व्यंग्य: नेताजी भावुक हुए…

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इस बार ‘सबका साथ सबका विकास’ के ऐतिहासिक प्रोजेक्ट में नेताजी ने वन्य जंतुओं की चिंताओं को भी शामिल किया। वे वन्य समाज के आखिरी छोर पर खड़े जंतुओं को भी मुख्यधारा में लाना चाहते थे। उन्होंने वाइल्डलाइफ सेंचुरी का दौरा करने का निर्णय लिया। आनन-फानन में सारी तैयारियाँ की गईं। मंच तैयार किया गया, भाषण उसी पर देना था। तय दिन, तय समय पर माननीय आए और इधर-उधर हाथ हिलाते हुए सीधे मंच पर पहुँच गए। वहाँ पहुँचकर चारों तरफ देखा, एक बार फिर हाथ हवा में लहराया। मुस्कराहट को कान के सिरे तक पहुँचाया। होंठों की कोरों ने खुलकर अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर गालों पर सर्जिकल स्ट्राइक की।

माहौल बिल्कुल चरम पर था। वे शुरू हो गए। उन्होंने कहा, “अपनों के बीच आकर जो खुशी हुई, वह बयाँ नहीं की जा सकती। हमारा जंगल से पुराना रिश्ता रहा है। हमारा बचपन जंगल में ही गुजरा है। लकड़ी बीनने और गाय के लिए चारा लाने के लिए जंगल अक्सर आना होता था। तमाम जानवर तो दोस्त बन गए थे। शाखामृग हमारे लिए जामुन लाते थे। कई जानवरों की तो मैं आवाज भी निकाल लेता था। उनकी बोली-बानी समझता और उसी में उनसे संवाद स्थापित करता।”

वे पूरे जोश में थे। उन्होंने आगे कहा, “हम आपके लिए मांस का विदेशों से आयात करेंगे ताकि आप लोग एक-दूसरे को अपना आहार न बनाएँ और सद्भाव से रहें। जो प्राणी संकटग्रस्त श्रेणी में आ चुके हैं, उनके संरक्षण के लिए विशेष बजट का इंतजाम किया जाएगा। पिछली सरकारें जंगल का सारा बजट खा जाती थीं। खासकर नेहरू जी तो जंगली प्राणियों से घोर दुर्भावना रखते थे। उनकी पूरी डिस्कवरी ऑफ इंडिया राजाओं और मनुष्यों की सत्ताओं के इतिहास से भरी है, पर जंगली जानवरों पर कायदे के दो पन्ने भी नहीं हैं। यह पूर्वाग्रह नहीं तो क्या है, मित्रो! पर अब ऐसा कदापि न होगा। नेहरू के औद्योगीकरण की जगह हम जंगलीकरण करेंगे। और हाँ, कुछ जानवरों के नाम बदलने पर सरकार गंभीरता से विचार कर रही है। जैसे कि बंदर और मर्कट की जगह अब उन्हें शाखामृग कहा जाएगा। ‘मर्कट’ से मारकाट जैसी हिंसक भावना उभरती है, जो ठीक नहीं। यह हिंसक नाम है। इसी तरह लकड़बग्घा को काष्ठबग्घा कहा जाएगा। यह भाषा के शुद्धिकरण की दिशा में क्रांतिकारी कदम होगा।”

तभी एक हिरण ने कहा, “सर, आपने जो पिछली बार हमारा सारा बजट भेड़ियों के विकास पर खर्च कर दिया, जबकि आपके समर्थन में सबसे ज्यादा भीड़ हमारी जाति की ही थी। महँगाई इतनी बढ़ी कि हमारी हिरणियों के मंगलसूत्र तक बिक गए।” माननीय अकबकाकर रुक गए, थोड़ा सोचा और फिर गला खँखारकर बोले, “आपकी बात सही है। हम चाहकर भी आपकी मदद न कर सके, क्योंकि हमारी सरकार अल्पमत में थी और भेड़ियों के समर्थन पर टिकी थी। हम शर्मिंदा हैं, पर जिंदा हैं, सो हमारा वादा है कि इस बार हम आपके साथ अन्याय न होने देंगे।”

सभा के प्रेस कॉन्फ्रेंस में तब्दील हो जाने के डर से माननीय ने भाषण को वहीं विराम देने का मन बना लिया। दुनिया में यदि वे किसी चीज से डरते थे, तो वह थी प्रेस कॉन्फ्रेंस। उन्होंने बात को समेटने की गरज से कहा, “आज बस इतना ही। अभी एक और मीटिंग में जाना है, सो आपसे विदा लेते हैं। दुबारा जल्द ही मिलेंगे।” सभा ‘जिंदाबाद’ के नारों से गूँज उठी। माननीय नीचे उतरे और अपने गरुड़ पर बैठने ही वाले थे कि रंग-बिरंगे गिरगिटों का एक समूह सामने आ गया। सबने अपने-अपने गले की मालाएँ उनके चरणों में रख दीं और विनीत भाव से उनकी जय-जय करने लगे।

एक गिरगिट ने कहा, “आते रहिएगा, सर। आपसे बहुत कुछ सीखते हैं। एकलव्य की भाँति ही मन में धारकर आपको पूजा है। आप हमारे वैचारिक पितृपुरुष हैं। रंग बदलने में आप हमारे बाप के भी बाप हैं।” नेताजी भावुक हो गए। आँखों में आँसू आए और उनके हाथ अपने-आप जुड़ गए। सचिव के इशारा करने पर वे भारी मन से प्रस्थान कर गए।

(संजीव शुक्ल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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