आरक्षण पर पटना हाईकोर्ट का फैसला: चिराग, मांझी के मंत्री बनने से पासवान और अति दलित समाज को क्या हासिल?

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पूरे बिहार में जनसंख्या सर्वे के आधार पर बढ़ा आरक्षण पटना हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया पर अति पिछड़े वोट बैंक पर अपना अधिकार मानने वाले सीएम नीतीश कुमार, पासवान वोट बैंक पर केंद्रीय मंत्री बने चिराग पासवान और अति दलित वर्ग के मंत्री जीतन राम मांझी के श्रीमुख से अभी तक कोई प्रतिक्रिया देखने या सुनने को नहीं मिली। विपक्ष से भी ज्यादा झटका नीतीश कुमार, चिराग पासवान और जीतन राम मांझी को लगा है क्योंकि अभी सम्पन्न लोकसभा चुनावों में एनडीए को इन वर्गों का सर्वाधिक वोट मिला है। अब तो यह बहस भी शुरू हो गयी है कि चिराग और मांझी के मंत्री बनने से पासवान और अति दलित समाज को क्या मिला? चुनाव के पहले सुरक्षित फैसला चुनाव के बाद वज्र जैसा उन पर गिरा।

यह फैसला ऐसे समय में आया है जब नीतीश कुमार के अपने सामाजिक न्याय के एजेंडे की परीक्षा एनडीए के प्रति उनकी वफादारी के साथ होगी। इस मुद्दे पर एनडीए की गठबंधन गतिशीलता निश्चित रूप से देखने लायक होगी। अग्रभूमि में नरेंद्र मोदी, चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार हैं। बीच में राहुल गांधी और तेजस्वी यादव हैं। पृष्ठभूमि में पटना उच्च न्यायालय है।

पटना हाई कोर्ट ने बिहार की नीतीश कुमार सरकार को बड़ा झटका दिया है। अदालत ने 65 फीसदी के जातिगत आरक्षण को खारिज कर दिया है और इसे 50 फीसदी की लिमिट तोड़ने वाला बताते हुए असंवैधानिक करार दिया है। अदालत के इस फैसले के बाद नीतीश कुमार सरकार के आगे ओबीसी और अति पिछड़ा वर्ग के लोगों को साधने की चुनौती है। इन वर्गों को जातिगत सर्वे कराने के बाद बढ़ा हुआ आरक्षण दिया गया था। हालांकि बिहार ऐसा पहला राज्य नहीं है, जहां इस तरह से आरक्षण की लिमिट बढ़ाने की कोशिश को अदालत से झटका लगा है। बिहार से पहले महाराष्ट्र, कर्नाटक और हरियाणा जैसे राज्यों में भी ऐसा हुआ है।

फिर भी एक राज्य तमिलनाडु ऐसा है, जो अपवाद है। यहां 69 फीसदी आरक्षण बीते करीब 35 सालों से लगातार मिल रहा है। दरअसल वर्ष 1992 के ऐतिहासिक फैसले में शीर्ष अदालत ने इंदिरा साहनी मामले में जातिगत आरक्षण की 50 फीसदी लिमिट तय की थी। ऐसे में यह सवाल उठता है कि फिर तमिलनाडु में क्यों 69 फीसदी का जातीय आरक्षण मिल रहा है। दरअसल यह कहानी लगभग 50 साल पुरानी है। वर्ष 1971 तक तमिलनाडु में 41 फीसदी आरक्षण ही था। फिर जब अन्नादुरई के निधन के बाद करुणानिधि सीएम बने तो उन्होंने सत्तानाथ आयोग बनाया। इस आयोग की सिफारिश पर उन्होंने 25 फीसदी ओबीसी आरक्षण को बढ़ाकर 31 कर दिया।

इसके अलावा एससी-एसटी के कोटे को 16 से बढ़ाकर 18 किया गया। इस तरह राज्य में कुल जातीय आरक्षण बढ़कर 49 फीसदी हो गया। इसके बाद 1980 में आई एआईएडीएमके सरकार ने पिछड़े वर्ग का कोटा बढ़ाकर 50 फीसदी कर दिया। एससी-एसटी का 18 पर्सेंट था ही। इस तरह कुल आरक्षण राज्य में 68 पर्सेंट हो गया। इसके बाद 1989 में करुणानिधि की जब सरकार आई तो इस कोटे में ही 20 फीसदी आरक्षण अति पिछड़ा के लिए अलग से दिया गया। इसके बाद 1990 में मद्रास हाई कोर्ट के फैसले के बाद 18 फीसदी एससी आरक्षण के अलावा एसटी कोटा 1 फीसदी अलग से दिया गया। इस तरह कुल कोटा राज्य में बढ़कर 69 फीसदी हो गया।

इसके बाद 1992 में सुप्रीम कोर्ट से इंदिरा साहनी केस में फैसला आया। इसमें कहा गया कि जातिगत आरक्षण 50 फीसदी से अधिक नहीं हो सकता। अदालत ने संविधान के आर्टिकल 16(4) का जिक्र करते हुए यह आदेश दिया। इसके बाद जब 1993-94 में शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले की बारी आई तो तब की जयललिता सरकार ने मद्रास हाई कोर्ट का रुख किया। उसने आदेश दिया कि इस साल पुराने आरक्षण से एडमिशन ले सकते हैं, लेकिन अगले सत्र से 50 फीसदी लिमिट का नियम मानना होगा। इस पर जयललिता सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दाखिल की थी। यहां भी उसे झटका लगा था।

अदालत से झटके पर जयललिता सरकार ने नवंबर 1993 में विधानसभा का स्पेशल सेशन बुलाया था और प्रस्ताव पारित हुआ था। फिर इस प्रस्ताव को लेकर वह तत्कालीन नरसिंह राव सरकार के पास गई थीं। तब सरकार ने तमिलनाडु वाले आरक्षण कानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में डाल दिया था। दरअसल यहां मसला यह है कि नौवीं अनुसूची में शामिल विषयों की अदालत में समीक्षा नहीं की जा सकती। इस तरह तमिलनाडु में 69 फीसदी आरक्षण निर्बाध चला रहा है। इसीलिए दूसरे राज्यों से भी अक्सर मांग उठती है कि उनके यहां से भी आरक्षण के विषय को नौवीं अनुसूची में डाल दिया जाए।

बिहार में ओबीसी और दलित समाज को 20 जून, 2024 को उस समय झटका लगा, जब पटना उच्च न्यायालय ने शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी), अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षण 50% से बढ़ाकर 65% करने के बिहार सरकार के फैसले को रद्द कर दिया।

नवंबर, 2023 में, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जो उस समय भारतीय राष्ट्रीय विकास समावेशी गठबंधन (इंडिया) विपक्षी गुट का हिस्सा थे, ने तब राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया था जब उन्होंने अपनी सरकार का नेतृत्व करते हुए राज्य विधानसभा में आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित 50% की सीमा को तोड़ने के लिए महत्वपूर्ण संशोधन पारित किए थे। ये संशोधन बिहार में एक जाति सर्वेक्षण के बाद किए गए थे, जिसमें पता चला था कि बिहार की 65% आबादी इन चार हाशिए के समूहों से संबंधित है, लेकिन सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है।

बिहार आरक्षण संशोधन विधेयक ने ईबीसी के लिए मौजूदा 18% से 25%, ओबीसी के लिए 12% से 18%, एससी के लिए 16% से 20% और एसटी के लिए 1% से 2% कोटा बढ़ा दिया। इस प्रक्रिया में ओबीसी महिलाओं के लिए मौजूदा 3% को खत्म कर दिया गया। इस कदम और भारत में जाति जनगणना कराने की व्यापक मांग के कारण देश भर में ‘उच्च’ जाति समूहों में भारी नाराजगी पैदा हुई।

जाति सर्वेक्षण स्वयं विपक्षी गठबंधन द्वारा अखिल भारतीय जाति जनगणना की मांग के लिए एक ऊर्जावान अभियान के हिस्से के रूप में आयोजित किया गया था, जिसका बड़ा उद्देश्य यह समझ था कि आरक्षण विभिन्न समुदायों की आबादी के अनुपात में होना चाहिए।

जिनकी जितनी संख्या भारी, उतनी उनकी हिस्सेदारी (संख्या के अनुसार कोटा) विपक्षी ताकतों का स्पष्ट आह्वान बन गया, जिन्होंने इस विचारधारा की वकालत की कि आनुपातिक आरक्षण से न केवल संस्थानों में आनुपातिक सामाजिक प्रतिनिधित्व प्राप्त होगा, बल्कि सरकारों को अपने कल्याणकारी कार्यक्रमों को वैज्ञानिक रूप से निर्देशित करने में भी मदद मिलेगी।

हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस तरह की मांग को जाति-आधारित “विभाजनकारी” राजनीति बताकर खारिज कर दिया, लेकिन भाजपा की बिहार इकाई ने नीतीश कुमार के जाति सर्वेक्षण को अपना पूरा समर्थन दिया, जिससे बिहार सरकार के संशोधनों को सर्वसम्मति से समर्थन मिला। निश्चित रूप से, राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना की मांग मोदी सरकार के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10% कोटा लागू करने के फैसले से उत्पन्न हुई , जिसका प्रभावी रूप से तथाकथित ‘उच्च’ जातियों के लिए सकारात्मक कार्रवाई का विस्तार था, क्योंकि आरक्षण के पहले से ही लाभार्थी अधिकांश लोगों को ईडब्ल्यूएस कोटे के दायरे से बाहर रखा गया था।

हालांकि, ईडब्ल्यूएस कोटा का मतलब यह था कि केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के प्रतिबंध का उल्लंघन किया, क्योंकि अधिकांश राज्यों ने 50% की सीमा लगभग समाप्त कर दी थी। इसके अलावा, ईडब्ल्यूएस कोटा ने आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु जैसे कई राज्यों में ‘उच्च’ जाति समूहों को अनुपातहीन प्रतिनिधित्व दिया और साथ ही जहां भी उनकी आबादी का हिस्सा 5% से अधिक नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने अंततः मोदी सरकार के फैसले को बरकरार रखा क्योंकि उसने ईडब्ल्यूएस कोटा को इंदिरा साहनी मामले में जाति-आधारित आरक्षण की सीमा पर 50% के प्रतिबंध का उल्लंघन नहीं पाया।

इसने विपक्षी ताकतों को आरक्षण की अधिक आनुपातिक प्रणाली की मांग करने के लिए प्रेरित किया, भले ही इसका मतलब 50% से ऊपर जाना हो। कांग्रेस, जो राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियों द्वारा सबसे पहले पेश किए गए जाति जनगणना के विचार के समर्थन में तुरंत सामने आई, वह पहली राजनीतिक पार्टी थी जिसने वादा किया था कि अगर वह सत्ता में आती है तो 50% की सीमा को विधायी रूप से खत्म कर दिया जाएगा।

इस विचार को आगे बढ़ाने के लिए, नीतीश कुमार-तेजस्वी यादव सरकार ने जल्दी से एक राज्य स्तरीय जाति सर्वेक्षण कराया, जिसके नतीजे चौंकाने वाले थे। बिहार की लगभग 34% आबादी 6000 रुपये प्रति माह से कम कमाती है। जैसा कि अपेक्षित था, हाशिए पर पड़े समुदाय लगभग सभी सामाजिक-आर्थिक विकास सूचकांकों में ‘उच्च’ जाति समूहों से बहुत पीछे हैं, जिसमें शिक्षा का स्तर, स्वास्थ्य सेवा और बेरोजगारी तक पहुंच और यहां तक कि पोषण भी शामिल है।

पटना उच्च न्यायालय द्वारा संशोधन विधेयक को खारिज करने के फैसले ने अब कई संभावनाओं को जन्म दिया है, क्योंकि बिहार में राजनीतिक परिदृश्य बदल गया है। एक तो यह कि नीतीश कुमार भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल हो गए हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या नीतीश चुनौती स्वीकार करते हैं और उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील करते हैं, क्योंकि मोदी सरकार शायद उनके पक्ष में न हो।

कांग्रेस महासचिव और मुख्य प्रवक्ता जयराम रमेश ने पहले ही गेंद उनके पाले में डाल दी है, उन्होंने एक्स पर एक पोस्ट में पूछा है कि क्या उनकी सरकार अब इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएगी। क्या बिहार सरकार अब तुरंत सर्वोच्च न्यायालय में अपील करेगी? क्या केंद्र की एनडीए सरकार इस अपील पर गंभीरता से अपना पूरा प्रयास करेगी? क्या संसद को जल्द से जल्द इस मुद्दे पर चर्चा करने का मौका मिलेगा?”

जहां तक नीतीश के अपने राजनीतिक रुख की बात है, तो वे हमेशा से ही ईबीसी और दलित समुदायों के अधिक प्रतिनिधित्व के प्रबल समर्थक रहे हैं। राज्य में उनकी बढ़ती अलोकप्रियता के बावजूद, दोनों समूह हर परिस्थिति में उनके साथ खड़े रहे हैं। यह उनका समर्थन ही है कि नीतीश 2024 के आम चुनावों में भी भाजपा के बराबर के भागीदार के रूप में उभरे और गठबंधन के कारण इसका लाभ भाजपा और अन्य को भी मिला।

पटना उच्च न्यायालय के फैसले ने अनजाने में ही विपक्षी गठबंधन को न केवल जाति जनगणना और आनुपातिक आरक्षण के मुद्दों को उठाने का एक उपयुक्त अवसर प्रदान कर दिया है, बल्कि इन मांगों के इर्द-गिर्द राज्यों में अपने नेतृत्व में विविधता लाने का भी अवसर प्रदान कर दिया है।

इस तरह विपक्षी ताकतें चुनाव के दौरान मिली बढ़त को आगे भी बरकरार रख सकती हैं। वहीं, भाजपा और नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू जैसे उसके सहयोगी दल, जो पिछड़े वर्ग के नेता हैं, उनके सामने कड़ी चुनौती खड़ी हो सकती है।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं)

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