वाराणसी, जिसे ‘गंगा-जमुनी तहज़ीब’ और आध्यात्मिक चेतना की नगरी कहा जाता है, एक बार फिर एक राजनीतिक हिंसा की खबर से सुलग उठा है। समाजवादी पार्टी के जुझारू नेता हरीश मिश्र उर्फ ‘बनारस वाले मिश्रा जी’ पर दिनदहाड़े जानलेवा हमला हुआ, जिसमें चाकू से वार कर उन्हें घायल कर दिया गया। हमलावर कथित रूप से करणी सेना से जुड़े बताए जा रहे हैं, जिनका दावा है कि यह हमला ‘करणी माता के अपमान’ का बदला लेने के लिए किया गया। यह घटना मात्र एक व्यक्ति पर हमला नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश की सामाजिक और राजनीतिक परतों को झकझोरने वाली कड़ी बन चुकी है, जिसे आगरा में हुए करणी सेना के हिंसक प्रदर्शन के परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है।
घटना वाराणसी के सिगरा थाना क्षेत्र की है, जहां शनिवार को दोपहर बाद हरीश मिश्र अपने घर के पास खड़े थे। तभी छह युवकों ने अचानक उन पर हमला बोल दिया। उनके सिर पर गंभीर चोटें आईं और चाकू से हमला किया गया। स्थानीय लोगों की तत्परता से दो हमलावरों को पकड़ लिया गया। हमलावर ने खुद को पांडेयपुर निवासी अविनाश मिश्रा बताया और यह भी स्वीकार किया कि वह करणी सेना से जुड़ा है। हालांकि, करणी सेना के जिलाध्यक्ष आलोक सिंह ने इस हमले से पल्ला झाड़ते हुए हमलावरों को “हमारे संगठन का हिस्सा नहीं” बताया है।
करणी सेना के वाराणसी के अध्यक्ष आलोक सिंह ने एक वीडियो जारी करते हुए कहा कि, “हरीश मिश्र पर हमले में करणी सेना के लोग नहीं हैं। हमारे संगठन का स्पष्ट नियम है कि इसमें केवल क्षत्रिय समाज के ही लोग शामिल हो सकते हैं। अविनाश मिश्रा और उनके साथ के लोग हमारे संगठन का हिस्सा नहीं हैं और उनका करणी सेना से कोई लेना-देना नहीं है। वे हमारी टीम का हिस्सा नहीं हैं, इसलिए उनके किसी भी कार्य या गतिविधि से हमारा कोई संबंध नहीं है।”
आलोक कहते हैं, “हमारा संगठन एक सुनियोजित और अनुशासित ढंग से कार्य करता है। हम समाज में किसी भी प्रकार के अन्याय या गलत कार्य का विरोध करते हैं, चाहे वह कहीं से भी हो। हाल ही में जिन दो युवकों की चर्चा हो रही है, वे ब्राह्मण समाज से आते हैं, न कि क्षत्रिय समाज से। हमारा संगठन विशेष रूप से सवर्ण समाज के हक की लड़ाई लड़ता है, लेकिन इसका आधार केवल जातिगत नहीं, बल्कि संगठन के सिद्धांतों और अनुशासन पर आधारित है। हमारे संगठन में सदस्य बनने का एक स्पष्ट और सख्त नियम है, जो भी इसमें शामिल होंगे, वे क्षत्रिय समाज से ही होंगे। यही हमारी विचारधारा है और इसी पर हम कार्य करते हैं।”
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अखिलेश यादव ने बनारस में पार्टी के लोकप्रिय नेता और प्रवक्ता हरीश मिश्रा पर हुए हमले की कड़ी निंदा की है। उन्होंने घटना को प्रदेश की बिगड़ती कानून-व्यवस्था का जीवंत प्रमाण बताया है। अखिलेश यादव ने सोशल मीडिया मंच ‘X’ (पूर्व में ट्विटर) पर लिखा, “समाजवादी पार्टी के जुझारू और प्रखर वक्ता तथा ‘बनारस वाले मिश्रा जी’ के नाम से लोकप्रिय हमारे साथी हरीश मिश्रा पर चाकू से किया गया कातिलाना हमला अत्यंत निंदनीय और शर्मनाक है। यह हमला केवल एक व्यक्ति पर नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जनसरोकारों की आवाज़ पर हमला है।”
उन्होंने आगे लिखा: “मिश्रा जी के रक्तरंजित वस्त्र, उनके शरीर से बहता लहू इस बात का प्रतीक है कि उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी है। सरकार अपराधियों पर नियंत्रण खो चुकी है और आम आदमी, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा विपक्षी नेताओं तक की सुरक्षा खतरे में है। यह घटना सिर्फ एक अपराध नहीं, बल्कि शासन-प्रशासन की निष्क्रियता और संवेदनहीनता का स्पष्ट संकेत है।”

अखिलेश यादव ने प्रदेश सरकार से तुरंत कार्रवाई की मांग करते हुए दोषियों की गिरफ्तारी और हरीश मिश्रा को सर्वोत्तम चिकित्सकीय सुविधा उपलब्ध कराने की मांग की है। साथ ही उन्होंने समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं से अपील की कि वे इस कठिन समय में मिश्रा जी और उनके परिवार के साथ खड़े रहें। बनारस के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता और समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता हरीश मिश्रा ने खुद पर हुए जानलेवा हमले को लेकर अपनी आपबीती साझा की। उन्होंने बताया कि यह हमला पूरी तरह से योजनाबद्ध था और इसका मकसद उन्हें गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाना था।
हरीश मिश्रा ने बताया, “दोपहर बाद मैं अपने घर के बाहर, आशा महाविद्यालय के मोड़ पर खड़ा था। तभी अचानक छह लोग वहां आए और मुझे चारों ओर से घेर लिया। उन्होंने मुझे जबरन पकड़ा और मारपीट शुरू कर दी। हमलावरों में से कुछ के हाथ में धारदार हथियार-चाकू-भी थे। उन्होंने मेरी गर्दन और शरीर के अन्य हिस्सों पर वार करने की कोशिश की।”
“हमले के दौरान मैंने शोर मचाया, जिस पर आसपास के मोहल्ले के लोग दौड़े चले आए। जैसे ही मोहल्ले के लोगों ने हस्तक्षेप किया, हमलावरों में अफरा-तफरी मच गई और वे भागने लगे। इसी दौरान दो हमलावर भीड़ के हाथ लग गए। मोहल्लेवासियों ने उन्हें पकड़ लिया और उनकी जमकर पिटाई की।”
पकड़े गए एक हमलावर ने बताया कि उसका नाम अविनाश मिश्रा है और वह पांडेयपुर का निवासी है। पूछताछ में उसने बताया कि वह ‘मां करणी’ के अपमान का बदला लेने आया था। उसके अनुसार, हाल ही में हरीश मिश्रा द्वारा करणी सेना को लेकर एक बयान दिया गया था, जिसे वह और उसके साथियों ने आपत्तिजनक माना। इसी के विरोध में यह हमला किया गया।

हरीश मिश्रा ने कहा, “यह हमला केवल मेरी जान लेने की कोशिश नहीं थी, बल्कि विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला था। मैंने समाज और सवर्ण संगठनों में फैली कुछ कट्टरताओं पर सवाल उठाए थे, लेकिन उसका जवाब हिंसा से मिलेगा, इसकी कल्पना नहीं की थी। इस घटना ने यह साबित कर दिया है कि उत्तर प्रदेश में असहमति का सामना अब विचार से नहीं, बल्कि चाकू और हिंसा से किया जा रहा है। उन्होंने प्रशासन से मांग की है कि सभी हमलावरों की जल्द से जल्द पहचान कर उन्हें सख्त सजा दी जाए और उन्हें तथा उनके परिवार को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की जाए।”
घटना की सूचना मिलते ही पुलिस मौके पर पहुंची और दोनों आरोपियों को हिरासत में लेकर थाने ले आई। बाद में घायलों को अस्पताल ले जाया गया, जहां उनका इलाज किया गया। हरीश मिश्रा पर हुए हमले की खबर जैसे ही फैली, समाजवादी पार्टी के सैकड़ों कार्यकर्ता सिगरा थाने पहुंच गए। सभी कार्यकर्ता थाने के बाहर गुलाब बाग पार्क में इकट्ठा हो गए, और जमकर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया।
सपा जिलाध्यक्ष सुजीत यादव और लक्कड़ ने कहा, “हमारे कार्यकर्ता सिगरा थाने के बाहर इकट्ठा हो गए हैं। जब तक हरीश मिश्रा पर हमला करने वालों के खिलाफ मुकदमा दर्ज नहीं होगा, हम यहां से कहीं नहीं जाएंगे। अगर उचित कार्रवाई नहीं की गई, तो हम थाने का घेराव करेंगे और अपना विरोध दर्ज कराएंगे।”

ज्ञात हो कि हरीश मिश्रा ने कुछ दिन पहले समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद के घर पर करणी सेना द्वारा की गई तोड़फोड़ के बाद एक बड़ा बयान दिया था। उन्होंने कहा था, “बहुत ज्यादा तड़प है लड़ने का, तुम पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों को मारने का शौक रखते हो, तो तुम एक मैदान तय कराओ। अगर बहुत बड़े धुरंधर हो तो हम चुनौती देते हैं, मैदान तय करो, तारीख तय करो, परमीशन लेकर आओ और पुलिस को हटवाओ। आ जाना, फरिया लिया जाएगा।”
राजनीतिक टकराव या सोची-समझी रणनीति?
वाराणसी में समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता हरीश मिश्रा पर हुए हमले ने प्रदेश की राजनीति में नई हलचल पैदा कर दी है। यह हमला केवल एक स्थानीय घटना नहीं रह गई है, बल्कि इसे हाल ही में आगरा में करणी सेना द्वारा किए गए प्रदर्शन और समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद रामजी लाल सुमन के खिलाफ फैले आक्रोश के संदर्भ में देखा जा रहा है।
आगरा की घटना ने पहले ही प्रदेश की राजनीतिक और सामाजिक फिजा में तनाव घोल दिया था। राणा सांगा की जयंती के अवसर पर आयोजित ‘रक्त स्वाभिमान सम्मेलन’ में करणी सेना और क्षत्रिय संगठनों ने तलवारें लहराकर शक्ति प्रदर्शन किया। सपा सांसद रामजी लाल सुमन की ऐतिहासिक टिप्पणी से आहत कार्यकर्ताओं ने खुलेआम मंच से चेतावनी दी कि ‘इतिहास पर अंगुली उठाने वालों के हाथ काटने होंगे।’ इस बयानबाजी और सड़कों पर उतरे आक्रोश ने प्रदेश में एक संगठित सियासी-सामाजिक लामबंदी की तस्वीर पेश की। सुमन के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए करणी सेना ने अल्टीमेटम भी दिया कि शाम तक मांगें नहीं मानी गईं तो नई रणनीति बनाई जाएगी।

इसी पृष्ठभूमि में वाराणसी में हरीश मिश्रा पर हमला हुआ। माना जा रहा है कि यह हमला महज़ एक आपसी झगड़े या निजी रंजिश का परिणाम नहीं था, बल्कि हालिया राजनीतिक घटनाओं से प्रेरित होकर किया गया।
शनिवार की रात हरीश मिश्रा पर हुए हमले के बाद जैसे ही खबर फैली, समाजवादी पार्टी के सैकड़ों कार्यकर्ता सिगरा थाने पर जमा हो गए। जिलाध्यक्ष सुजीत यादव ने ऐलान किया कि जब तक मुकदमा दर्ज नहीं होगा, पार्टी कार्यकर्ता वहीं डटे रहेंगे और यदि प्रशासन ने कार्रवाई नहीं की तो थाने का घेराव भी किया जाएगा।

एडीसीपी काशी सर्वणन टी ने बताया कि दोनों पक्षों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया गया है। थाने पर प्रदर्शन और हंगामा करने पर हरीश मिश्र और उनके कई समर्थकों के खिलाफ गंभीर धाराओं में रिपोर्ट दर्ज करने के बाद जांच की जा रही है। दोनों पक्षों के लोग घायल हुए हैं और उनका मेडिकल कराया गया है। एडीसीपी ने यह भी स्पष्ट किया कि अभी तक की पूछताछ में करणी सेना से संबंधित कोई बात सामने नहीं आई है। पूछताछ के दौरान यह पता चला है कि दोनों पक्षों के बीच कुछ बहस हुई थी, जिसके बाद मारपीट हुई। इसलिए इस मामले में उसी के तहत धाराएं लगाई गई हैं और केस दर्ज किया गया है। पुलिस के अनुसार, करणी सेना की भूमिका की पुष्टि नहीं हुई है, लेकिन घटनाक्रम के समय-काल और राजनैतिक संदर्भ को देखते हुए इसे पूरी तरह से नकारा भी नहीं जा सकता।

आगरा के बाद बनारस में हुई हिंसा
आगरा में राणा सांगा की जयंती के अवसर पर करणी सेना के प्रदर्शन को लेकर हालात तनावपूर्ण हो गए हैं। देश के विभिन्न राज्यों से लोग इस कार्यक्रम में शामिल होने पहुंचे हैं। इसी बीच, सपा के राज्यसभा सांसद रामजी लाल सुमन को जान से मारने और जीभ काटने की धमकियां मिलने का मामला सामने आया है। सुरक्षा के मद्देनज़र प्रशासन ने उनके घर से लेकर मुख्य चौराहे तक कड़ा सुरक्षा घेरा बनाया है। एक हजार से ज्यादा पुलिसकर्मी और पीएसी के जवान तैनात हैं, और करीब 50 बैरिकेडिंग लगाई गई हैं।
सांसद रामजी लाल सुमन ने स्पष्ट कहा कि उन्हें जान से मारने और जीभ काटने की धमकी मिल रही है, लेकिन इस पूरे मामले से निपटना प्रशासन की जिम्मेदारी है। उन्होंने कहा, “मैं समझता हूं कि प्रशासन को यह सब पता है। वो खुद व्यवस्था देख लेंगे। हमने अपनी तरफ से कोई व्यवस्था नहीं की है।”
करणी सेना द्वारा शाम पांच बजे तक माफी मांगने की मांग पर उन्होंने कहा, “करणी सेना क्या कह रही है, मुझे पता नहीं। उन्हें पांच बजे के बाद क्या करना है, उससे निपटने का काम हमारा नहीं, प्रशासन का है। प्रशासन पूरी तरह से मुस्तैद है और मुझे विश्वास है कि वह अपने फर्ज को पूरी तरह निभाएगा।” जब उनसे यह पूछा गया कि क्या वह अब भी राणा सांगा को गद्दार कहने वाले अपने बयान पर कायम हैं, तो सुमन ने कहा, “मुझे जो कहना था, वह मैं थोक में कह चुका हूं। अब किस्तों में कुछ नहीं कहना है।”
बातचीत के अंत में उन्होंने एक शायरी भी सुनाई-
“मय पिलाकर आपका क्या जाएगा, जाएगा ईमान जिसका जाएगा।
कल दी उसने कत्ल की धमकी मुझे, मैंने कह दिया कि देखा जाएगा।”
रामजी लाल सुमन इस समय अपने घर पर ही हैं। सुबह करीब 10 बजे वह बाहर आकर अपने समर्थकों के साथ बैठे थे। सफेद धोती-कुर्ता पहने सुमन शांत भाव से बातचीत करते नज़र आए। उनकी सुरक्षा में निजी 10 बाउंसर लगे हुए हैं और पीछे पर्सनल बॉडीगार्ड्स हर समय मौजूद रहे। एक से डेढ़ घंटे तक बाहर रहने के बाद वे अंदर चले गए और तब से बाहर नहीं निकले। उनके बेटे रणजीत सुमन समय-समय पर बाहर आकर समर्थकों से बातचीत करते रहे।
गद्दे बिछाकर समर्थकों के साथ बैठे रणजीत की आंखें लगातार चारों ओर नजर रखे थीं, हालांकि चेहरे पर चिंता नहीं दिख रही थी। सुरक्षा को देखते हुए घर के गेट पर समर्थकों की सूची पुलिस को दी गई थी और सिर्फ सूची में शामिल लोगों को ही अंदर आने की इजाजत थी। बाकी को गेट से ही लौटा दिया गया। गार्ड्स का कहना था, “नेताजी से मिलने कल आना।”
सांसद का घर हरीपर्वत थाने से मात्र 500 मीटर की दूरी पर स्थित है। हरीपर्वत चौराहे से लेकर उनके घर तक का रास्ता पुलिस, पीएसी और रैपिड एक्शन फोर्स ने सील कर रखा है। जो भी व्यक्ति सांसद से मिलने आ रहा है या जा रहा है, उसका पूरा रजिस्टर में रिकॉर्ड दर्ज किया जा रहा है। मोबाइल पर आने वाली कॉल्स की भी निगरानी की जा रही है। आसपास के इलाकों में सीमेंट के ब्लॉकेज बैरियर भी लगाए गए हैं।
इस पूरे विवाद की शुरुआत उस बयान से हुई, जिसमें रामजी लाल सुमन ने कहा था, “भाजपा वालों का तकिया कलाम हो गया कि मुसलमानों में बाबर का डीएनए है। तो फिर हिंदुओं में किसका डीएनए है? बाबर को कौन लाया? बाबर को भारत में इब्राहीम लोदी को हराने के लिए राणा सांगा लाया था। मुसलमान बाबर की औलाद हैं तो तुम (हिंदू) गद्दार राणा सांगा की औलाद हो। यह हिंदुस्तान में तय हो जाना चाहिए। बाबर की आलोचना करते हैं, राणा सांगा की नहीं। देश की आजादी की लड़ाई में इन्होंने अंग्रेजों की गुलामी की थी। हिंदुस्तान का मुसलमान बाबर को अपना आदर्श नहीं मानता है। वह मोहम्मद साहब और सूफी परंपरा को आदर्श मानता है।”
राणा सांगा की जर्जर समाधि पर पीड़ा
बनारस के जाने-माने मूर्ति डिजाइनर और कला के संवेदनशील साधक अरुण सिंह ने हाल ही में अपने फेसबुक वाल पर एक ऐसी तस्वीर साझा की है, जो केवल एक टूटे हुए स्मारक की नहीं, बल्कि एक पूरे समाज की स्मृति और संवेदना के क्षरण की कहानी कहती है। यह तस्वीर है – महान राजपूत योद्धा राणा सांगा की जर्जर समाधि की। इस तस्वीर के साथ अरुण सिंह ने एक भावुक और तल्ख टिप्पणी लिखी है, जो हर संवेदनशील हृदय को झकझोरने वाली है। वह लिखते हैं, “महान योद्धा राणा सांगा की ये जर्जर समाधि दो-तीन लाख रुपए में सम्मानजनक आकार ले सकती थी। अपने महानायक के लिए समृद्ध राजपूत समाज इतना भी नहीं कर सका तो दूसरों का क्या सम्मान देगा? अपने को ही उन्होंने उपेक्षित छोड़ दिया है। अगर ये समाधि मेरे बनारस शहर में होती तो मैं स्वयं इसे बनवा देता।”
अरुण सिंह की यह टिप्पणी सिर्फ एक व्यक्ति की पीड़ा नहीं, बल्कि उस सामूहिक भूल की ओर इशारा है, जो हमने अपने इतिहास, अपने नायकों और अपनी अस्मिता के साथ कर दी है। राणा सांगा – वह योद्धा जिन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों के सामने सिर नहीं झुकाया, जिनकी वीरता और नेतृत्व ने एक समय पूरे उत्तर भारत में शौर्य की मिसाल कायम की – आज उनकी समाधि उपेक्षा की धूल में खो चुकी है। वह कहते हैं, ” यह विडंबना ही है कि जिनकी तलवार से इतिहास के पन्ने रोशन हुए, आज उनकी स्मृति पर अंधेरा पसरा हुआ है। जिस समाज को गर्व से उनकी गाथाएं सुनानी चाहिए थीं, वही समाज उनकी समाधि के पुनरुद्धार में उदासीन है।”
अरुण सिंह अपनी पीड़ा उन सभी संवेदनशील नागरिकों की आवाज़ है, जो चाहते हैं कि इतिहास केवल किताबों तक सीमित न रह जाए, बल्कि उसकी जीवित स्मृतियां – स्मारक, मूर्तियां और समाधियां भी हमारी चेतना का हिस्सा बनें। उनका कहना है कि “अगर ये समाधि मेरे बनारस शहर में होती तो मैं स्वयं इसे बनवा देता,” केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि उस जिम्मेदारी का अहसास है जो हर नागरिक को अपने अतीत, अपनी जड़ों और अपने महानायकों के प्रति होनी चाहिए।
अरुण सिंह की अपील एक चेतावनी है यदि हमने अपने नायकों की स्मृति को यूं ही मिटने दिया, तो आने वाली पीढ़ियां हमसे सवाल पूछेंगी, “क्या तुम अपने इतिहास को संजो नहीं पाए? “क्या तुमने उन्हें भी भुला दिया, जिनके बल पर तुम्हारा अस्तित्व बना। यह समय है, जागने का और इतिहास को सम्मान देने का। यह समय लड़ाई-झगड़ा करने का नहीं, राणा सांगा जैसे अमर योद्धा की समाधि को वह सम्मान लौटाने का, जिसकी वह यथार्थ में हकदार हैं।”
पहचान की राजनीति या सामाजिक आंदोलन?
अगर आप साल 2017 से पहले गूगल पर “करणी सेना” शब्द सर्च करते तो शायद ही कोई ठोस नतीजा सामने आता। लेकिन संजय लीला भंसाली की फ़िल्म ‘पद्मावत’ के विरोध और दीपिका पादुकोण की नाक काटने जैसी बयानबाज़ी के बाद करणी सेना अचानक सुर्खियों में आ गई। फ़िल्म के विरोध के नाम पर करणी सेना ने राजस्थान से लेकर दिल्ली और फिर देश के कई इलाकों में प्रदर्शन किए, और इसी के साथ एक नया नाम देश की राजनीति और सामाजिक विमर्श में दाखिल हुआ-करणी सेना।
जयपुर की सड़कों पर जब राजपूती आन-बान-शान के नाम पर युवा इकट्ठा हुए, तो यह साफ़ हो गया कि करणी सेना केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक भावनात्मक लहर बन चुकी है। इस लहर में कॉलेज के छात्र से लेकर बेरोजगार नौजवान तक शामिल हो गए। कानून की पढ़ाई कर रहे दलपत सिंह देवड़ा जैसे युवा बताते हैं कि करणी सेना उनके लिए इतिहास से जुड़ने, गौरव की रक्षा करने और सामाजिक असंतोष को स्वर देने का माध्यम बन चुकी है। वे इसे केवल एक जाति नहीं, बल्कि पूरी हिंदू संस्कृति की रक्षा से जुड़ा आंदोलन मानते हैं।
‘पद्मावत’ विरोध महज शुरुआत थी। करणी सेना ने जोधा-अकबर, आनंदपाल एनकाउंटर जैसे मुद्दों पर भी मोर्चा खोला। धीरे-धीरे यह संगठन फिल्मों के विरोध से आगे बढ़कर राजनीतिक बयानबाज़ियों और सामाजिक आंदोलनों में भी शामिल होने लगा। इस संगठन की बढ़ती सक्रियता और तेज़ी से बढ़ती शाखाएं इस बात का संकेत थीं कि यह कोई क्षणिक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि लंबे समय के लिए बनी एक ठोस सामाजिक ताकत बनने की कोशिश कर रही है। लेकिन सवाल यह उठता है कि यह संगठन इस तरह अचानक सक्रिय कैसे हो गया? और सबसे बड़ा सवाल-इसे हवा कौन दे रहा है?
दरअसल, करणी सेना का मूल केंद्र राजस्थान रहा है, लेकिन अब इसका विस्तार गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश से होते हुए उत्तर प्रदेश तक पहुंच गया है। खासकर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में, जहां जातीय पहचान की राजनीति गहराई तक जमी हुई है, वहां करणी सेना को एक नई ज़मीन मिल रही है। झोटवाड़ा, मुरलीपुरा, खातीपुरा जैसे इलाकों में इसके समर्थकों की संख्या तेजी से बढ़ी है और यह देखा गया है कि एक सिंगल मैसेज पर सैकड़ों युवक सड़कों पर उतर आते हैं। यह राजनीतिक दलों के लिए भी चेतावनी और संभावना दोनों है।
करणी सेना को लेकर राजनीति का रुख भी दिलचस्प रहा है। खुद को गैर-राजनीतिक बताने के बावजूद इस संगठन की हर गतिविधि राजनीतिक संकेतों से भरी रहती है। सत्ताधारी और विपक्षी दोनों दल कई बार इसके विरोध या समर्थन में चुप्पी साध लेते हैं-जो संकेत करता है कि करणी सेना को अब नज़रअंदाज़ करना आसान नहीं रहा।
राजपूत युवाओं में शिक्षा के बावजूद बेरोजगारी, आरक्षण पर असंतोष और जातीय गौरव की खोज जैसे मुद्दे इस संगठन की जड़ों को मज़बूत करते हैं। यह संगठन उस खालीपन को भरने का दावा करता है, जहां समाज युवाओं की जातीय और सांस्कृतिक आकांक्षाओं को अनसुना करता रहा है। यही कारण है कि यूपी जैसे राज्यों में जहां बड़ी संख्या में राजपूत युवाओं को नौकरी और पहचान की तलाश है, वहां करणी सेना एक विकल्प के रूप में उभर रही है।
लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि करणी सेना अब एक नहीं, तीन भागों में बंट चुकी है। लोकेन्द्र सिंह कालवी की श्री राजपूत करणी सेना, अजीत सिंह मामडोली की श्री राजपूत करणी सेवा समिति और सुखदेव सिंह गोगामेड़ी की श्री राष्ट्रीय राजपूत करणी सेना-तीनों खुद को असली संगठन बताने की होड़ में हैं। यह अंदरूनी बंटवारा न केवल संगठन की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि नेतृत्व की भूख ने इसे भी बाकी राजनीतिक संगठनों की तरह कर दिया है।
इन संगठनों के कई नेता रियल एस्टेट, माइनिंग और अन्य व्यवसायों से जुड़े हैं। कुछ पर आपराधिक मामले भी दर्ज हैं। हालांकि संगठन इन आरोपों को ‘संघर्ष की उपज’ बताते हैं और दावा करते हैं कि सभी आरोपों से वे बरी हो चुके हैं। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जब कोई संगठन जातीय अस्मिता के नाम पर हर मुद्दे पर प्रतिक्रिया देने लगे, तो वह सामाजिक आंदोलन से अधिक एक राजनीतिक दबाव समूह बन जाता है।
करणी सेना को लेकर समाज में दो ध्रुवी सोच मौजूद है। एक वर्ग इसे सांस्कृतिक चेतना और गौरव का प्रतीक मानता है, तो दूसरा इसे उग्र, अराजक और लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध खड़ा मानता है। जब सिनेमा हॉल जलाए जाएं, कलाकारों को धमकी दी जाए, और विरोध का स्वर हिंसा की ओर मुड़ जाए तो यह चिंता का विषय बन जाता है।
राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि आज सवाल यह नहीं है कि करणी सेना क्या कर रही है, सवाल यह है कि उसे ऐसा करने की ज़रूरत क्यों पड़ रही है? समाज के उस हिस्से की पीड़ा और हताशा को समझना ज़रूरी है, जो इस संगठन में अपना भविष्य और स्वाभिमान तलाशता है। यह संगठन अतीत के किलों की दीवारों पर आज के युवाओं की बेरोज़गारी, क्रोध और आकांक्षाएं उकेरता है। समय के साथ यह देखना दिलचस्प होगा कि करणी सेना एक स्थायी सामाजिक आंदोलन बनेगी या राजनीति की मोहर लगते ही अपना मूल उद्देश्य खो देगी। लेकिन फिलहाल इतना तय है कि यह केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक बहस है, राजपूत पहचान, जातीय अस्मिता और लोकतंत्र की सीमाओं पर टिकी एक बहस।
विफलता छिपाने को संगठित गिरोहों को संरक्षण
बनारस पुलिस की इस कार्रवाई पर काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत राजेन्द्र तिवारी ने भी तीखी प्रतिक्रिया दी। उत्तर प्रदेश की मौजूदा शासन व्यवस्था पर गंभीर प्रश्न उठाते हुए कहा, “यह करणी सेना नहीं, बल्कि सत्ता के इशारे पर काम करने वाला गुंडों का गिरोह है, जिसे सरकार का संरक्षण प्राप्त है। योगी सरकार जनता का भरोसा खो चुकी है और अब अपनी असफलताओं पर परदा डालने के लिए कुछ संगठित गिरोहों को परोक्ष रूप से संरक्षण दे रही है। तथाकथित करणी सेना एक ऐसा ही गुंडों का गिरोह है, जिसे सत्ता की शह प्राप्त है।”
उन्होंने आगे कहा, “इस गिरोह में कोई पढ़ा-लिखा या सजग राजपूत नहीं है। समझदार क्षत्रिय वर्ग ऐसे ओछे कार्यों से स्वयं को अलग रखता है। यह सेना नहीं, बल्कि सत्ता के इशारे पर काम करने वाला एक दबाव समूह है, जिसका उद्देश्य समाज को भ्रमित करना और विरोध की आवाज़ों को डराना है।”
बनारस में सपा नेता हरीश मिश्रा पर हुए जानलेवा हमले का उल्लेख करते हुए तिवारी ने कहा, “यह घटना दर्शाती है कि मौजूदा सरकार लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास नहीं रखती। अगर पुलिस निष्पक्ष होती, तो न तो अपने स्तर पर एफआईआर दर्ज करती और न ही गंभीर धाराएं आनन-फानन में हटाती। यह साफ संकेत है कि बनारस की कमिश्नरेट पुलिस कानून से नहीं, बल्कि तथाकथित करणी सेना और सत्ता के गठजोड़ से संचालित हो रही है। प्रदेश में कुछ असामाजिक तत्वों को खुलेआम संरक्षण मिल रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो कोई व्यक्ति सोशल मीडिया पर एक जनप्रतिनिधि को गालियां देकर उसे धमकी नहीं देता। यह सब पुलिस और सत्ता की मिलीभगत के बिना संभव नहीं है।”
करणी सेना की देशभक्ति पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए तिवारी ने कहा, “अगर इनमें सचमुच देशभक्ति है तो सबसे पहले राणा सांगा की जर्जर समाधि का जीर्णोद्धार करें और पाकिस्तान सीमा पर जाकर आतंकवादियों से लड़ें। तभी पता चलेगा कि ये सच्चे सैनिक हैं या सिर्फ राजनीतिक मोहरे। केंद्र सरकार योगी की कार्यप्रणाली से असंतुष्ट है और उन्हें हटाने का दबाव बना रही है। योगी सरकार अपनी विफलताओं-विशेषकर कुंभ जैसे आयोजन में हुए अपव्यय से ध्यान भटकाने के लिए करणी गैंग जैसे संगठनों का इस्तेमाल कर रही है। ये सब जनता को गुमराह करने की रणनीति का हिस्सा है।”
बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं दैनिक अचूक रणनीति के संपादक विनय मौर्य बनारस में हरीश मिश्र पर हुए हमले की घटना को अलग नज़रिए से देखते हैं। वह कहते हैं, “उत्तर प्रदेश की योगी सरकार अब जनता का भरोसा खो चुकी है। वह अब शासन नहीं, केवल सांप्रदायिकता का खेल खेल रही है। बनारस में हरीश मिश्राजी पर हुआ जानलेवा हमला इस बात का जीता-जागता सबूत है कि अब उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था जैसी कोई चीज़ बची ही नहीं है।”
“यह बेहद अफसोसनाक है कि जिस शहर ने तुलसी और कबीर को पाला, जिसने गंगा-जमुनी तहज़ीब को सीने से लगाया, वहां अब विचारों की जगह तलवारें और धमकियां हुकूमत के इशारे पर नाच रही हैं। मैंने दो दशक से ज़्यादा इस प्रदेश की पत्रकारिता की है, लेकिन इतनी डरावनी चुप्पी कभी नहीं देखी। एक तरफ़ खुलेआम चाकू से हमला होता है, दूसरी तरफ पुलिस उल्टा पीड़ितों के खिलाफ़ मुकदमा लिखती है। क्या यही है ‘रामराज्य’? क्या यही है ‘सुशासन’? “
विनय यह भी कहते हैं, “हरीश मिश्रा जैसे सामाजिक कार्यकर्ता पर हमले के बाद सरकार की चुप्पी बताती है कि अब सवाल पूछने वालों को निशाना बनाना सत्ता की नीति बन चुकी है। और यही चुप्पी करणी सेना जैसे अराजक संगठनों को खुला संरक्षण देती है। आज अगर करणी सेना आगरा की सड़कों पर डंडे-तलवारें लेकर खुलेआम लोकतंत्र को धमकी दे रही है और सरकार आंखें मूंदे बैठी है, तो यह एक खतरनाक संकेत है। यह केवल एक संगठन का नहीं, पूरी व्यवस्था का पतन है।”
“भाजपा यह न भूले कि लोकतंत्र में जनता ही असली मालिक होती है और जब जनता की आवाज़ को दबाया जाता है, तो वह बहुत देर तक चुप नहीं रहती। यह समय है चेतने का। नहीं तो आने वाले समय में इतिहास यही लिखेगा कि बनारस में विचारों की हत्या हुई थी और सरकार मूकदर्शक बनी रही। मैं स्पष्ट कह सकता हूं, आज उत्तर प्रदेश में भय का माहौल है और यह भय सरकार पैदा कर रही है। जो सरकार अपने ही नागरिकों की सुरक्षा नहीं कर सकती, वह किस हक से सत्ता में बनी हुई है?”
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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