मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड स्थित टीकमगढ़ में मेरे नाना समशेर खां हर साल ‘रामलीला’ में रावण का किरदार अदा करते थे। नानी के घर की दीवार पर आज भी रावण के गेट अप में उनकी तस्वीर के अलावा एक और तस्वीर लगी हुई है, इस तस्वीर में नाना कंस के गेट अप में बाल कन्हैया को एक हाथ से ऊपर उठाए हुए हैं। टीकमगढ़ की चार दशक पुरानी यह ‘रामलीला’ और ‘कृष्णलीला’ तो मैंने कभी नहीं देखी। लेकिन बचपन की एक बात, जो मुझे अभी तलक याद है, नाना दीवाली पर लक्ष्मी जी की पूजा करते थे। पूजा के बाद हम बच्चों को खीलें-बताशे और मिठाइयां मिलतीं।
भले ही नाना के निधन के बाद, उनके घर में यह परम्परा खत्म हो गई हो। लेकिन इस परम्परा को मेरी मां ने हमारे यहां जिंदा रखा। हमारे छोटे से नगर शिवपुरी में भी उन दिनों, दो जगह पर ‘रामलीला’ खेली जाती थी। मां दोनों ही रामलीला में हम बच्चों को साथ ले जातीं। जिसका हम जी भरकर लुत्फ लेते। शिवपुरी में भी जहां तक मुझे याद है, इन राम लीलाओं में हमारे घर के पड़ोस में रहने वाले नन्हें खां मास्साब की अहम भूमिका होती थी।
वे इन रामलीलाओं में आर्ट डायरेक्टर, मेकअप आर्टिस्ट से लेकर कॉस्ट्यूम डिजाइनर तक की जिम्मेदारी संभालते। हर साल नव दुर्गे, गणेश उत्सव और दशहरे में निकलने वाली झांकियों को बनाने में भी नन्हें खां मास्साब मनोयोग से काम करते। जब तलक वे जिंदा रहे, उन्होंने इन गतिविधियों से कभी नाता नहीं तोड़ा। यही नहीं, जिस मोहल्ले में हमारा बचपन गुजरा, वहां होली-दीवाली-रक्षाबंधन गोया कि हर त्यौहार, मजहब की तमाम दीवारों से ऊपर उठकर हम लोग उसी जोश-ओ-खरोश से मनाते थे। और आज भी यह परम्परा टूटी नहीं है। अलबत्ता उसका स्वरूप ज़रूर बदल गया है।
‘रामलीला’ में अभिनय के जानिब नाना के जुनून, ज़ौक़ और शौक की कुछ दिलचस्प बातें, मेरी मां अक्सर बतलाया करती हैं। मसलन नाना ‘रामलीला’ के लिए घर से ही तैयार हो कर जाया करते थे। उन्हें रामायण की तमाम चौपाइयां मुंहजबानी याद थीं। रावण के अलावा ‘रामलीला’ में वे ज़रूरत के मुताबिक और भी किरदार निभा लिया करते थे। रावण का किरदार उन्होंने अपनी जिंदगी के आखिर तक निभाया।
बीमारी की हालत में भी ‘रामलीला’ के संयोजकों ने उनसे नाता नहीं तोड़ा। उनकी गुजारिश होती कि वे बस तैयार होकर आ जाएं। बाकी वे संभाल लेंगे। जैसा कि अमूमन होता है, मंच पर आते ही हर कलाकार जिंदा हो जाता है। वह अपने किरदार में ढल जाता है। जैसे कि कुछ हुआ ही न हो। ऐसा ही नाना के साथ होता और वे अपना रोल कर जाते। सबसे दिलचस्प बात, जिसे मेरी मां ने बतलाया, नाना के इंतकाल के बाद, एक मर्तबा दशहरा के वक्त वे टीकमगढ़ में ही थीं।
दशहरे का जुलूस निकला, तो वे उसे देखने पहुंची। जुलूस देखा, तो उन्हें निराशा हुई और उन्होंने पास ही खड़ी एक बुजुर्ग महिला से बुंदेलखंडी जबान में पूछा, ”काहे अम्मा ऐसा जुलूस निकलता, ई में रावण तो हैई नईएं ?
अम्मा बोलीं, ”का बताएं बिन्नू, रावण ही मर गया।”
”रावण मर गया !” मां ने हैरानी से पूछा।
”हां बेन, रावण मर गया। जो भईय्या रावण का पार्ट करत थे, वे नहीं रहे। वे नहीं रहे, तो रामलीला भी बंद हो गई।’’
(जाहिद खान वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल एमपी के शिवपुरी में रहते हैं।)
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