ्यू को लगाकर दंगाइयों से सख्ती से निपटने की बात कही गई, उसके पहले ही बड़ी संख्या में लोग मारे जा चुके थे? इस बारे में कुछ ट्वीट X पर देखे जा सकते हैं, जिसमें देखा जा सकता है कि मुस्लिम समुदाय ही नहीं बल्कि पुलिस की ओर से भी पत्थरबाजी और बाद में कुछ नकाबपोश अराजक तत्वों के साथ मिलकर अल्पसंख्यक समुदाय के घरों पर पत्थरबाजी और गोलीबारी की घटनाएं हुई हैं। 

ये सभी चीजें तत्काल कोर्ट के संज्ञान में लाने की जरूरत है, जिसे मामले की निष्पक्ष जांच के साथ-साथ नगर निगम और स्थानीय प्रशासन के द्वारा उच्च न्यायालय के फैसले के बिना ही इतनी बड़ी कार्रवाई को अंजाम देने के पीछे के मकसद का पर्दाफाश करना देश की एकता और समाज में भाईचारे को बनाये रखने के लिए अति-आवश्यक है।

जनचौक अपनी ओर से इन वीडियो की सत्यता की गारंटी नहीं लेता, ये सभी चीजें जांच के दायरे में आनी चाहिए और जिला प्रशासन को भी सिर्फ एक पहलू को दिखाकर एकतरफा न्याय नहीं करते दिखना होगा। क्योंकि कुछ हलकों से तो यह भी सुनने को मिल रहा है कि राज्य में ‘समान नागरिक संहिता’ बिल पारित हो जाने के बाद भी कुछ धमाका सुनने को नहीं मिला और हिंदू समाज भी अनमयस्क बना हुआ था, जिसे जगाने के लिए वनभूलपूरा की घटना 2024 आम चुनाव में मील का पत्थर साबित हो सकती है। अगर इस बारे में रंचमात्र भी सच्चाई है तो यह देश के भविष्य के लिए कितना भयावह होने जा रहा है, इसकी कल्पना भी किसी दुहस्वप्न से कम नहीं है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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