किसी भी मामले की सच्चाई जानने के लिए सबसे पहले हम आंकड़े देखते हैं, और आंकड़े को सच मानते हैं। आंकड़ों में अगर दर्ज हो जाए तो विकास कागजों पर तो हो ही जाता है, भले ही जमीनी हकीकत इतर हो।
यह बहुत बुरी स्थिति है कि आम लोगों के पहुंच तक या कम्पटीशन की तैयारी करने वाले सामान्य तौर पर छात्र-छात्राएं उस जमीनी हकीकत को नहीं देखते बल्कि आंकड़े जो दिखाते हैं, उसे ही सही मानते हैं।
बहुत कम लोग उस आंकड़े की भी खोज करते हैं जो कि जमीनी हकीकत से जुड़ी होती है। उसी सफल आंकड़ों के सहारे देश की स्थिति, अर्थव्यवस्था, विकास, सरकार की योजनाओं की सफलता का आकलन होता है।
ये आंकड़े तब गड़बड़ाते है, जब कोई बड़ी घटना घट जाती है और असली सच्चाई को उजागर कर देती है जिसे सुधारने की बजाए उसकी लीपापोती की कोशिश की जाती है, चाहे वह सरकारी अनाज मिलने की बात हो, चाहे शिक्षा क्षेत्र में बच्चों की देखभाल की बात।
4 सितंबर, 2024 की ही खबर है, राष्ट्रीय कृमि मुक्ति दिवस पर बुधवार 4 सितंबर को स्कूलों और आंगनबाड़ी केंद्रों में बच्चों को अल्बेंडाजोल की दवाएं खिलाई गई हैं। अल्बेंडाजोल एक एंटीपैरासिटिक है।
एंटीपैरासिटिक का उपयोग टेपवर्म या अन्य परजीवियों के संक्रमण के इलाज के लिए किया जाता है। इसके खाने के कुछ गाइडलाइन होते हैं, इसके कुछ सामान्य साइड इफेक्ट, तो कुछ गंभीर इफेक्ट होते हैं।
इस दवा को खाने के बाद बिहार के खरीक के मवि ढोरिया मिडिल स्कूल के 40 बच्चे बेहोश हो गए, बच्चे दवा नहीं खाना चाह रहे थे, मगर स्कूल की ओर से जोर देने पर खाए, खाने के बाद पेट दर्द , चक्कर की शिकायत के साथ वे बेहोश हो गए, यह भी खबर है कि घटना के बाद तुरंत स्वास्थ्य टीम स्कूल नहीं पहुंची।
स्कूलों और आंगनबाड़ी केंद्रों पर बच्चों को अल्बेंडाजोल की दवा खिलाने के लिए शिविर लगा था, जिसमें पीएचसी प्रबंधन द्वारा प्रखंड स्तरीय रैपिड रिस्पांस टीम गठित की गयी थी ताकि आपात स्थिति से निपटा जा सके, पर यह टीम गश्त करती नहीं दिखी, न ही प्राथमिक उपचार के लिए उपस्थित रही।
बच्चों को फिर थानाध्यक्ष के पंहुचने के बाद स्वास्थ्य टीम के साथ पीएचसी ले जाया गया। पीएचसी प्रभारी ने बताया कि “खाली पेट दवा नहीं खानी चाहिए, भोजन के बाद भी दवा खाने से परेशानी हो, तो चीनी-पानी या ओआरएस का घोल पिलाएं।
अमूमन साइड इफेक्ट्स उन्हें ही होता है, जिनके अंदर कृमि के परजीवी होते हैं।” अगर यह जानकारी दवा खिलाने वालों को होती, तो शायद इसका उपचार वहीं और तुरंत हो गया होता।
इसके अलावा गोपालपुर के मध्य विद्यालय अभिया में भी एक बच्ची दवा खाने से बेहोश हो गई। वहीं कटिहार के कोढ़ा प्रखण्ड क्षेत्र के उत्क्रमित मध्य विद्यालय विषहरिया में भी लगभग 2 दर्जन छात्र व छात्राएं बेहोश हो गए।
अभी हाल में ही गाजीपुर में फाइलेरिया की दवा खिलाने पर 12 बच्चे, आरा में 39 बच्चे, भोजपुर में 45 बच्चे, नवादा में 22 बच्चे, सीतामढ़ी में 50 बच्चे के बीमार पड़ जाने की खबर छपी थी, वहीं फरवरी 2024 में खबर छपी थी कि बिहार के 9 जिलों में 497 बच्चे सरकारी दवा के रिएक्शन से बीमार हुए है।
ऐसे कई आंकड़े भरे पड़े हैं जहां सरकारी दवाएं खाकर बच्चे बीमार पड़ गये हैं, सबके पीछे कारण अलग-अलग होता है और परिणाम भी अलग-अलग देखे गए हैं। ऊपर की घटना कई सच्चाई को उजागर करती है।
सरकारी योजनाओं के तहत दवा खिलाने की खानापूर्ति
अक्सर विद्यालय में सरकारी योजनाओं के तहत दवाएं बांटी तो जाती हैं, जिसके कारण कागजों में यह दर्ज तो हो जाता है कि बच्चों को दवाएं उपलब्ध कराई गईं, पर इसके उद्देश्य में कहीं भी बच्चों के स्वास्थ्य की चिंता नहीं होती है। बल्कि दवा बांटते और आंकड़ों में इसे दर्ज करवाने के उद्देश्य मात्र होते है। जिसका स्पष्ट प्रमाण इन लापरवाही भरे खबरों से होती है।
किसी भी बीमारी और दवा के गाइडलाइन होते हैं, कई दवाएं कई परिस्थितियों में नहीं दी जाती, कई दवाओं के बाद कुछ साइट इफेक्ट होते हैं, कइ दवा लेने के बाद भी कुछ शर्त होते हैं। इसलिए किसी भी दवा को लेने और देने से पहले उसकी पूरी जानकारी होनी जरूरी है।
सरकारी स्कूलों में जब दवा दी जाती है, तो इसकी जानकारी वहां के दवा देने वाले शिक्षकों को होनी जरूरी है। अगर ऐसा होता तो इस तरह के खबर आते ही नहीं। उन्हें न दवा देने के गाइडलाइन की जानकारी होती है, न ही किसी साइड इफेक्ट्स से जुड़े उपाय की।
बिना नाॅलेज के वे स्कूली बच्चों पर सिर्फ दवा खा लेने का प्रेशर बनाते हैं, ताकि उनकी गिनती सरकारी योजनाओं को जमीन पर उतारने वाले बेहतर सरकारी स्कूलों में जहां ‘सरकारी दवाओं को खिलाया गया’ हो सके, अखबारों में खबर छप सके, सरकारी कागजों में नाम दर्ज हो।
ऐसे में जबतक कोई साइड इफेक्ट नहीं हुआ, तबतक तो ठीक है मगर जैसे ही कोई इफेक्ट पड़ता है, दवा खिलाने वाले कुछ नहीं कर सकते, बच्चों की जिंदगी के साथ यह खिलवाड़ हमेशा होता रहता है। और फिर बाद में कारणों को इतना छोटा बना दिया जाता है कि कुछ ही दिनों में लोग उसे भूल जाएं। अगली घटना फिर उसी तरह घटती है।
उपचार की सुविधा का अभाव और गारंटी
जनकल्याण के स्वास्थ्य शिविर लगाने की खबर हम हमेशा पढ़ते हैं। अखबारों में यह पढ़ना अच्छा लगता है और सरकार भी अपनी पीठ थपथपाती है कि इस मामले पर यहां स्वास्थ्य शिविर लगाई गई, पर वे कितने सचेत कितनी जमीनी होती है यह हम ऐसी खबरों से जान सकते हैं।
बच्चों के स्वास्थ्य बिगड़ने पर न कोई तत्काल स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध होती है और न ही कोई सुविधा की गारंटी। छोटे साइड इफेक्ट होने पर भी समय पर उपचार उपलब्ध नहीं होने से स्थिति गंभीर हो जाती है, क्यों हर बार स्वास्थ्य शिविरों के लगने के बाद भी बच्चों को गंभीर स्थिति तक या अस्पताल तक जाना पड़ता है?
अभिभावकों का सरकारी दवाओं से डर
जब दवाएं खाकर बच्चे बीमार पड़ जाएं, तो कौन अभिभावक अपने बच्चों की जिंदगी दाव पर लगाना चाहेगा। स्वास्थ्य शिविरों की स्थिति हो या स्कूलों में चल रहे ऐसे कार्यक्रम यह लापरवाहियां बच्चों की जिंदगी के साथ एक खिलवाड़ करती है। यही लापरवाही वजह है कि कई बार ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों की मौत बीमारी से हो जाती है, और पता चलता है कि अभिभावकों ने दवा नहीं खिलाई थी।
सभी को अपने बच्चों से प्यार होता है और सरकार की ओर से उपलब्ध कराने वाले दवाओं के दुष्परिणाम से लोग इतने डरे होते हैं कि दवा देने का रिस्क नहीं उठा पाते, बच्चों के बीमार होने पर वे चाहते हैं कि वे स्वस्थ हो। पर कैसे यह उपाय उनके पास नहीं होता। कई बार सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई दवाएं एक्सपायर्ड निकलती है और मौत का कारण भी बनती है।
कल के भविष्य से खिलवाड़
कोई विकास योजना आंकड़ों के लिए जबतक की जाएगी परिणाम ऐसे ही निकलते रहेंगे। एक खबर के कुछ ही दिनों बाद वैसी ही खबर पढ़ने को मिलती ही रहेंगी, सरकारी आंकड़ों में योजनाएं सफलता पूर्वक काम करती दिखेंगी और वास्तविकता में बच्चों की जिंदगी के साथ खिलवाड़ होता रहेगा।
जरूरत है बच्चों की जिंदगी से होने वाले खिलवाड़ पर रोक लगाने की, जब भी कोई दवा सरकारी स्कूलों में दी जाए तो दवा से संबंधित सारे गाइडलाइन और जानकारी भी दी जाए साथ ही स्वास्थ्य विभाग की ओर से वे सुविधाएं भी उपलब्ध हों, जो कि आकस्मिक जरूरत पर काम आ सके।
जरूरत है इन लापरवाहियों के विरुद्ध सचेत होने की, कार्रवाई करने की और सच में बच्चों के स्वास्थ्य के लिए काम करने की, आखिर हर एक बच्चा देश का भविष्य है।
(इलिका प्रिय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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