मताधिकार पर तलवारः अब क्या है रास्ता?

बिहार में मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण (SIR यानी ‘स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन’) की प्रक्रिया पर विपक्षी दलों के साथ निर्वाचन आयोग की बैठक सद्भाव के माहौल में नहीं हुई। इस बात का संकेत बैठक के बाद खुद विपक्षी नेताओं ने दिया। बैठक के बारे में जानकारी देते वक्त उनका जो लहजा था, उससे संकेत मिला कि चुनाव आयुक्तों ने विपक्ष की आपत्तियों और आशंकाओं को कोई तव्वजो नहीं दी।  

पहला विवाद तो इस पर ही हुआ कि विपक्षी दलों की नुमाइंदगी कौन कर सकता है और हर दल से कितने प्रतिनिधि बैठक में भाग ले सकते हैं। विपक्ष की ओर से दिए जाने वाले ज्ञापन किसके लेटरहेड पर हों, इस बारे में भी आयोग ने नए निर्देश जारी किए हैं। इस तरह के निर्वाचन आयोग के नियम सचमुच आश्चर्यजनक हैं। यह शिकायत सुनने का सही नजरिया नहीं है। बल्कि ये नजरिया यह बताने का है कि आयोग विपक्ष को कोई अहमियत नहीं देता।

इस रूप में निर्वाचन आयोग ने इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया है कि विपक्षी दल भी निर्वाचन प्रक्रिया में समान हित-धारक (स्टेक-होल्डर) हैं। वैसे इस प्रक्रिया में स्टेक-होल्डर तो भारत का हर नागरिक और हर मतदाता भी है। इसलिए अगर उनका कोई संगठन या समूह कोई शिकायत या अंदेशा लेकर आता है, तो यह आयोग का दायित्व है कि वह उसे पूरा तव्वजो दे।

निर्वाचन आयोग अपने-आप में कानून नहीं है। बल्कि संविधान के प्रावधान के तहत एक स्थापित एक संस्था भर है। उसका काम काम चुनाव को विश्वसनीय ढंग से संपन्न कराना है। अगर उसके किसी फैसले या कदम से समाज के किसी हिस्से में संदेह पैदा होता है, तो उसे दूर करना आयोग की जिम्मेदारी है। फिर निर्वाचन आयोग से अपेक्षित है कि वह चुनावों में नागरिकों की अधिकतम भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए प्रयासरत रहे। उसका काम सबको शामिल करके चलना है, ना कि सबके शामिल होने के रास्ते में रुकावट डालना।

आयोग ने SIR की जो प्रक्रिया तय की है, स्पष्टतः उसका परिणाम चुनाव प्रक्रिया से बहुत से लोगों का निष्कासन के रूप में सामने आएगा। अगर आयोग को शक है कि बहुत से गैर नागरिक मतदाता सूची में शामिल हो गए हैं, तो वो लोग कौन हैं, उनकी पहचान करना आयोग का दायित्व है। इस तर्क पर सभी मतदाताओं को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए कह देना किसी नजरिए से विवेकसम्मत कदम नहीं हो सकता। फिर अगर गैर-नागरिक मतदाता बन गए हैं, तो क्या आयोग ने उसके लिए दोषी कर्मचारियों की जवाबदेही तय की है?

यह दलील दी जा सकती है कि SIR सामान्य प्रक्रिया है, जो पहले भी होती रही है। मगर इस बिंदु पर समझने की बात यह है कि विवाद या आपत्ति SIR पर नहीं है। बल्कि इसे जिस जल्दबाजी में, जिस तरह से किया जा रहा है, उस पर है। SIR करना है, तो इसे तसल्ली से किया जाना चाहिए। जब यह पूरा हो जाए, तब नई मतदाता सूची के आधार पर चुनाव कराने की बात होनी चाहिए। तब तक पुरानी सूची के आधार पर दो-चार और विधानसभाओं के चुनाव हो जाएं, तो उससे कोई आसमान नहीं टूट पड़ेगा।

SIR की प्रक्रिया में विश्वास का माहौल बने रहना अनिवार्य है। ऐसा विपक्ष की बातों को दरकिनार करने से नहीं हो सकता। बुधवार को आयोग के साथ हुई बैठक के बाद विपक्षी नेताओं ने जो बताया, उससे साफ है कि आयोग उनकी किसी शिकायत को सुनने या उनकी आशंकाओं को तव्वजो देने के मूड में नहीं था। एक विपक्षी नेता ने पत्रकारों के सामने यहां तक कहा कि अगर उनकी बात नहीं सुनी जा रही है, तो ये लड़ाई सड़कों पर उतरेगी! 

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या निर्वाचन से जुड़ी एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया को एकतरफा और मनमाने ढंग से संपन्न कराने का तरीका लोकतांत्रिक कहा जाएगा? दरअसल, जिस दौर में आयोग के गठन से लेकर उसके निर्णय एवं भूमिकाओं पर तरह-तरह के सवाल खड़े हों, बगैर सर्वदलीय सहमति बनाए एक राज्य में विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले इस तरह की महति प्रक्रिया शुरू कर देना आयोग की आपत्तिजनक कार्यशैली को जाहिर करता है।

विपक्ष को अंदेशा है कि संशोधन प्रक्रिया में तकरीबन दो करोड़ मतदाताओं के नाम लिस्ट से बाहर हो सकते हैं, तो इस बारे में उसे आश्वस्त करने की जिम्मेदारी निर्वाचन आयोग की है। फिर आयोग को यह भी समझना चाहिए कि नागरिकता प्रामाणित करने की एक अलग प्रक्रिया है, जिसे प्रस्तावित जनगणना के साथ सरकार संपन्न कर सकती है। मतदाता सूची संशोधन को परोक्ष रूप से ऐसी प्रक्रिया बनाना सिरे से गलत है।

बहरहाल, विपक्ष ने आयोग को जो कहा, वह गौरतलब है। उससे हर भारतीय नागरिक को वाकिफ होना चाहिए। इसलिए हम यहां विपक्ष की बातों को उनके ही शब्दों में रख रहे हैः

“11 पार्टियों का डेलीगेशन चुनाव आयोग से मिलकर आया है। इस डेलीगेशन में लगभग 20 लोग शामिल थे और हमने करीब तीन घंटे की विस्तृत चर्चा की। हमें कुछ नियम बताए गए और कहा गया कि हर पार्टी से सिर्फ दो लोग ही अंदर जाएंगे- जिसकी वजह से कई नेता मीटिंग में नहीं जा पाए, जिसके बारे में हमने अपनी शिकायत दर्ज कराई है। हमने इस चर्चा में कई बिंदु बताए हैं: 

1 2003 से आज तक करीब 22 साल में बिहार में कम से कम पांच चुनाव हो चुके हैं, तो क्या वे सारे चुनाव गलत थे?

2 अगर आपको SIR यानी ‘स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन’ करना था, तो इसकी घोषणा जून के अंत में क्यों की गई, इसका निर्णय कैसे और क्यों लिया गया? अगर मान भी लिया जाए कि SIR की जरूरत है, तो इसे बिहार चुनाव के बाद इत्मीनान से किया जा सकता था। जब 2003 में यह प्रक्रिया अपनाई गई थी, तो उसके एक साल बाद राष्ट्रीय चुनाव था और दो साल बाद असेंबली का चुनाव था, इस बार केवल एक महीने का ही समय है। 

3 पिछले एक दशक से हर काम के लिए आधार कार्ड मांगा जाता रहा है, लेकिन अब कहा जा रहा है कि आपको वोटर नहीं माना जाएगा- अगर आपके पास जन्म प्रमाण पत्र नहीं होगा। एक कैटेगरी में उन लोगों के माता-पिता के जन्म का भी दस्तावेज होना चाहिए, जिनका जन्म समय 1987-2012 के बीच हुआ होगा। ऐसे में प्रदेश में लाखों-करोड़ गरीब लोग होंगे, जिन्हें इन कागजात को जुटाने के लिए महीनों की भाग-दौड़ करनी होगी। ऐसे में कई लोगों का नाम ही लिस्ट में शामिल नहीं होगा, जो कि साफ तौर पर लेवल प्लेइंग फील्ड का हनन है। लेवल प्लेइंग फील्ड चुनाव का आधार है और चुनाव, गणतंत्र का आधार है। 

4 चुनाव आयोग ने ये निर्णय कब और कैसे लिया? जनवरी तक ऐसा कोई नियम नहीं था। आपने इसकी घोषणा नहीं की, बल्कि एक SSR प्रकाशित किया। आपने जनवरी 2025 में SIR की कोई घोषणा नहीं की, SIR का कहीं नाम तक नहीं लिया। ऐसे में अचानक जून के अंत में ये निर्णय कैसे लिया गया?

5 हमने इस विषय में सुप्रीम कोर्ट के कई सारे फैसलों का उदाहरण दिया और अपनी बात रखी। हमने उन्हें बताया कि अदालत का मानना है कि इलेक्टोरल रोल से किसी को वंचित रखना गंभीर प्रताड़ना है।”

विपक्ष की बातें महत्त्वपूर्ण हैं। मगर फिलहाल निर्वाचन आयोग ने उसे नजरअंदाज कर दिया है। तो सवाल है कि अब विपक्षी दल क्या करेंगे? क्या वे औपचारिक विरोध जता कर रह जाएंगे? 26 जुलाई तक बिहार में पुनरीक्षण की प्रक्रिया चलेगी। उसके बाद निर्वाचन आयोग नई मतदाता सूची जारी कर देगा। तो क्या विपक्षी दल उसके आधार पर चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो जाएंगे? 

ये सवाल इसलिए अहम हैं, क्योंकि अब तक विपक्षी दलों का यही रवैया रहा है। वे निर्वाचन आयोग की एकतरफा कार्यशैली, कथित पक्षपात भरे नजरिए, और कथित तौर पर निष्पक्ष चुनाव ना कराने की आलोचना करते रहे हैं। मगर साथ ही उन्होंने चुनाव संबंधी पहल भी आयोग के हाथ ही छोड़ रखी है। इसको लेकर उन्होंने जन-जागृति लाने और जनता के स्तर पर विरोध संगठित करने का कोई प्रयास नहीं किया है।

लेकिन अब पानी सिर के ऊपर पहुंच रहा है। इसके बाद भी विपक्षी दलों का वही नजरिया रहा, तो उनका डूबना तय है। मतदाता सूची पुनरीक्षण प्रक्रिया को मौजूदा रूप में स्वीकार करना उनके लिए आत्मघाती साबित होगा। बहरहाल, ये मुद्दा सिर्फ विपक्ष का नहीं है। इसका संबंध हर नागरिक के राजनीतिक अधिकार एवं संविधान से उसे मिली स्वतंत्रता से भी है। अगर विपक्ष अपना कर्त्तव्य नहीं निभाता है, तो आखिरकार नागरिकों को खुद पहल अपने हाथ में लेनी होगी। ऐसी स्थितियों में हमेशा ही असहयोग, सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह जैसे कारगर अहिंसक विकल्प उनके पास होते हैं।

विपक्षी नेताओं के बयानः

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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