गरीबों के हक की लड़ाई लड़ने वाले जननेता ने ली विदाई

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बिहार के फतुहा से आए कॉमरेड राजाराम ने क्रान्तिकारी जनआन्दोलनों में एक लम्बी यात्रा पूरी करने के बाद हम सब से 1 सितम्बर 2023 की रात को विदा ले ली। वे 74 वर्ष के थे और पीएमसीएच में कुछ छोटी बीमारी के लिए भर्ती थे। 6 दशकों में बिहार और देश में बहुत कुछ बदल गया है, लेकिन पिछली पीढ़ी के सभी जननेताओं को कॉ. राजाराम का सरल-सहज व्यव़हार ओर गरीबों के अधिकारों के प्रति दृढ़ संकल्प हमेशा याद रहेगा।

राजाराम एक पिछड़े समुदाय के साधारण परिवार से आते थे पर उनके मन में समाज को बदलने की तीव्र लालसा थी। वे 1966 में सीपीएम की छात्र इकाई से जुड़कर आंदोलनों में जुड़ने लगे। जब 1971 में बांग्लादेश के मुक्ति आंदोलन को चरम दमन का सामना करना पड़ रहा था, भारत के छात्र-युवा भी उसके समर्थन में सड़कों पर आए; नालंदा के हिलसा कॉलेज में पढ़ते हुए का. राजाराम भी उस आंदोलन में शामिल हुए और अपने इलाके में कई जुलूसों का नेतृत्व किया।

उसी समय सीपीएम से अलग हुए कॉ. ए.के. राय के नेतृत्व में बनी मार्क्सवादी समन्वय समिति से उनका संबंध स्थापित हुआ। उसके बाद वे एमसीसी के छात्र संगठन एसएफआइ (बी) के एक सक्रिय कार्यकर्ता बने। उन्होंने 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार में चल रहे जनआन्दोलनों में हिस्सा लेना शुरू किया। उस वक्त वे हिलसा कॉलेज में बीएससी (बॉटनी) के तृतीय वर्ष के छात्र थे। आंदोलन का नेतृत्व करते हुए वे पुलिस की बर्बरता के शिकार हुए। उनपर बेरहमी से लाठियां बरसाई गईं, हाथों में हथकड़ियां डाल दी गई और जेल में डाल दिया गया। लगभग 4 महीने तक वे जेल में रहे।

इस घटना की राज्यस्तरीय चर्चा हुई थी और कॉ. राजाराम 74 आंदोलन के एक प्रमुख नेता बन गए। पर कुछ समय बाद उन्हें लगने लगा था कि कहीं-न-कहीं उनका आन्दोलन से एक किस्म का मोहभंग होता जा रहा था, क्योंकि आन्दोलन अपने ही निर्धारित लक्ष्य से भटक रहा था। कॉ. विनोद मिश्र की कार्यनीतिक लाइन और कार्यक्रम उन्हें काफी आकर्षित करते थे, इसलिए ‘राजेन्द्र’ नाम से वे भूमिगत पार्टी के एक प्रतिबद्ध कार्यकर्ता बनकर काम करने लगे। भूमिगत पार्टी भाकपा माले भी चौतरफा पहलकदमी बढ़ाने के लिए अपनी पुरानी कार्यनीतिक दिशा का त्याग करते हुए जनांदोलनों की दिशा ले रही थी। इसी के तहत का. राजाराम ने फ़तुहा में नागरिक कल्याण परिषद और एक स्कूल की स्थापना की। उनके ऐसे प्रयासों से आसपास के इलाकों में सामाजिक बदलाव के संघर्ष को एक नई गति मिली।

राजाराम जी बिहार प्रदेश किसान सभा और देशभक्त जनवादी मोर्चे के सक्रिय सदस्यों में थे, और मोर्चे के महासचिव भी बने। बिहार में एक नए युग की शरुआत हो चुकी थी। गरीब किसानों व मज़दूरों के पक्ष में जुझारू जन आन्दोलनों का दौर शुरू हुआ था, जो शासकों और ज़मींदारों के नापाक गठबंधन को ललकार रहा था। हाशिये पर जीने वाले लोग जातीय निजी सेनाओं और पुलिस से लोहा लेने के लिए हिम्मत जुटा रहे थे, और मध्यम वर्ग के तमाम जनवादी लोग उनके साथ डटकर खड़े थे। कॉ. राजाराम के कुशल नुतृत्व में संघर्ष ने नई ऊंचाइयां छुईं।

इसे देश भर में आगे बढ़ाया गया और इंडियन पीपुल्स फ्रन्ट का गठन 1982 में दिल्ली के फिरोज़ शाह कोटला मैदान में भारी आंधी-तूफान को झेलते हुए सम्पन्न हुआ। आईपीएफ से बहुत से जन संगठन और लड़ाकू शक्तियां जुड़ीं। कवि-प्रत्रकार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, दलिप स्वामी, हरबंस मुखिया, गुरुशरण सिंह, कवि पंकज सिंह, दिल्ली विश्वविद्यालय के मनोरंजन मोहंती, ट्रेड यूनियन नेता बी सुब्बाराव, दत्ता सामंत और शंकर गुहा नियोगी, तमिलनाडु के किसान नेता यूजी नारायणस्वामी, न्यायविद गोविन्द मुखौटी, वी एम तारकुन्डे, राजस्थान किसान संगठन, लाल निशान पाटी लेनिनवादी, उत्तराखण्ड संघर्षवाहिनी, और कार्बी स्वायत्त राज्य आंदोलन व उत्तरी कछार के आदिवासी संगठन, आदि जैसी शक्तियां जुड़ीं। कॉ. राजाराम को फ्रंट का महासचिव चुना गया।

1982 में बिहार प्रेस बिल के विरु़द्ध रैली में करीब 1 लाख की भागीदारी थी, जो मेनस्ट्रीम मीडिया रिपोर्टों ने बताया। इसने देश भर में आईपीएफ को प्रसिद्धि दिलाई। आईपीएफ ने पहला चुनाव 1985 में बिहार में 49 सीटों पर लड़ा था। चुनाव के समय कॉ. राजाराम जेल में थे और उनकी रिहाई के लिए पूरे राज्य में अभियान चल रहा था। दरअसल 1984 में हिलसा में एक आंदोलन के दौरान पुलिस ने कॉ. राजेन्द्र पटेल सहित कॉ. राजाराम और उनके साथियों पर बेरहमी से लाठियां चलाईं। इस दमन की सर्वत्र निंदा हुई। उस दौरान भी का. राजाराम को अपने साथियों के साथ कई महीने जेल में रहना पड़ा था।

उस समय वोटर लिस्ट केवल पंजीकृत मान्यताप्राप्त दलों को मिले थे और आईपीएफ प्रत्याशियों के कार्यकर्ता दिन-रात बैठकर दूसरों से मांगकर लाए गए वोटर लिस्ट की हाथ से प्रतिलिपि बनाते रहते- वह भी लालटेल की रोशनी में। एक पोस्टर चारों ओर दिखाई पड़ रहा था। राजाराम के गले में सीकड़ और कॉ. राजाराम को रिहा करो का नारा। यह पोस्टर कह रहा था कि बिहार की निरंकुश जन-विरोधी ताकतें जनता का और लोकतंत्र का गला घोंट रही है। उन्हें मुक्ति दिलाने के लिए ही चुनाव लड़ा जा रहा है। राजाराम जी की पत्नी संगीता अभियान की नेतृवकारी साथी थीं। मैं खुद उस समय बिहार में चुनावी अभियान में लगी थी। कॉ. संगीता अपने छोटे-छोटे बच्चों को दिन भर के लिए घर में बन्द करके ताला लगाकर निकलतीं तो रात 10-11 बजे से पहले घर नहीं पहुंचतीं।

1986 में अरवल में निहत्थे किसानों पर पुलिस फायरिंग और 21 गरीबों की हत्या के बाद भी आईपीएफ ने राज्यव्यापी आन्दोलन छेड़ा जिसको तमाम लोकतांत्रिक ताकतों का समर्थन मिला। भारी संख्या में जनता की जुझारू ताकतों के बिहार ऐसेम्ब्ली का ऐतिहासिक घेराव आयोजित किया था। इस आंदोलन के नेतृत्व में कॉ. राजाराम, कॉ. नागभूषण पटनायक व कॉ. अखिलेन्द्र प्रताप सिंह सहित कॉ. संगीता जी थे। उनपर पुलिस का खौफनाक हमला हुआ और उस बर्बर दमन की तस्वीर देश-विदेश में छपी। इन तीनों नेताओं को नजरबंद कर दिया गया था, जिसके खिलाफ बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. कर्पूरी ठाकुर बिहार विधानसभा में धरना पर बैठे गए थे। तब जाकर नेताओं की रिहाई हुई थी।

1986 में कलकत्ता में तमाम वाम व स्वायत्त महिला संगठनों का राष्ट्रीय सम्मेलन भी आईपीएफ ने करवाया। कॉ. राजाराम ने हमेशा महिला साथियों की हौसला अफ़ज़ाई किया। कभी लगता ही नहीं था कि महिला-पुरुष में कोई भेद है। राजारामजी महिलाओं को बुद्धि और राजनीतिक समझदारी में कमज़ोर नहीं समझते थे। उन्होंने मुझे देश भर की तमाम महिला नेताओं और बुद्धिजीवियों से मिलवाया।

1988 में तत्कालीन केंद्र सरकार द्वारा लाए गए 59 एमेंडमेंट्स के खिलाफ आइपीएफ ने मोर्चा खोला था। उसने जेल भरो आंदोलन का आह्वान किया, जिसमें कॉ. राजाराम सहित 13 लोग गिरफ्तार हुए थे। 1989 में का. राजाराम ने चतरा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से आइपीएफ के बैनर से चुनाव लड़ा बाद के दौर में, 90 के दशक में जब मैं दिल्ली में काम कर रही थी उन्होंने मुझे नन्दिता हक्सर, सविता सिंह, उत्सा पटनायक, अनुराधा चिनॉय, उमा चक्रवर्ती, रोमिला थापर, रंजना पाढ़ी, प्रमिला पान्धे, आदि से खुद मुझे मिलवाया या संपर्क दिया।

मुझे याद है कि नन्दिता हक्सर के घर हम तब गए थे जब कार्बी ऑन्गलॉन्ग में आदिवासियों पर सरकार की शह पर मिलिटैंट ग्रुप्स द्वारा हमला करवाया जा रहा था। हम मानवाधिकार आंदोलन की ताकतों को इसपर साथ लाना चाहते थे। नन्दिता की तबियत खराब थी पर वह हमारे साथ चाय पीना चाहती थीं। मैं चाय बनाने उठी तो उन्होंने मुझसे बैठकर बात करने को कहा और स्वयं जाकर रसोई से चाय बना लाए। फिर नन्दिता को बैठाने के लिए पीछे उन्होंने तकिये का सहारा दिया और उनका हाथ पकड़कर उन्हें बैठाकर चाय की प्याली दी। यह सब इतना सहज था कि कुछ महसूस ही नहीं हुआ। हम सार्थक बातचीत करके लौटे।

वे दिल्ली हेडक्वाटर से जुड़कर तमाम लोकतांत्रिक शक्तियों से संपर्क करते रहते-मेधा पाटकर, प्रभात पटनायक, मुचकुन्द दुबे, एसपी सिंह, सुनीलम, सुरेन्द्रमोहन, रवि राय, रजनी कोठारी, सीमा मुस्तफा, योगेन्द्र यादव सहित जेएनयू और डीयू के कई प्रोफेसर इनमें थे।
बिहार में लम्बे समय से आईपीएफ में साथ काम किये साथी केडी यादव ने कहा कि ‘‘राजाराम जी की कमी आज हमें बहुत खल रही है क्योंकि महागठबंधन को लेकर कई सटीक सुझाव उनकी तरफ से आते थे। माले की केंद्रीय कमेटी में उनका 25 वर्ष का लम्बा अनुभव था और वे लगातार तमाम शक्तियों से संपर्क में रहते थे।’’

वरिष्ठ पत्रकार और पीएसओ के संस्थापक उर्मिलेश खबर सुनते ही बोले, ‘‘कई कारणों से राजाराम जी हिन्दी भाषी क्षेत्र के वामपंथी आन्दोलन में एक उल्लेखनीय शख़्सियत के रूप में याद किये जाएंगे। पिछड़े इलाके और पिछड़े समाज से आने वाले इस समर्पित संगठक और कार्यकर्ता ने अपने विचारों और मूल्यों पर कभी कोई समझौता नहीं किया।’’

यह सच है कि वे एक संपूर्ण कम्युनिस्ट थे। इसलिए उनकी जीवन संगिनी कॉ. संगीता एक जुझारू जन नेता हैं, उनका पुत्र अभिषेक दर्भंगा में पार्टी का पूर्णकालिक कार्यकर्ता व राज्य समिति सदस्य है, दोनों बेटियां और बहू भी जनवादी मूल्यों की प्रबल समर्थक और कम्युनिस्ट हैं। बिहार राज्य स्थायी समिति में राजाराम जी सदस्य तो थे ही, केंद्रीय कंट्रोल कमीशन के अध्यक्ष भी 10 वर्ष की लम्बी अवधि तक रहे क्योंकि उनके निर्णय सभी को स्वीकार्य होते। उनका सादा जीवन, उनकी विनम्रता और धैर्य, साथ ही उनकी सभी किस्म की शक्तियों को जोड़ने और साथ लेकर चलने की अभूतपूर्व क्षमता अद्वितीय रही। ज़माने को आज ऐसे ही कम्युनिस्टों और जन नेताओं की सख़्त ज़रूरत है। राजाराम जी को 3 तारीक को पटना में अन्तिम विदाई दी गई।

(कुमुदिनी पति, भूतपूर्व उपाध्यक्ष, इण्डियन पीपुल्स फ्रन्ट।)

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  1. 1
    rewatib7@gmail.com

    वामपंथी मानसिकता वामपंथी न्यूज एजेंसियां देश को चाइना को गिरवी रखने की मानसिकता वाली प्रतीत होती हैं

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