2024 लोकसभा के नतीजे अब सबके सामने हैं। भारतीय जनता पार्टी को अहसास था कि इस बार का चुनाव उसके लिए कैक्वाक नहीं होने जा रहा है। ऐसे में उसकी चुनावी रणनीति में उत्तर प्रदेश का रण सबसे अहम बन चुका था। 2014 में भाजपा यूपी से 71 सीटें जीतने में सफल रही थी, लेकिन 2019 में यह ग्राफ गिरकर 62 हो गया था, लेकिन पश्चिम बंगाल और कर्नाटक में भाजपा की जोरदार बढ़त ने इस कमी को महसूस नहीं होने दिया था। 2024 लोकसभा चुनाव से पहले हरचंद कोशिश की गई कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) एक बार फिर से गठबंधन में चुनाव न लड़ पाएं, तो नतीजे एकतरफा भाजपा के पक्ष में जाने तय हैं।
लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम न सिर्फ भाजपा बल्कि सभी चुनाव विश्लेषकों के लिए हैरत में डालने वाले हैं। भाजपा 2019 के प्रदर्शन से ही पीछे ही नहीं रह गई, बल्कि वह राज्य में दूसरे नंबर की पार्टी हो चुकी है। 37 लोकसभा सीट के साथ समाजवादी पार्टी ने अब तक का सबसे शानदार प्रदर्शन किया है। भाजपा 33, राष्ट्रीय लोकदल 2 और अपना दल 1 सीट के साथ एनडीए के पास 80 सीटों में सिर्फ 36 सीटें ही हाथ आई हैं। कांग्रेस भी 2019 के अपने प्रदर्शन को पीछे छोड़ 6 सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब रही है। एक सीट पर चन्द्रशेखर आजाद की जीत भी कहीं न कहीं इंडिया गठबंधन के पक्ष में कही जा सकती है।
दूसरी तरफ बिहार के नतीजे कहीं से भी इंडिया गठबंधन के मनमुताबिक नजर नहीं आते हैं। पिछले विधान सभा चुनाव में तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन की सरकार बिहार में बनते-बनते रह गई थी। ऐसा माना जा रहा था कि 2024 आम चुनाव में इस बार महागठबंधन भारी उलटफेर करने में कामयाब रहेगा। लेकिन नतीजे साफ़ बताते हैं कि इस बार भी उसके हाथ मायूसी लगी है। 40 में से 30 सीट जीतकर एनडीए गठबंधन ने नरेंद्र मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने का मौका देने में अपनी अहम भूमिका निभाई है। इंडिया गठबंधन हालांकि 2019 की तुलना में अपने प्रदर्शन को बेहतर करने में कामयाब रहा है, लेकिन मात्र 9 सीट पर जीत उसके सही पोटेंशियल को दर्शाने के लिए नाकाफी कहा जा सकता है।
इंडिया गठबंधन के यदि तीन युवा चेहरों का आकलन किया जाये तो राहुल गांधी, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव में सबसे पहले तेजस्वी यादव को ही पहलकदमी लेने वाला नेता माना जा रहा था। इसमें राहुल गांधी की भूमिका हालांकि इन दोनों नेताओं से अलग है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर एक अलग मुकाम उन्हें भी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद ही मिल सका। अखिलेश यादव 2012 में ही उत्तर प्रदेश जैसे सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री पद को संभाल चुके थे, लेकिन यह सफलता उन्हें अपने पिता स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव के दिशानिर्देशन के तहत हासिल हुई थी। इसके बाद वे लगातार दो चुनावों में हार चुके थे, और लोकसभा चुनाव में सपा की भूमिका को कभी महत्व नहीं दिया गया।
आज बहुसंख्य आम जन के बीच यह सवाल कौंध रहा है कि यूपी जैसे कठिन रणक्षेत्र में सपा+कांग्रेस कैसे इतनी बड़ी जीत हासिल कर सकी, जबकि बिहार में भी आरजेडी+कांग्रेस+लेफ्ट का कहीं ज्यादा मजबूत जनाधार और लालू प्रसाद यादव का मार्गदर्शन मौजूद था, फिर विपक्ष बिहार में उस प्रदर्शन को दोहरा पाने में क्यों विफल रहा?
यहां पर गौरतलब है कि अखिलेश यादव की छवि अभी तक एक ऐसे नेता की बनी हुई थी, जो ऐन चुनाव के वक्त ही सक्रिय होते हैं। उनके पास अपने कार्यकाल की उपलब्धियों को गिनाने के अलावा कुछ खास नहीं होता है। वे भाजपा की बुलडोजर नीति की खुलकर मुखालफत करने से बचते आये हैं। उत्तर प्रदेश में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ राजकीय हमलों की बात तो छोड़ ही दें, उनकी पार्टी के कद्दावर अल्पसंख्यक नेता तक की मदद और संघर्ष में वे फिसड्डी साबित हुए थे। वहीं दूसरी तरफ, तेजस्वी यादव की छवि में लगातार इजाफा हुआ है। जेडीयू-आरजेडी गठबंधन सरकार ने 17 महीने के अल्पकाल में बिहार के लाखों युवा बेरोजगारों को सरकारी नौकरी देकर तेजस्वी की छवि को कई गुना बढ़ा दिया था। बिहार में आमतौर पर यह माना जा रहा है कि 2025 विधान सभा चुनाव में तेजस्वी यादव के नेतृत्व में ही राज्य का उद्धार संभव है।
लेकिन चुनावी परिणाम तो इस तथ्य से चुगली खाते हैं। इंडिया गठबंधन बिहार में क्यों फिसड्डी साबित हुआ, को जानने के लिए हमें मार्च 2024 के घटनाक्रम की पड़ताल करनी होगी। उस समय तक भाजपा को बिहार और महाराष्ट्र जैसे राज्य सबसे अधिक परेशान कर रहे थे, जहां उसे लगता था कि चुनाव परिणाम उसके खिलाफ जा सकते हैं, क्योंकि यही वे दो राज्य थे जहां इंडिया गठबंधन के घटक दल एक दूसरे के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे थे। पटना के गांधी मैदान में लाखों लोगों का उमड़ा हुजूम इस बात की गवाही दे रहा था, जिसकी तैयारियों में तेजस्वी यादव ने पूरे प्रदेश भर में घूम-घूमकर सभाएं की थीं।
लेकिन ऐन चुनाव से पहले एक ऐसी घटना घटी, जिसने बिहार में इंडिया गठबंधन की जीत की राह में सबसे बड़ा रोड़ा डाल दिया था। असल में टिकट वितरण का दारोमदार इस बार लालू प्रसाद यादव के हाथ में दे दिया गया। पिछड़ों के नेता और धर्मनिरपेक्षता के अलंबरदार लालू यादव टिकट वितरण में कोई पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाएंगे, ऐसा कांग्रेस और राहुल गांधी ने शायद कभी सोचा भी नहीं था। लेकिन असल में ऐसा ही कुछ हुआ। जानकारों का मानना है कि पुत्र मोह के वशीभूत लालू यादव ने टिकट वितरण कुछ इस प्रकार किया कि उसके सहयोगी दल मन मसोसकर रह गये। इंडिया गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के लिए खुलकर विरोध करने की स्थिति भी नहीं बची थी, क्योंकि तमिलनाडु और महाराष्ट्र को छोड़ उस समय तक हर राज्य में क्षेत्रीय दल खुद के लिए बड़ा हिस्सा चाह रहे थे।
तभी यह बात खुलकर सामने आ गई थी कि लालू प्रसाद यादव बिहार के भीतर इंडिया गठबंधन में किसी भी असरदार नेता की उपस्थिति को मंजूर नहीं करने जा रहे हैं। इससे पहले भी कन्हैया कुमार को लेकर तनातनी बनी हुई थी। लेकिन इस बार तो पप्पू यादव जैसे दमखम रखने वाले नेता ने दल-बल के साथ खुद को कांग्रेस में शामिल कर लिया था। 2019 में राजद 19 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ी थी, लेकिन वह एक भी सीट जीतने में नाकामयाब रही थी। इस बार उसने अपने लिए 26 सीटें तय कर दीं, जबकि कांग्रेस के हिस्से में पिछली बार की तरह 9 सीटें प्रस्तावित की गईं। शेष 5 सीटों में से 3 पर सीपीआई-एमएल (लिबरेशन) और एक-एक पर सीपीआई और सीपीआई (एम) को अपना उम्मीदवार खड़ा करना था।
कांग्रेस की ओर से पूर्णिया की सीट पर पप्पू यादव को टिकट देने की मांग की गई, जिसे राजद सुप्रीमो ने सिरे से ख़ारिज कर दिया। आरजेडी की ओर से एकतरफा फैसले में यह सीट जेडीयू से नाता तोड़कर आई विधायक बीमा भारती के नाम कर दी गई। तीन मिनट चले इस प्रेस कांफ्रेंस में गठबंधन के घटक दलों को बोलने का कोई मौका दिए बिना ही राष्ट्रीय जनता दल की ओर से गठबंधन के सभी 40 उम्मीदवारों के नाम की घोषणा कर चुनावी बिगुल फूंक दिया गया था। राजेश रंजन उर्फ़ पप्पू यादव का अपनी पार्टी को कांग्रेस में विलय से पहले ही यह तय हो चुका था कि पूर्णिया की सीट से पप्पू यादव को ही इंडिया गठबंधन का उम्मीदवार बनाया जायेगा। कांग्रेस में अपनी पार्टी के विलय से एक दिन पहले स्वयं पप्पू यादव ने लालू यादव से उनके घर पर मिलकर आशीर्वाद हासिल किया था।
लेकिन यह सिर्फ पूर्णिया का सवाल नहीं है। मुंगेर, औरंगाबाद और वाल्मीकि नगर जैसे कांग्रेस के पारंपरिक सीटों पर भी कांग्रेस के दावों को दरकिनार कर राजद ने अपनी पार्टी के उम्मीदवार उतार दिए। कांग्रेस के हाथ में सिर्फ कटिहार और किशनगंज की परंपरागत सीटें मिल सकीं, जबकि किशनगंज तो पिछली बार भी कांग्रेस ने जीती थी।
अन्य घटक दलों के साथ भी ऐसा ही देखने को मिला है। उदाहरण के लिए सीपीआई-एमएल (लिबरेशन) के हिस्से में इस बार 3 सीटें आईं थीं, लेकिन आरा लोकसभा की सीट छोड़ दें तो काराकाट और नालंदा सीट की तो उसकी ओर से मांग ही नहीं की गई थी। पार्टी किसी भी कीमत पर सीवान सीट की मांग कर रही थी, जिसे राजद ने सिरे से नकार दिया था।
इन सबका हासिल क्या हुआ?
26 सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद राष्ट्रीय जनता दल के हिस्से में मात्र 4 सीटें आ सकी हैं। इसके विपरीत 9 सीटों पर लड़कर कांग्रेस 3 सीट जीतने में कामयाब रही है। वहीं भाकपा माले को मात्र 3 सीटें दी गई थीं, जिसमें से वह 2 सीटों पर विजयी रही। वास्तव में देखें तो कांग्रेस के हिस्से में 4 सीटें आई हैं, क्योंकि पूर्णिया सीट से पप्पू यादव ने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़कर एक नया इतिहास रच दिया है।
लालू प्रसाद यादव के तानाशाहीपूर्ण रवैये से हैरान और निराश पप्पू यादव ने मार्च 2024 में ही साफ़ कर दिया था कि वे किसी भी कीमत पर पूर्णिया सीट नहीं छोड़ने जा रहे हैं। कोविड महामारी और बिहार में बाढ़ के दौरान उनके द्वारा चलाए गये राहत और बचाव कार्य को बिहार के सभी लोग आज भी याद करते हैं। शायद यही वजह है कि अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय करा देने के बाद राजद के द्वारा गठबंधन धर्म का निबाह न कर पप्पू यादव के राजनैतिक कैरियर को खत्म करने की पुरजोर कोशिश की गई, जिससे पूर्णिया के आम मतदाता का समर्थन पप्पू यादव के पक्ष में होता चला गया।
ऐसा भी कहा जाता है कि बीमा भारती को जिताने के लिए तेजस्वी यादव ने पूर्णिया में दर्जनों आम सभाएं की थीं। अपने एक भाषण में तो उन्होंने यहां तक कह दिया था कि अगर आप बीमा भारती के पक्ष में वोट नहीं करना चाहते हैं तो आप चाहें तो एनडीए के प्रत्याशी के पक्ष में वोट कर सकते हैं। लेकिन अंत में पूर्णिया के मतदाताओं ने जो जनादेश दिया है, वह राजद के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं है। पप्पू यादव (निर्दलीय) को 5,67,556 मत हासिल हुए, जबकि जेडीयू उम्मीदवार संतोष कुमार 5,43,709 वोट पाकर 23,847 मतों के अंतर से दूसरे स्थान पर रहे। इंडिया गठबंधन की संयुक्त उम्मीदवार बीमा भारती को सिर्फ 27,120 वोट हासिल हुए हैं।
हालांकि यह सीट इंडिया गठबंधन के ही नाम होने जा रही है, लेकिन इंडिया गठबंधन की उम्मीदवार को कांग्रेस के बागी उम्मीदवार की तुलना में मात्र 5% वोट हासिल होते हैं, तो इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिहार में इंडिया गठबंधन की हार और दिल्ली में नरेंद्र मोदी के लिए तीसरी बार ताजपोशी की तदबीर कौन और क्यों तैयार कर रहा था? लोकसभा के चुनाव खत्म हो चुके हैं, लेकिन बिहार राज्य विधान सभा चुनाव बस एक फलांग दूर है। 2024 का चुनाव यूपी में सपा और कांग्रेस ने जहां ईमानदारी और बेहद सूझबूझ के साथ लड़ा, वहीं बिहार की लड़ाई पुत्रमोह की वजह से इंडिया गठबंधन लड़ने से पहले ही हार गया था। क्या इस कड़वी सच्चाई से सबक लेकर इंडिया गठबंधन भविष्य में एकजुट होकर कदम बढ़ाएगा?
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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