उत्तराखंड में हल्द्वानी के बनभूलपुरा क्षेत्र में 4365 मकानों के करीब 50000 निवासियों को एक सप्ताह में बेदखल करने का निर्णय न्यायिक इतिहास में सबसे क्रूरतम निर्णय माना जाएगा यदि इस मानवीय त्रासदी को न्यायिक या प्रशासनिक आधार पर रोका न गया।
एक नवम्बर को माननीय न्यायालय ने जिस केस की सुनवाई का निर्णय सुरक्षित रखा उसी केस में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अनदेखी की और सम्बंधित मुकदमे में मूल/ मुद्दों से इतर लीज़ भूमि पर नकारात्मक निर्णय लेकर भविष्य में आवासहीन और समाज में कमज़ोर वर्ग के लिए आवास के अधिकारों पर कुठाराघात कर दिया है। इसके अतिरिक्त बेदखली की कार्यवाही में राज्य सरकार का पक्ष और सम्बंधित विभागों जिन्होंने बनभूलपुरा के निवासियों के लिए लम्बे समय से अलग तरह की सेवाएं दी हैं ( जैसे नगर निगम, शिक्षा विभाग, जल कल विभाग, विद्युत विभाग, स्वास्थ्य विभाग,राजस्व विभाग) को पक्षकार न बनाकर एकतरफा कार्यवाही की है।
इस निर्णय से यह मुद्दा भी सामने आ गया है कि ब्रिटिश काल में लीज़ भूमि में बसाने और कृषि भूमि को आबाद करने के लिए लोगों को बुलाकर बसाया गया आजादी के 75 साल बाद वाली व्यवस्था आबादी को उजाड़ने के लिए उतारू हो रही है।

रेलवे की भूमि पर कथित अतिक्रमण को हटाने से शुरू हुआ मुद्दा लीज भूमि के मालिकाना हक़ तक चला गया है। माननीय न्यायालय के आदेश के क्रम में यह समझ में नहीं आया है कि बनभूलपुरा के निवासियों की बेदखली रेलवे की ज़मीन से हो रही है या फिर नज़ूल जमीन से बेदखली हो रही है। क्योंकि रेलवे ने पीपी एक्ट के अन्तर्गत कथित अतिक्रमणकारियों को जो नोटिस जारी किए हैं वह रेलवे की सीमा से बाहर किए हैं। मजे की बात है कि पीपीएक्ट में रेलवे न्यायाधिकरण से ख़ारिज एक हजार से अधिक अपीलीय मुकदमों की सुनवाई जिला अदालत में चल रही है। जिसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था। जबकि माननीय न्यायालय ने फैसला रेलवे एक्ट में दे दिया।
बनभूलपुरा में सबसे बड़ा मुद्दा कथित अतिक्रमण के क्षेत्र का है। रेलवे ने इस मामले में न्यायालय और प्रशासन को अंधेरे में रखा है और अब बनभूलपुरा में रेलवे और प्रशासन न्यायालय की आड़ लेकर तीन किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई पांच बस्तियों को बेदखल करने की कार्यवाही करने को उतावला है, जबकि न्यायालय के मूल आदेश में और रेलवे के द्वारा दिए गए हलफनामे में यह क्षेत्र 29 एकड़ है, तब न तो 29 एकड़ 3 किलोमीटर के बराबर होता है और ना इसमें करीब पांच हजार मकान हो सकते हैं। यहां तक कि रेल लाइन से 20/45 फुट के स्थान पर 800 फिट की दूरी के मकान भी नहीं हो सकते हैं। जबकि रेलवे किसी अदृश्य इशारे पर धींगामुश्ती करके अपनी सीमा से बाहर 100 साल से अधिक पुराने मकानों को ध्वस्तीकरण के नोटिस दे रहा है।

रेलवे द्वारा पूर्व में बताई गई 29 एकड़ कथित अतिक्रमित भूमि के अतिरिक्त ( 78 एकड़ ) 31.87 हेक्टेयर क्षेत्र में बेदखली की कार्यवाही करने के कारण कई नजूल पट्टाधारक परिवार, फ्रीहोल्ड धारक परिवार, 70-80 वर्ष पुराना शिव गोपाल मन्दिर, 50 वर्ष पुराना एक दुर्गा माता मंदिर, साहू धर्मशाला, सरस्वती शिशु मन्दिर, लगभग 8 से 10 मस्जिद, दो राजकीय इण्टर कॉलेज, दो प्राथमिक विद्यालय (एक ब्रिटिश कालीन) , एक जूनियर हाई स्कूल, लगभग आधा दर्जन निजी विद्यालय, 1970 के दशक से चल रही सीवर लाइन, नगर निगम का सामुदायिक भवन, एक सामुदायिक अस्पताल व एक ओवरहेड टैंक सहित लगभग 40 हजार से 50 हजार की जनसंख्या बेदखली की कगार पर हैं। इस हाड़ कंपकंपाती सर्दी में मकानों को तोड़कर उन्हें बेदखल करने के अमानवीय काम की पूरी तैयारी कर ली गई है। प्रशासन इसके लिए रोज फोर्स तैनाती की घोषणा कर रहा है, जिससे आतंक फैल रहा है।
महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इस क्षेत्र में चलने वाले करीब एक दर्जन सरकारी और गैरसरकारी स्कूलों के छात्र कहां पढ़ेंगे कब कहां कैसे परीक्षा देंगे। उनकी व्यवस्था किए बगैर बेदखली की कार्यवाही की जा रही है जबकि इसी सप्ताह से वार्षिक परीक्षाएं शुरू होनी हैं।
हजारों बूढ़ों असहायों बच्चों और महिलाओं के अधिकारों की भी अनदेखी की जा रही है। बस्ती बेदखल के फैसले से यहां पर रहने वाले हजारों वृद्ध महिला पुरूषों, महिलाओं और बच्चों का जीवन संकट में आ सकता है।

यहां के निवासी अब सुप्रीम कोर्ट की ओर हसरत से न्याय की उम्मीद कर रहे हैं जहां 5 जनवरी को हाईकोर्ट के निर्णय के खिलाफ दाखिल अपीलों की सुनवाई निर्धारित है।
उत्तराखंड के जनसंगठनों के प्रतिनिधियों ने बनभूलपुरा का दौरा करके उसकी वर्तमान
स्थिति का जायज़ा लिया और राज्य सरकार से निवेदन किया है कि वो इस मानवीय संकट को टालने की कृपा के लिए अपने स्तर से प्रयास करे। यह ध्यान दिलाना चाहेंगे कि अभी भी रेलवे बनाम यहां के निवासियों से सम्बंधित 1 हजार से अधिक मुकदमे जिला न्यायालय में चल रहे हैं, उनको दरकिनार करके माननीय न्यायालय ने यह दूसरे केस में फैसला दिया है, जिसमें माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा 1 नवम्बर, 22 के निर्देशों की भी अनदेखी की गई है।
प्रतिनिधि मंडल ने प्रेस को दिए गए ज्ञापन के माध्यम से राज्य सरकार से यह आग्रह किया है कि बनभूलपुरा क्षेत्र को मानवीय संकट मानकर वहां के निवासियों के आवासीय, शैक्षिक-स्वास्थ्य सेवा आदि के अधिकारों की रक्षा के लिए तुरंत हस्तक्षेप करे, यदि इसके लिए आवश्यक हो तो अध्यादेश लाने की महती कृपा करे। नगर निगम के पांच वार्डों में बसने वाले यहां आजादी से पहले के निवासी हैं, उनके निवास के नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए राज्य सरकार को आगे आना चाहिए जैसा कि देहरादून में रिस्पना नदी के किनारे रहने वालों के निवास के अधिकार सुरक्षित रखने के लिए राज्य सरकार ने अध्यादेश लाकर हस्तक्षेप किया था। संविधान के अनुसार सरकार का कर्त्तव्य है कि वह हर नागरिक के हक़ों की सुरक्षा करे। जबकि उत्तराखंड राज्य में एक तरफ लोगों को बेघर किया जा रहा है और दूसरी तरफ राज्य में पर्यावरण के नियमों और वन अधिकार कानून पर अमल न कर सरकार बड़ी कंपनियों और बिल्डरों के गैर क़ानूनी कामों को लगातार बढ़ावा दे रही है।

सरकार के पास अध्यादेश बनाने का हक़ हमेशा है। इसलिए हम आपसे निवेदन करना चाह रहे हैं कि सरकार उच्च न्यायालय के फैसले को बहाना न बनाये, और तुरंत निम्नलिखित कदम को उठाए
– सरकार हल्द्वानी में ध्वस्तीकरण के कार्रवाई पर तत्काल रोक लगाए।
– सरकार उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में तुरंत जाये और पैरवी करे कि ऐसे कदम उठाना न्याय और जनता के बुनियादी हक़ों के विरोध में होगा। साथ साथ में अगर ज़रूरत पड़ती है तो अध्यादेश द्वारा सुनिश्चित करे कि लोगों के साथ अन्याय न हो।
- राज्य में तुरंत कानून लाया जाये कि किसी भी परिवार को बेघर नहीं किया जायेगा।अगर किसी को किसी जगह से हटाने की ज़रूरत है, उनके उचित पुनर्वास की व्यवस्था करने के बाद ही अगला कदम उठाया जाए। यह हर नागरिक का संवैधानिक हक़ है।
(इस्लाम हुसैन वरिष्ठ पत्रकार और एक्टिविस्ट हैं। और आजकल काठगोदाम में रहते हैं।)
राज्य के नागरिकों के प्रति सरकार अपने कर्तव्यों का वहन अगर करती तो हालात ये न होते।
लेकिन सरकार को अपने कर्तव्यों के बारे में पता ही नहीं है।