जोशीमठ: जहां पगलाया विकास लिख रहा है विनाश की पटकथा

Estimated read time 1 min read

देहरादून। (उत्तराखंड के चमोली जिले का जोशीमठ शहर तबाही की दरारों में फंसकर अपना अस्तित्व खोने को तैयार है। समकालीन दौर में टिहरी शहर के बाद यह दूसरा शहर है, जिसे दम तोड़ते हुए हम अपनी आंखों से साक्षात देख रहे हैं। उत्तराखंड के इतिहास, संस्कृति की एक बड़ी विरासत संभाले नष्ट होने यह दोनों शहर किसी प्राकृतिक आपदा के चलते नहीं बल्कि विकास की वजह से मानचित्र से अपना अस्तित्व खो रहे हैं। जोशीमठ पर इस समय बहुत कुछ लिखा सुना जा रहा है। ऐसे ही उत्तरकाशी में रहने वाले चर्चित पर्यावरणविद व ज़रूरी मुद्दों को जेरे बहस में लाने वाले सुरेश भाई ने जोशीमठ के साथ उत्तराखंड में चल रही तमाम विकास योजनाओं के भविष्य के गहरे नुकसान का खाका खींचा है। सुरेश भाई इन दिनों खुद भी उत्तरकाशी के हिमालयन बेल्ट में बड़ी सड़क परियोजना के लिए देवदार के हजारों पेड़ों को कटने से बचाने की मुहिम चला रहे हैं। जनचौक के पाठकों के लिए पेश है जोशीमठ का विश्लेषण सुरेश भाई की कलम से-संपादक)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संदेश दे रहे हैं कि वह सीमांत क्षेत्र में रहने वालों की सुविधा के लिए आधुनिक विकास का मॉडल लाना चाहते हैं। वहां चौड़ी सड़कें, पर्यटन, सुरंग आधारित बांध जैसी अनेकों योजनाएं जो हिमालय को हिला कर रख रही हैं, कुछ इसी तरह के अनेकों ऐसे भारी निर्माण कार्य करना चाहते हैं जिससे चंद दिनों की सुख-सुविधा से लोग रूबरू हो सकते हैं। लेकिन इस तरह के मॉडल के कारण ही आजकल मध्य हिमालय क्षेत्र में स्थित चमोली जिले की प्रसिद्ध धार्मिक नगरी और शंकराचार्य की तपस्थली ज्योर्तिमठ जिसे जोशीमठ भी कहते हैं , यहां भारी भू-धंसाव के कारण अलकनंदा की ओर फिसलता नजर आ रहा है।

जोशीमठ चीन की सीमा पर भारत का एक अंतिम शहर है। जोशीमठ में शीतकाल के समय भगवान बद्रीश भी निवास करते हैं। इसी स्थान से होकर हर वर्ष लाखों- लाख तीर्थयात्री एवं पर्यटक औली, बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी की यात्रा करते हैं। नीति माना तक पहुंचने का रास्ता भी यहीं से है। सीमांत क्षेत्र होने के कारण यह सैनिकों का इलाका भी है। बद्रीनाथ से आ रही अलकनंदा, धौलीगंगा, ऋषि गंगा की गोद में बसा हुआ जोशीमठ ढालदार पहाड़ के टॉप पर बसा हुआ है जहां पर पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए बड़े निर्माण कार्यों को तवज्जो दी गई।

वैज्ञानिक कहते हैं कि इस स्थान का निर्माण हिमालय के अन्य ऊंचे पहाड़ों की तरह ग्लेशियर द्वारा लाई गई मिट्टी के कारण हुआ है जो अत्यंत संवेदनशील है। 1970 में धौली गंगा में आई बाढ़ के प्रभाव के कारण पाताल गंगा से लेकर हेलंग और ढाक नाला तक अपार जनधन की हानि हुई थी उस समय भी कहते हैं कि यहां पर वनों का व्यावसायिक दोहन हो रहा था। इस क्षेत्र का उस समय वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया था। और  इसी दौरान 1975 में मिश्रा कमेटी ने सरकार को सुझाव दिया था की जोशीमठ में किसी भी तरह का भारी निर्माण कार्य न करवायें। इन जगहों पर बर्फ के पहाड़ के अस्तित्व को बचाने के लिए उसके आसपास की जैव विविधता को बचाने की एक पहल भी की गई थी।

1972-73 में चिपको आंदोलन की शुरुआत भी इसी क्षेत्र से हुई थी। लेकिन हिमालय की इस खूबसूरती को नजरअंदाज करते हुए पर्यटन के नाम पर बहुमंजिला इमारतों का निर्माण, भारी खनन कार्य और उससे अधिक से अधिक कमाई हो सके उस तरफ एक लालच बनता गया है। इसका परिणाम यह रहा कि जोशीमठ में पिछले 50 सालों के दौरान अधिक से अधिक लोगों के आवागमन के कारण अनियंत्रित भवनों का निर्माण हुआ है।अब स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि विशेषज्ञ कह रहे हैं कि भू-धंसाव का कारण बेतरतीब भवन निर्माण, घरों से निकलने वाले बेकार पानी का रिसाव, ऊपरी मिट्टी का कटाव, मानव जनित विकास के कारण जलधारा के प्राकृतिक प्रभाव में आ रही है रुकावट के कारण जल निकासी का कोई रास्ता न मिलने की वजह से पहाड़ पर बसे हुए लोगों की अमूल्य संपत्ति जमीन के अंदर धीरे-धीरे समाती नजर आ रही है।

यहां जोशीमठ की तलहटी से गुजरने वाली अलकनंदा नदी के बगल के किनारे से तपोवन विष्णु गाड़ परियोजना( 520 मेगावाट) का निर्माण किया जा रहा है । इसकी सुरंग में हो रहे विस्फोटों ने जोशीमठ शहर की धरती को बुरी तरह हिला कर रख दिया है। स्थानीय लोग वर्षों से इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं। जिसका विरोध पिछले दिनों हेलंग गांव की महिलाओं ने किया है। उनके चारागाह पर बांध निर्माण करने वाली एनटीपीसी कंपनी ने कब्जा कर दिया था और महिलाएं जब वहां घास लेने गई तो उन्हें घास काटने से रोका गया। 

गांव की महिलाओं की पीठ से घास का बोझ भी छीना गया था। जिस पर पूरे राज्य में काफी बवाल हुआ। लेकिन तब भी राज्य और केंद्र सरकार की समझ में यह बात नहीं आई। लेकिन जब वर्तमान में जोशीमठ के अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडराने लगे तो गैर सरकारी वैज्ञानिकों की तरह सरकारी वैज्ञानिक भी कहने लगे हैं कि जोशीमठ के भू-धंसाव का बड़ा कारण जल विद्युत परियोजना के सुरंग निर्माण से भी है और जनवरी के प्रथम सप्ताह में इस परियोजना की सुरंग के निर्माण का कार्य रोक दिया है।

चिंताजनक है कि यहां पर लंबे समय से काम कर रही जोशीमठ- औली रोपवे का संचालन भी नहीं हो पा रहा है। क्योंकि इसके चारों ओर जगह जगह भूस्खलन और भू-धंसाव हो रहा है। यहां पर 600 से अधिक घरों में चौड़ी दरारें पड़ने के कारण लोग घर छोड़ने को मजबूर हो गए हैं। राज्य की सरकार ने एनटीपीसी और एनएचपीसी के माध्यम से लगभग 4000 फैब्रिकेटेड घरों के निर्माण के लिए स्थान चयन करने के लिए कहा है, जहां पर प्रभावित लोग भविष्य में सुरक्षित निवास कर सके।

जोशीमठ नगर के सभी वार्ड जिसमें परसारी, रविग्राम, सुनील, अप्पर बाजार, नरसिंह मंदिर, मनोहर बाग, सिंहधार, मारवाड़ी और गांधी नगर के मकान बुरी तरह जमींदोज हो रहे हैं। यहां पर स्थित भवनों के अलावा लोगों के खेतों, चारागाह और खाली पड़े ढालदार पहाड़ पर दरारें बढ़ती जा रही है। जेपी कंपनी के कॉलोनी के पिछले हिस्से में जमीन से पानी का रिसाव लगातार जारी है। अब कई मकानों की दीवारों से भी पानी रिसने लगा है ।जमीन से निकल रहा पानी खेतों की दरारों में घुस रहा है। जिससे खतरा बढ़ता ही जा रहा है।

इस भारी भू-धंसाव से पहले सन् 2021 में यहां से लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित चिपको की ऐतिहासिक स्थली रैणी गांव के बगल से निकलने वाली ऋषि गंगा में आई बाढ़ ने भारी तबाही मचाई ।जिसके कारण ऋषि गंगा हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट(13 मेगा वाट) और इसके आसपास इस परियोजना में काम कर रहे 203 लोग मारे गए थे। 2013 की केदारनाथ आपदा का प्रभाव धौलीगंगा, अलकनंदा मे निर्मित एवं निर्माणाधीन जल विद्युत परियोजनाओं के कारण भारी तबाही हुई थी। आपदा प्रबंधन का दावा करने वाली व्यवस्था इस क्षेत्र में हिमालय की संकरी भौगोलिक संरचना को नजरअंदाज करके चौड़ी सड़कों का निर्माण करवा रही है।जिसका मलवा नदियों में उड़ेला जा रहा है। इसी स्थान से होकर जाने वाले चारधाम सड़क चौड़ीकरण के दौरान दो लाख से अधिक पेड़ों को काटा गया है। जबकि इन पेड़ों को बचाकर यहां की भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखकर मजबूत व सुदृढ़ सड़क बन सकती थी और मलवा का सही ढंग से निस्तारण करके नदियों में जाने से रोका जा सकता था। लेकिन निर्माणकर्ताओं ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया।

इस क्षेत्र के नेता अतुल सती वर्षों से यहां पर निर्माणाधीन सुरंग आधारित परियोजनाओं का विरोध करते आ रहे हैं ।सन् 2008 में जब नदी बचाओ अभियान शुरू हुआ तो उस समय से यहां के नौजवान समाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मण सिंह नेगी ने बड़े निर्माण कार्यों का जबरदस्त विरोध प्रारंभ किया है। उस समय के वन और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश से लेकर आज तक वह संघर्षरत हैं।सुप्रीम कोर्ट द्वारा रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में गठित समिति ने इस क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों को बचाने व हिमालय की संवेदनशीलता जैसे- बाढ़, भूस्खलन, भूकंप को ध्यान में रखकर संयमित निर्माण करने की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया था। इसके बावजूद भी उन्हें समिति से ही हटा दिया गया।वहां ऐसे लोगों को जिम्मेदारी सौंपी गयी है, जो उत्तराखंड जैसे हिमालय राज्य में बड़े निर्माण कार्यों को अंजाम दे रहे हैं और कहीं भी हिमालय को बचाने की बात उनके दिल में नहीं है ।और तीर्थ स्थलों को पर्यटन स्थल बनाने की कुचेष्टा कर रहे हैं। इसलिए जोशीमठ जैसी स्थिति हमें देखने को मिल रही है। उत्तराखंड समेत हिमालय क्षेत्र के राज्यों में सैकड़ों ऐसी जगह है जहां धरती के नीचे रेल, बांध और अन्य तरह की सुरंगों के निर्माण के कारण गांव के गांव जमींदोज होने लगे हैं। लोग रो रहे हैं चिल्ला रहे हैं । लेकिन कोई सुनने के लिए तैयार नहीं है। जोशीमठ के लिए तब जागृत हुए जब अनेकों संघर्षों को भुलाकर जोशीमठ नगर अपना अस्तित्व खोने लगा है।

(सुरेश भाई पर्यावरणविद हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author