हिंदुत्व की राजनीति में छाया-युद्ध का घमासान

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राजनीतिक टकराव से सामाजिक सौहार्द बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो रहा है। बार-बार इतिहास के नाम पर गढ़े हुए इतिहास में घुसना पड़ता है। सौ टके का सवाल सौहार्द और सहानुभूति की जरूरत है या नहीं! है तो क्या सौहार्द और सहानुभूति का आयुधीकरण हो सकता है!

कहनेवाले कुछ भी कहते रहें, आज की स्थिति तो यही है कि सौहार्द और सहानुभूति का सफलतापूर्वक हथियार बना लिया जा रहा है।

अब तो यह भी कहा जा रहा है कि कांग्रेसियों, कम्युनिस्टों के साथ समाजवादियों को भी हिंदुत्व की राजनीति के दुश्मन के रूप में चिह्नित किया जा रहा है। लेकिन समाजवाद के फिनिश्ड प्रोडक्ट नीतीश कुमार हिंदुत्व की राजनीति के दुश्मन हैं या दोस्त हैं! समझना मुश्किल है।

समझना जरूरी है कि इस समय सत्ताधारी दल के विपक्ष में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी या इंडिया अलायंस के नेता ही नहीं हैं, बल्कि खुद संविधान और लोकतंत्र है। सत्ता की राजनीति ने अपने विपक्ष का जबरदस्त विस्तार कर लिया है, भले ही यह विस्तृत विपक्ष इस समय असंगठित है।

खुदगर्जी को संस्कृति के साथ जोड़कर उसे अपनी राजनीतिक विचारधारा के रूप में प्रचलित करना बहुत खतरनाक हो सकता है। भारत में सत्ताधारी दल की समग्र व्यवस्था आज-कल इसी तरह से अपनी राजनीतिक विचारधारा को प्रचलित और व्यवहृत करने में लगी हुई है। बहुत हद तक कामयाब भी है।

यह सब सनातन के नाम पर हो रहा है। क्या है सनातन और क्या है सनातन धर्म! सत्ताधारी दल की समग्र व्यवस्था से जुड़े लोग सनातन और सनातन धर्म को बहुत ‘पुराना’ बता रहे हैं, है भी। विडंबना यह कि वे सिर्फ बता ही नहीं रहे हैं, ‘नये संसाधनों’ का इस्तेमाल करते हुए ‘पुराने’ के प्रति मोह जगा रहे हैं।

पुराने की बात करें तो रामायण के साथ-साथ महाभारत पुराना मार्गदर्शी ग्रंथ है। महाभारत में कहा गया है, ‘नादेन तेन महता सनातन इति स्मृतः⁠। पद्मनाभो महायोगी भूताचार्यः स भूतराट्’। विद्वान लोग बताते हैं कि इस श्लोक में वर्णित भाव के अनुसार ‘सनातन’ शब्द की व्युत्पत्ति को ‘नादनेन सहितः सनादनः’ से समझा जा सकता है। जो नाद के साथ हो, वह ‘सनादन’ कहलाता है। सनादन में ‘द’ के ‘त’ हो जाने से ‘सनातन’ बनता है।

सनातन की पैरवी में नाद, ध्वनि और यहां तक कि कोलाहल और कलह की जबरदस्त भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है, न किया जा रहा है। दूसरों का धन नहीं हड़पना सनातन है। देश के धन को हड़पने के प्रति सनातन समर्थकों का रुख और रवैया देखने पर नव-सनतानियों के बारे में सब स्पष्ट हो जायेगा।

यह अलग बात है कि दृश्य की स्पष्टता एक हद तक ही दृष्टि की सहायक हो सकती है; दृश्य की स्पष्टता मोतियाबिंद की समस्या का समाधान नहीं दे सकती है।

महाभारत में तो यह सुझाव भी है कि जिस तरह से सूखी जमीन को खोदकर मनुष्य पानी हासिल कर लेता है, उसी प्रकार से धन-हीन जनता से धन हासिल किया जा सकता है। आज की परिस्थिति में देखा जाये तो राजनीतिक धन भी खुदाई करके हासिल की जा रही है। सो जोर-जोर से पूरे देश में राजनीतिक लाभ के लिए सनातनी खुदाई जोर, जोर-शोर से जारी है।

बात श्रद्धा की है। ऐसी मान्यताएं हैं कि श्रद्धा से खोजने पर कहीं भी भगवान प्रकट हो जाते हैं। यही सनातन आस्था है। कण-कण में भगवान हैं। सो पूरी श्रद्धा से खुदाई के काम में लगे हुए हैं। जहां खोदते हैं, वहीं भगवान निकलकर सामने आ जाते हैं।

कोई अचरज नहीं कि इनकी खुदाई से खनिज या ऐसा कुछ नहीं निकलता है, सिर्फ किसी समय वहां पूजा-स्थल के होने के प्रमाण मिलते हैं! कमाल की बात है न! इसमें कमाल क्या है, श्रद्धा है, श्रद्धा! जन कवि बाबा नागार्जुन बिना हकलाये कह गये हैं कि श्रद्धा से तिकड़म का नाता क्या होता है, अर्थात के अंत में हुगली का पानी पीने की सलाह है!

राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने बोला कि राम मंदिर का मामला अलग था। क्या अलग था पता नहीं, वे ही जानते हैं। लेकिन जो बोला ठीक ही बोला है। लेकिन विलंब से बोला। पुराने के प्रति मोह के कारण लोग कहते हैं कि प्रमुख जी बोलते तो ‘बहुत कुछ’ हैं लेकिन कहते कुछ नहीं हैं।

बोला जो भी गया हो, मतलब निकालनेवालों ने अपने मतलब के लिए यही मतलब निकाला कि स्वार्थ के लिए किसी से नहीं डरना है, न गुरु से, न गंवार से, संविधान से भी नहीं, यहां तक कि ‘संघ’ से भी नहीं डरना है।

मतलब यह कि जब सत्ता साथ हो तब तो बिल्कुल ही नहीं डरना है। हां, दूसरों को डराने से कोई परहेज नहीं करना है। नव-सनतानियों की राजनीति और रणनीति दोनों को समझना बहुत मुश्किल है। डॉ राममनोहर लोहिया कहा करते थे, दीर्घकालिक राजनीति धर्म और अल्पकालीन धर्म राजनीति है।

धर्म और राजनीति को लेकर उन की अपनी समझ थी। लेकिन राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की समझ यह है कि दीर्घकालिक और अल्पकालीन जैसा कुछ नहीं है राजनीति ही धर्म है और धर्म ही राजनीति है। धर्म और राजनीति अलग-अलग नहीं हो सकते हैं।

धर्म और राजनीति का साथ-साथ होना ही ‘राजधर्म’ है और यही राजधर्म की राजनीति है। बात लोक-धर्म की नहीं ‘राजधर्म’ की है। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की आस्था राजधर्म की इसी राजनीति में है, लोकतांत्रिक राजनीति के प्रति उनकी कोई तात्विक प्रतिबद्धता नहीं है।

लोकतांत्रिक राजनीति से उन्हें जो हासिल होना था, हो चुका है। अब जबकि वे यहां ‘संभव’ हो चुके हैं तो धर्म संस्थापना का काम करके जायेंगे, चाहे जैसे भी। कांस्टीट्यूशन हो या पिटीशन सब प्रार्थना का विषय, यानी ‘सब्जेक्ट टू’ है।

मोहन भागवत के बयान को लेकर बवाल हो रहा है, खलबली मची हुई है। भारतीय जनता पार्टी और हिंदुत्व की राजनीति के संगठन चेहरे खामोश हैं। इस खामोश खलबली के बाहर विभिन्न आक्रामक ‘हिंदू हितैषी’ के बीच बवाल मचा हुआ है।

राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के हितैषी सन्न हैं। असल में मोहन भागवत का बयान उनकी खंडित-दृष्टि और सुविधा की तलाश की दुविधा से निकली है। यह खंडित-दृष्टि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की बेचैनी से निकली है।

राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और हिंदुत्व की राजनीति के फैलाये भ्रम-जाल के फटने से निकली है। इस समय कहा जा सकता है कि इससे राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और हिंदुत्व की राजनीति के दृष्टि-परिवर्तन और उदारता से कोई लेना-देना नहीं है। तो फिर राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के बयान का मकसद क्या है! मकसद सिर्फ नये तरीके से नये भ्रम-जाल को फैलाने के अलावा कुछ नहीं है।

राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की मुश्किल यह है कि ‘सांस्कृतिक निरंकुशता’ के दौर में उसका ‘सांस्कृतिक नेतृत्व’ भारतीय जनता पार्टी के सामने बहुत कमजोर पड़ गया है। बहुसंख्यकवाद के दबाव से पनपी भीड़ की अनैतिकता के खिलाफ मुंह खोलनेवालों का अकेले पड़ जाना आज के भारत की सामाजिक-राजनीति नियति बन गई है।

भरोसा और नैतिकता के गहरे संकट में देश को फंसते-फंसाते हुए देखकर खामोशी की चादर ओढ़ लेनेवाले लोगों की विचलित मनःस्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।

मोहन भागवत की टिप्पणी पर भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता की चुप्पी का मतलब राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के तड़तड़ाते आंतरिक संबंधों के भीतर से ही निकल सकता है। क्या राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ में मोहन भागवत के बयान को लेकर कोई असहमति या विवाद और विरोध है या सिर्फ रणनीति है?

देश में रोजगार का भयंकर संकट है। कहते हैं कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। माना जा सकता है कि खाली हाथ शैतान का हाथ। खाली दिमाग और खाली हाथ का उत्तेजना और उन्माद से भरे होने में क्या अचरज? हिंदुत्व की राजनीति की परिधि में राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के छाया-युद्ध में लोकतंत्र के लिए कुछ भी सकारात्मक है यह मानना जरा कठिन है।

छाया के भीतर कोई लहू नहीं होता है। चाहे जितना भी भयानक हो छाया-युद्ध उस में कोई लहुलुहान नहीं होता है। चुप-चाप देखनेवालों का जो होता है, सो तो होता ही है। उस में छाया-युद्ध से प्रभावित हो कर आपस में भिड़नेवालों का तो लहुलुहान होना तय ही होता है। समझदार को चाहिए कि इनके छाया-युद्ध के चक्कर में न पड़े, नहीं तो लहुलुहान होने से बचना मुश्किल ही है!

लेकिन उनके समझदारों का एक तबका ऐसी बहस खोलता है कि आखिरकार समझदार आम आदमी उस बहस में शामिल हो जाने से खुद को बचा नहीं पाता है। छाया-युद्ध देखते-ही-देखते भाषा-युद्ध में बदल जाता है। इसके बाद भ्रामक वाग्मिता (Misleading Rhetoric)‎ के भ्रमाच्छादन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। खेल-खेल में भिन्न विचार के समझदारों का आसान शिकार कर लिया जाता है।

बिहार के राज्यपाल राजेंद्र आर्लेकर या राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के लोगों का यह ज्ञान यदि सक्रिय है कि ब्रिटिश शासकों ने ‘सत्याग्रह’ के कारण नहीं, बल्कि मूल भारतीय लोगों के हाथ में हथियार देखकर अपने निकल लेने का रास्ता पकड़ा, तो उन्हें यह एहसास भी होना ही चाहिए कि अपनी आजादी, अपने लोकतंत्र को बचाने के लिए भी ‘मूल भारतीय लोग’ किस हद तक जा सकते हैं। यह एहसास भी होना ही चाहिए कि अपनी इस समझ से वे ‘हम भारत के लोगों’ को हिंसा-प्रतिहिंसा के किन खतरनाक रास्तों पर धकेल रहे हैं?

रघुवीर सहाय की कविता ‘भाषा का युद्ध’ कहती है, ‘वही लड़ेगा अब भाषा का युद्ध / जो सिर्फ अपनी भाषा में बोलेगा / मालिक की भाषा का एक शब्द भी नहीं / चाहे वह शास्त्रार्थ नहीं करेगा / बल्कि वह शास्त्रार्थ नहीं करेगा’।

कहना न होगा कि यहां भाषा से तात्पर्य हिंदी-बांग्ला से सीमित न होकर अधिक व्यापक है। साफ-साफ संकेत है कि फासीवाद की भ्रामक वाग्मिता (Misleading Rhetoric)‎ का मुकाबला ‘डिबेट और डिस्कोर्स’ से करना थोड़ा नहीं, बहुत मुश्किल है। आज जब पूरी दुनिया में नये सिरे से फासीवाद का खतरा उठान पर है, तो एक बार ठहरकर फासीवाद पर लगाम कसे जाने और द्वितीय विश्व-युद्ध के समाप्त होने की स्थितियों की भयावहता को भी याद किया जाना चाहिए।

समझदारी इसी में है कि भ्रामक वाग्मिता के प्रसंगों के उलझावों में पड़े बिना खुले मन से ‘डिबेट और डिस्कोर्स’ को स्वीकार करने की जरूरत को समझना होगा। कहना न होगा कि जान की भीख मांगती बातूनी जनता की वास्तविक जन-भूमि, ‘पब्लिक स्फीयर’ का आकार-प्रकार बहुत छोटा रह गया है।

यही वह वक्त है जब न्यूनतम नहीं, अधिकतम हौसला और हुलास की ऐतिहासिक जरूरत हुआ करती है। पता नहीं, इनकी खोज खुदाई और खुदगर्जी की राजनीति से देश का सामाजिक-राजनीतिक वातावरण और कितना लहुलुहान होगा! क्या सचमुच पता नहीं! इस का इशारा तो अपने-अपने विवेक और अपनी-अपनी बुद्धि से ही मिल सकता है।

बहरहाल, कुछ भी कहा जाये भारतीय जनता पार्टी के सामने छोटी हो या बड़ी अंततः चुनौती तो कांग्रेस ही है। लेकिन सवाल यह है कि गठबंधन की राजनीतिक प्रक्रिया में खुद कांग्रेस के सामने क्या चुनौती है? सवाल यह भी है कि आज की राजनीतिक परिस्थिति में स्वस्थ लोकतांत्रिक राजनीति की वाम-दृष्टि क्या रुख अपनाती है।

यह इसलिए अधिक जरूरी है कि कांग्रेस की राजनीति वाम-झुकाव लिये बीच की स्थिति में रहकर ही ठीक से कल्याणकर राजनीति करती रही है। विपक्ष की कमजोरी के कारणों पर बात करते समय यदि संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका और चुनावी धांधलियों की पृष्ठ-भूमि यदि अनुपस्थित हो जाये तो विपक्ष के काम का आकलन क्या संभव है? फिलहाल तो यह कि हिंदुत्व की राजनीति में छाया-युद्ध का घमासान के भ्रम-जाल से सावधान रहने में ही कल्याण है।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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