जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए भारत ने अपने लक्ष्यों की घोषणा कर दी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि भारत 2030 तक संभावित कार्बन उत्सर्जन में एक खरब टन की कटौती करेगा। ग्लासगो में विश्व जलवायु सम्मेलन के दौरान मोदी ने पांच बड़ी घोषणाएं कीं। इनमें 2070 तक शून्य-उत्सर्जन का लक्ष्य पाना शामिल है। भारत ने अब तक शून्य-उत्सर्जन के लक्ष्य की घोषणा नहीं की थी, इसे लेकर सवाल उठाए जाने लगे थे। भारत ने पेरिस समझौता में घोषित संकल्पों में बढ़ोत्तरी करने की घोषणा भी की है। इसके साथ विकासशील देशों की सहायता करने के लिए पेरिस समझौता के अनुसार विकसित देशों की ओर से विश्व जलवायु बजट में योगदान को 100 खरब डालर प्रतिवर्ष देने के संकल्प को शीघ्र शुरू करने और इस रकम को बढ़ाकर एक ट्रिलियन डालर करने की मांग भी उठाई है।
हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्यों की बड़ी घोषणा अचानक की है, इसके लिए देश के भीतर कोई विचार-विमर्श होने की जानकारी नहीं मिलती। राज्यों के साथ विचार विमर्श नहीं किया गया, जबकि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए आवश्यक कार्रवाई राज्यों को ही करनी होगी। वैसे जलवायु के लिहाज से देश की वर्तमान स्थिति को देखते हुए इन घोषणाओं को यथार्थ से कोसों दूर माना जा रहा है। अपनी इन घोषणाओं को देश कैसे पूरा करेगा, इसे लेकर विवादों में पड़ने की पूरी गुंजाइश है। उन विवादों की चर्चा करने के बजाए हम भारत की वर्तमान स्थिति पर गौर करें तो इन संकल्पों को पूरा करने में आने वाली कठिनाइयों का अनुमान लगाया जा सकता है।
भारत वर्तमान में ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन करने वाला तीसरा सबसे बड़ा विकासशील देश है, वह प्रति वर्ष 3 खरब टन से अधिक ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन करता है। विश्व संसाधन संस्थान के आंकड़ों के अनुसार, 2018 में भारत का कुल ग्रीनहाऊस उत्सर्जन 3.3 खरब टन था, वर्ष 2010 में 2.5 खरब टन था। इस दर से भारत का संभावित उत्सर्जन 2030 में 30 से 32 खरब टन के बीच रहना संभावित है। लेकिन भारत के उत्सर्जन में 4 से 5 प्रतिशत की दर से बढ़ोत्तरी हो रही है। इस वजह से 2030 तक भारत का उत्सर्जन 40 खरब टन के आस पास रहेगा। प्रधानमंत्री ने जिस एक खरब टन कटौती करने की घोषणा की है, वह इसी 40 खरब टन में से होगा।
हालांकि भारत ने पहली बार जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिहाज से अपने उत्सर्जन के मामले ठोस भाषा में किसी लक्ष्य की घोषणा की है। इसका एक कारण था कि वर्तमान अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन समझौतों के अंतर्गत उत्सर्जन घटाने की जिम्मेदारी केवल विकसित देशों की थी, विकासशील देशों की नहीं। पर पेरिस समझौते के बाद सभी देशों से उत्सर्जन में कटौती करने और जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए राष्ट्रीय कार्ययोजना तैयार करने की जिम्मेदारी विकासशील देशों पर भी आ गई। भारत इसके पहले उत्सर्जन की तीव्रता में कटौती करने की घोषणा करता रहा है।
भारत की इन घोषणाओं से ग्लासगो सम्मेलन में नए सिरे से गर्मजोशी आ गई है। खासकर विकासशील देशों की सहायता के लिए 100 खरब डालर सालाना देने की विकसित देशों की जिम्मेदारी के पूरा नहीं होने से सुस्ती का माहौल था। प्रधानमंत्री मोदी ने इस मसले को खासतौर पर उठाया है और इस रकम को बढ़ाकर एक ट्रिलियन करने की मांग कर दी है।
(पर्यावरण और जलवायु से जुड़े मामलों के जानकार अमरनाथ की रिपोर्ट।)
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