प्रयागराज के सिकंदरा गांव की मजार पर टूटी साझा आस्था… अब डर, सन्नाटा और सवाल ही बचे हैं !

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प्रयागराज के सोरांव रोड से मुड़ते ही एक कच्ची पगडंडी खेतों के बीचों-बीच पसरी हुई है। गेहूं की फसलें कट चुकी हैं और खेत खाली हैं। सूने रास्ते जैसे किसी के लौट आने की राह ताक रहे हैं। उसी पगडंडी से होकर एक संकरी सड़क सिकंदरा गांव में उतरती है वहां, जहां पहले हर रविवार को मेले की गूंज होती थी, अब सन्नाटे की सांय-सांय गूंजती है। गांव का वो बाज़ार जो कभी जीवन का उत्सव हुआ करता था, आज खामोशी की चादर ओढ़े बैठा है।

टीन की छतों वाली दुकानें बंद हैं। कहीं-कहीं तख्तों पर बैठे बुज़ुर्ग आंखें बंद किए हुए हैं, जैसे किसी स्मृति को भीतर से टटोल रहे हों। कोई कुछ नहीं कहता, फिर भी हर चुप्पी एक चीख बनकर हवा में तैर रही है। गांव के चबूतरों पर सजे ये चेहरे सिकंदरा की उस साझी विरासत के गवाह हैं, जो हर वक़्त दो मज़हबों के बीच नहीं, दो संस्कृतियों के बीच पुल बनकर खड़ी रही है। गाजी मियां की मजार को लेकर एक सवाल इन खामोशियों को चीरता है। जवाब आता है धीमे, कांपते हुए स्वर में।

“गाजी मियां की ये मजार एक हज़ार साल से है। उसके चारों ओर चार और मजारें हैं, जिन्हें लोग हिंदू पूर्वजों की मानते हैं। यहां हमेशा दोनों समुदायों की आस्था साथ आई है। मैंने अपने पचास साल में ऐसा तनाव पहली बार देखा है। अब डर लग रहा है।”-कहते हैं किसान रामजनम। वो पड़ोस के एक गांव के रहने वाले हैं और रोजाना गाजी मियां की मजार पर मत्था टेकने आते हैं।

सिकंदरा गांव में मजार पर तैनात फोर्स

सिकंदरा गांव में स्थित गाजी मियां की मजार पर रामनवमी के दिन भगवा झंडा लहराने और धार्मिक नारेबाजी की घटना ने सिर्फ प्रशासन को नहीं, बल्कि समाज के उस हिस्से को भी झकझोर दिया है, जो वर्षों से धार्मिक समरसता और सांप्रदायिक सौहार्द की नींव पर टिका रहा है। यह एक ऐसा धार्मिक स्थल है, जहां मुस्लिम ही नहीं, हिंदू श्रद्धालु भी बराबरी से आस्था के फूल चढ़ाते हैं, चादरें चढ़ाते हैं, और मन्नतें मांगते हैं। रविवार को इसी मजार के सामने जो हुआ, वह न सिर्फ धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने वाला था, बल्कि समाज की रगों में फैलती एक असहज बेचैनी का भी प्रतीक बन गया।

वीडियो में मजार के गेट पर भगवा झंडा लहराते और नारे लगाते कुछ युवक साफ़ देखे गए। जैसे ही यह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, प्रशासन हरकत में आया। गाजी मियां की मजार पर पुलिस की तैनाती बढ़ा दी गई और वहां जमा भीड़ को हटाकर सुरक्षा घेरा बनाया गया। लेकिन तब तक आग सुलग चुकी थी।

मजार तक जाने वाला रास्ता अब सूना है। फूल-मालाओं की दुकानें बंद हैं, जिनके आगे कभी बच्चे बैठकर बताशे सजाया करते थे। सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे बैठा दाउदपुर का रमेश बताता है कि वह गाजी मियां को बतासा चढ़ाने आया है, क्योंकि “हमारी दो पीढ़ियां यहां आती रही हैं, चाहे कोई माने या न माने। हमारे लिए यह जगह पूज्य रही है। यहां तो मुसलमानों से ज्यादा हिन्दू आते हैं, जिनमें ज्यादातर लोग नूरपुर, निठारी, गांगरौल, कादरपुर, भौंरा, सलौनी उर्फ रौनी, मकरंदपुर उर्फ फतेहपुर, बैंर बादशाहपुर, अरौड़ा, फतेहपुर जादों, धनौरा और शेखपुर माम के लोग होते हैं।”

रमेश मुस्कुराते हुए कहता है, “गाजी मियां की मजार पर कोई शादी का कार्ड रखकर माथा टेकता है तो कोई पूजा की थाली सजाता है तो कोई चुपचाप कोई मन्नत मांगकर लौट जाता है। यह सिर्फ श्रद्धा नहीं, यह वह परंपरा है, जो पीढ़ियों से आस्था को रोज़मर्रा के जीवन में पिरोती आई है। कई ऐसे लोग भी हैं जो पहला निमंत्रण गाजी मियां को ही देते हैं। गाजी मियां हों या आसपास की दूसरी समाधियां—हम उन्हें हनुमान जी की तरह पूजते हैं।”

पर माहौल अब वैसा नहीं रहा। सिकंदराबाद गांव के एक व्यापारी ने जनचौक से कहा, –हर रविवार यहां तीन-चार किलोमीटर तक के दुकानदार आते थे। कम से कम पच्चीस लाख का कारोबार होता था। पर अब दो रविवार बीत गए हैं और बाज़ार की रगों में खून की जगह भय बह रहा है। हमने जब से होश संभाला है, मजार को यहीं देखा है। हर धर्म, हर जाति के लोग यहां आते थे। अब तो पचास लोग भी नहीं दिखते। जाने ये हालात कब ठीक होंगे।”

दूसरी ओर दुकानदार हमनान अंसारी जैसे लोग हैं, जिनके लिए ये बाजार सिर्फ रोज़ी नहीं, एक परंपरा थी। वह कहते हैं, “गाजी मिया की मजार के पास पहले करीब सौ दुकानें लगती थीं। 2500 परिवारों की रोटी चलती थी। अब सब बंद है।”

मजार कमेटी के चेयरमैन जावेद कहते हैं, “इस माहौल की सबसे तीखी किरच तब चुभती है, जब मजार की मीनार पर भगवा झंडा फहराने की घटना सामने आती है। 07 अप्रैल 2025 को 25-30 युवक बाइक पर आए। मजार पर चढ़े, डीजे बजाया गया, ‘जय श्रीराम’ के नारे लगे। पुलिस वहीं थी, लेकिन कुछ नहीं किया। वीडियो वायरल हुआ। भारी फोर्स तैनात हो गई। प्रशासन ने पूजा-पाठ तक रोक दिया।”

“उस दिन सिर्फ मीनार पर झंडा नहीं फहराया गया था, बल्कि गांव की वो साझी सांसें भी थम गई थीं, जो हर मेले में हिंदू-मुस्लिम दोनों के दीपक जलाया करती थीं। यह घटना सिर्फ एक धार्मिक स्थल पर आक्रोश नहीं थी, यह विश्वास पर चोट थी, उस भरोसे पर, जो एक मजार से लेकर शीतला माता तक बिना भेदभाव के खुला रहता था। सिकंदरा का बाजार आज बंद है, मगर उसके बंद होने की सबसे गूंजती वजह यह है कि यहां का वह भरोसा दरक गया है, जो सदियों से पूजा, मन्नत, और मेले के बीच सांस लेता आया था।”

सांस्कृतिक धरोहर की ढहती दीवारें

प्रयागराज से करीब तीस किमी दूर सिकंदरा गांव का वह मेला मैदान गर्मी की दोपहर में अब वीरान पड़ा है, जहां हर जेठ में घुड़दौड़, रेस और लोकगीतों की गूंज होती थी। ये वो मेला नहीं था जिसमें सिर्फ प्रसाद और पूजा होती थी, ये वो ‘ग़ाज़ी मियां का मेला’ था जहां अजान और शंख की ध्वनि एक साथ गूंजती थी। एक ओर सूफ़ी कव्वालों की महफ़िल सजती थी, तो दूसरी ओर देसी भजन मंडलियों के सुर तैरते थे। मगर इस बार न गीत था, न घोड़े की टाप, न हंसी की गूंज—बस चारों ओर एक रुद्ध मौन पसरा है।

सिकंदरा की पहचान महज़ एक मज़ार या मंदिर नहीं थी, वह उन रिश्तों का बुनियादी नक़्शा था जो आस्था के रास्ते सामाजिक समरसता की ओर बढ़ते थे। लेकिन अब हर गली में, हर आंगन में वही सवाल गूंज रहा है, “कब से मजारें निशाना बनने लगीं?”, “कौन सा झंडा किसकी श्रद्धा पर भारी पड़ा?”

गांव के प्राथमिक विद्यालय की दीवार पर अभी भी ग़ाज़ी मियां के मेले की पेंटिंग अधूरी पड़ी है। उस पर पीले रंग के छींटे हैं, शायद किसी ने गुस्से में रंग उड़ेल दिया हो। बच्चे, जो हर साल इस मेले में घोड़े खरीदने के लिए अपनी गुल्लक तोड़ते थे, अब मैदान की ओर देखने से भी डरते हैं।

कुछ घरों के दरवाज़े अब अजनबियों के लिए बंद हो गए हैं। वह मोहल्ला, जहां एक पीर बाबा की मजार के बगल में शीतला माता का झूला झूलता था, अब दो हिस्सों में बंट चुका है, मन से, नज़रों से, बातों से। और यह दरार इतनी गहरी है कि हर रविवार की सुबह अब अपने साथ एक बेचैनी लेकर आती है।

एक आरोपी गिरफ्तार, तीन की तलाश

मजार पर भगवा झंडा फहराने और सांप्रदायिक नारेबाजी करने के मामले में पुलिस की तफ्तीश में सामने आया कि इस घटना के चार मुख्य आरोपी हैं-मानेंद्र सिंह, राजकुमार सिंह, विनय तिवारी और अभिषेक सिंह। पुलिस ने मानेंद्र सिंह को 08 अप्रैल को गिरफ्तार कर लिया गया था। डीसीपी कुलदीप सिंह गुनावत ने जानकारी दी कि मानेंद्र सिंह ने बाकायदा दो अन्य युवकों को मजार तक पहुंचाया और भगवा झंडा फहराने में उनकी मदद की। इस घटना में 15 से 20 अज्ञात लोगों को भी आरोपी बनाया गया है।

मानेंद्र सिंह का नाम सामने आते ही मामला और गंभीर हो गया। ‘आज तक’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, मानेंद्र सिंह करणी सेना का पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रह चुका है और अब भारतीय जनता पार्टी से जुड़ा हुआ बताया जा रहा है। पहले भी वह गाजी मियां की मजार को हटाने की मांग को लेकर मुखर रहा है, जिससे यह सवाल उठने लगा है कि यह घटना केवल भावनाओं की उत्तेजना में नहीं, बल्कि पूर्वनियोजित उद्देश्य से की गई प्रतीत होती है। पुलिस उसकी राजनीतिक पृष्ठभूमि, पूर्व बयानों और हाल की गतिविधियों को जोड़कर पूरे घटनाक्रम की जांच में जुट गई है।

इस पूरी घटना ने गाजी मियां की मजार के आसपास के वातावरण को अशांत कर दिया है। यहां हर रविवार और बुधवार को लगने वाले ‘रोजा के मेले’ पर पहले ही प्रशासन ने सुरक्षा कारणों से रोक लगा दी थी, लेकिन अब जो हुआ, उसने वर्षों से चली आ रही धार्मिक एकता की परंपरा को संकट में डाल दिया है। मजार एक ऐसा स्थल था, जहां किसी धर्म की पहचान पूछे बिना मनौतियां कबूल होती थीं, लेकिन अब वहां खामोशी और डर ने डेरा डाल लिया है।

घटना के बाद पुलिस महकमे की सतर्कता और जिम्मेदारी पर भी सवाल खड़े हो गए हैं। डीसीपी के मुताबिक, मौके पर तैनात पुलिसकर्मियों की भूमिका की जांच की जा रही है और उनके खिलाफ विभागीय कार्रवाई शुरू कर दी गई है। यह स्पष्ट करता है कि प्रशासनिक स्तर पर भी चूक हुई है और यही चूक आने वाले समय में बड़ी घटनाओं को जन्म दे सकती है, यदि उस पर समय रहते नियंत्रण न किया गया।

प्रयागराज के अमनपसंद लोगों का कहना है कि यह सिर्फ एक भगवा झंडे की बात नहीं है। यह समाज के उस ताने-बाने पर वार है, जो वर्षों से धर्मों के बीच पुल बनाता आया है। जब किसी धार्मिक स्थल को उग्र राजनीति या वैचारिक आक्रोश का मंच बना दिया जाता है, तो उसकी पवित्रता के साथ-साथ समाज की स्थिरता भी दांव पर लग जाती है। इस प्रकरण में मानेंद्र सिंह की राजनीतिक सक्रियता और पूर्व विरोध की पृष्ठभूमि ने इसे और भी संवेदनशील बना दिया है।

दिलों में धर्म बसता है, नफरत नहीं

सिकंदरा गांव में स्थित गाजी मियां की मजार पर झंडा फहराने की घटना से समूचा प्रयागराज सदमे में है। खासतौर पर वो लोग जो अमनपसंद हैं और जिनके मन में भाईचारे की लौ जलती है। प्रयागराज का एक मोहल्ला है मंफोर्डगंज, जहां गलियों की तंग परछाइयों में भी रिश्तों की रोशनी बसती है, जहां सुबह की चाय मुस्लिम के हाथ से बनकर हिंदू के होंठों तक जाती है और शाम की आरती की गूंज से पास की मस्जिद का सन्नाटा भी सम्मान में झुक जाता है। लेकिन हाल ही में गाजी मियां की मजार पर भगवा झंडा लहराने की घटना ने इस मोहल्ले की आत्मा को जैसे झकझोर दिया हो।

मंफोर्डगंज मोहल्ले में डेयरी चलाने वाले विकास यादव कहते हैं, “गाजी मियां की मजार पर यह सिर्फ एक झंडा नहीं फहराया गया, यह उस भरोसे के आकाश में एक दरार थी, जो बरसों से हिंदू-मुस्लिम के रिश्तों को सींचती रही है। जब यह दरार गूंज बनकर प्रयागराज की गलियों में फैली, तो हर दरवाज़ा, हर दिल अपनी-अपनी बात कहने को तैयार था, नफरत से नहीं, दर्द से।”

विकास यह भी कहते हैं, “हम रोज़ सुबह दूध बांटते हैं, लेकिन उस दिन उनकी आंखों में कुछ और ही बह रहा था। हर धर्म का सम्मान हमारी परंपरा है, लेकिन किसी और के धर्म को चोट पहुंचाकर खुद को बड़ा साबित करने की कोशिश, ये इंसानियत की तौहीन है। ये झंडा नहीं लहराया गया, हमारे समाज के मोहब्बत की चादर फाड़ी गई है।”

आईएएस बनकर देश की सेवा करने का जज्बा पालने वाले नौजवान आनंद मिश्रा ग़ुस्से और ग़म के बीच संतुलन खोजते नज़र आए। वो कहते हैं, “ये हरकत ग़लत है, लेकिन अगर हम सब सचमुच धार्मिक हैं, तो हमें अपने शब्दों, अपने व्यवहार में भी धार्मिकता दिखानी होगी। जब फिल्मों में हमारे देवी-देवताओं पर छींटाकशी होती है, तब भी हमें आवाज़ उठानी चाहिए। सभी धर्मों को समझना होगा कि दूसरों की आस्था भी उतनी ही पवित्र होती है, जितनी अपनी।”

प्रयागराज के महताब अली, जिनकी आवाज़ में सदियों की साझी विरासत की गूंज थी, अपने बच्चों के भविष्य की चिंता में डूबे हुए थे। मुलाकात हुई तो वो बोले, “हम यहां बरसों से मिलजुल कर रह रहे हैं। मेरे अब्बा नहीं रहे, लेकिन जब वो थे, तो वो अपने हिंदू पड़ोसी की दीवाली के दीए खुद सजाया करते थे। अब सोचिए, अगर हम एक-दूसरे की मस्जिद या मंदिर पर कब्जा करेंगे, तो कल हमारे बच्चे क्या सीखेंगे? “

अस्त मोहम्मद, शांत लेकिन गंभीर थे। बोले, “हमें इस आग से खुद को बचाना होगा। यह कोई धर्म की लड़ाई नहीं है, यह कुछ सिरफिरे लोगों की साजिश है, जो हमारी भाईचारे के जज्बे को जंग में बदलना चाहते हैं। हमें होश से काम लेना होगा, क्योंकि यही मोहल्ला हमारी पहचान है और यही हमारी अमानत।”

जारा बेगम, जिनकी आंखों में डर नहीं, मगर पीड़ा थी, बहुत ही भावुक होकर बोलीं, “यह सब देखकर लगता है जैसे कोई हमारे दिल के बीच में दीवार खींचना चाहता है। पहले हम साथ ईद और होली मनाते थे, अब डर है कि कल बच्चे स्कूल में भी एक-दूसरे से बात करने से डरेंगे। हमें उठना होगा, खामोश नहीं रह सकते। नफरत का दर्द बढ़ने से पहले, मोहब्बत बांटनी होगी।”

सिकंदरा गांव अब इंतज़ार में है, उन आवाज़ों का जो मोहब्बत की भाषा बोलती थीं। उस रौनक़ का जो फिर से लौटे और मजार से लेकर मंदिर तक सिर्फ़ श्रद्धा गूंजे, नारों की गूंज नहीं। शायद यही दूसरा अध्याय है, जिसमें सवालों के जवाब और भविष्य की दिशा दोनों छिपे हैं।

प्रयागराज की जानी-मानी अधिवक्ता महिमा कुशवाहा कहती हैं, “सिकंदरा गांव में गाजी मिया की मजार पर झंडा लहराने की घटना से हर उस व्यक्ति के दिलों को चोट पहुंची है जिसने शताब्दियों से गंगा-जमुनी तहज़ीब को सींचा है। प्रयागराज ऐसा शहर है जहां मंदिर की घंटियों और अज़ान की आवाज़ में कोई टकराव नहीं, बल्कि सुरों का संगम है। यह घटना चाहे कितनी भी गहरी क्यों न हो, लेकिन लोगों की प्रतिक्रियाएं यह बताती हैं कि ज़मीन पर अब भी दिल ज़िंदा हैं।”

“यह केवल ‘भगवा झंडे’ और ‘ग़ाज़ी मियां’ की मजार का विवाद नहीं है, यह उन अनगिनत कहानियों का टूटना है जो दशकों से एक चादर पर कढ़ाई की तरह बुनती गई थीं। जैसे फातिमा चाची का पूजा में हलवा चढ़ाना, जैसे रमेश यादव का हर साल चादर चढ़ाकर मनौती मांगना, जैसे काफ़ी पुरानी वह परंपरा जब होली पर सब एक ही रंग में भीगते थे।”

महिमा कहती हैं, “अब हर ओर सवाल है, क्या इस टूटन की मरम्मत होगी? क्या उस मेला मैदान में फिर से पायरी पर बैठकर कोई ‘साईं की सौगंध’ गाएगा? क्या रामनवमी और उर्स एक ही दीये से रोशनी पाएंगे? या फिर हम इतिहास के पन्नों में दर्ज उस एक और तारीख़ को भूल जाने का अभ्यास करेंगे, जिस दिन सिकंदरा की साझी रूह पर सियासत की स्याही गिरा दी गई थी? “

“धर्म के नाम पर झंडे लहराने वाले भले ही कुछ देर के लिए माहौल को बिगाड़ दें, मगर साझी विरासत वाले प्रयागराज के लोग इस देश को उसका असली चेहरा याद दिलाते रहेंगे-जहां धर्म का मतलब मोहब्बत है और आस्था का नाम है आपसी सम्मान, न कि नफरत। यहां नफरतों को जगह नहीं दी जाती, यहां तो चूल्हों की आग में भी दुआएं पकती हैं। यही सिकंदरा गांव है, प्रयाग है… और यही हिंदुस्तान है।”

(आराधना पांडेय स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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