बच्चों की कल्पनाशीलता और रचनात्मक ऊर्जा को कुंद करते स्कूल और शिक्षण-प्रणाली

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बच्चों के विकास में सामाजिक परिवेश और स्कूल की एक बड़ी भूमिका होती है। बच्चों का मनोविज्ञान और शिक्षा मनोविज्ञान-दोनों ही बच्चों के संपूर्ण विकास की बात करता है, मगर सवाल है कि यह विकास किसके नजरिए से होना चाहिए? हमारे-आपके नजरिए से या शिक्षा व्यवस्था और पाठचर्या व पाठ्यक्रम बनाने वालों के नजरिए से?

स्कूल का नाम लेते ही सबसे पहले एक भवन की छवि हमारे दिमाग में उभरती है जहां बीस-तीस कमरे होते हैं और उन कमरों में बेंच, कुर्सी, टेबल और ब्लैकबोर्ड पर सफेद चॉक या मार्कर से लिखे कुछ शब्द और पंक्तियां। अब तो स्कूल में दाखिले की उम्र–सीमा को भी घटाकर 3+ कर दिया गया है और प्री-स्कूल की प्रणाली ला दी गई है।

बच्चों के संवेगों पर इसका बड़ा खराब असर पड़ रहा है। हम भूल रहे हैं कि बच्चों की सबसे बड़ी खासियत उनका आजादी के साथ जीना, समूह में रहना, सहजीवी बनना, एक-दूसरे की मदद करना और कुदरत के हर रंग और राग से जुड़ाव महसूस करना है। बहुत बच्चे पशु-पक्षियों से प्यार करते हैं। वे तितलियों के पीछे भागते हैं। वे पेड़–पौधे भी लगाना पसंद करते हैं। क्या हमारे स्कूल के परिसर इन सब मामलों में बच्चों के प्रति संवेदनशील और जिम्मेदार हैं?

बच्चों के लिए भाषा को सीखना मुश्किल नहीं होता। वे अपने परिवार में लोगों को देखकर, उनके शब्दों की ध्वनियों को सुनकर और हाव-भाव को देखकर अपनी समझ विकसित करते हैं और शब्दों के भेद अथवा शब्दों की समरूपता से अपना नाता जोड़ते हैं और फिर वे जवाब देना सीखते हैं। यह सब इतना स्वाभाविक होता है कि हम उन्हें सामान्य मान लेते हैं। जैसे-जैसे विज्ञान और तकनीक का विकास हो रहा है, वैसे-वैसे हमारी शिक्षा व्यवस्था और बच्चों के पाठ्यक्रम में भी बदलाव आ रहे हैं।

संवेदनात्मक ज्ञान का स्थान बंद कमरे में रटने वाली विद्या ने ले लिया है। बच्चे इस विद्या को पसंद नहीं करते और स्कूल नहीं जाने के कई बहाने बनाते हैं। कई बार होमवर्क के पन्नों को फाड़ देते हैं और अपनी किताबों को छिपा देते हैं। अगर स्कूलों के शिक्षक-शिक्षिकाओं की क्षमताओं तथा कक्षा के भीतर के क्रिया-व्यवहार, पठन -पाठन की गुणवत्ता की बात की जाय, तो इन मामलों में स्थिति बहुत दारुण है।

शिक्षक–शिक्षिकाएं वही पढ़ते हैं, जो वे पढ़े होते हैं, उन्हीं पूर्वाग्रहों को बच्चों के मानस में उड़ेलते होते हैं, जिनके साथ वो जिए हुए होते हैं। उनके लिए बच्चों में नैसर्गिक, नैतिक और संवैधानिक मूल्यों का बीजारोपण करना और उन्हें पल्लवित करना बहुत मुश्किल काम होता है।

क्या यह सवाल उठाना वाजिब नहीं है कि आज स्कूल और वहां की शिक्षा प्रणालियां बच्चों की कल्पनाशीलता, रचनात्मकता और ऊर्जा को कुंद कर रही हैं?

(मंजुला स्कूली शिक्षा और बाल-मनोविज्ञान क्षेत्र से जुड़ी हैं।)

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