शरिया कोर्ट को कानून में कोई मान्यता नहीं: सुप्रीम कोर्ट

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सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि शरिया कोर्ट, काजी अदालत, दारुल कजा, काजियात अदालत आदि, चाहे उन्हें किसी भी नाम से पुकारा जाए, को कानून में कोई मान्यता प्राप्त नहीं है। इन निकायों द्वारा की गई कोई भी घोषणा या निर्णय किसी पर बाध्यकारी नहीं है और इसे बलपूर्वक लागू नहीं किया जा सकता।

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसी घोषणाएँ या निर्णय तभी कानूनी रूप से मान्य हो सकते हैं, जब प्रभावित पक्ष स्वेच्छा से उन्हें स्वीकार करें और वे अन्य कानूनों से टकराव न करें। पीठ ने कहा, “ऐसी घोषणा या निर्णय, सबसे अच्छी स्थिति में, केवल उन पक्षों के बीच ही वैध होगा, जो इसे स्वीकार करने या लागू करने का विकल्प चुनते हैं, न कि किसी तीसरे पक्ष के लिए।”

कोर्ट ने यह टिप्पणी दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 के तहत एक मुस्लिम महिला द्वारा दायर भरण-पोषण याचिका पर सुनवाई के दौरान की। कोर्ट ने विश्व लोचन मदन बनाम भारत संघ (2014) मामले का हवाला देते हुए कानूनी स्थिति स्पष्ट की। मामले में, एक मुस्लिम व्यक्ति ने अपनी पत्नी से तलाक के लिए पहले काजी अदालत और दारुल कजा में याचिका दायर की थी।

पीठ शाहजहां द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 3 अगस्त, 2018 के आदेश को चुनौती दी गई थी। इस आदेश ने झांसी के पारिवारिक न्यायालय के 23 अप्रैल, 2010 के फैसले के खिलाफ उनकी पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी थी, जिसमें उन्हें सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण देने से इनकार किया गया था। पारिवारिक न्यायालय ने उनके दो बच्चों के लिए केवल 2,500 रुपये मासिक भरण-पोषण की अनुमति दी थी।

महिला और उनके पति का विवाह 24 सितंबर, 2002 को इस्लामी रीति-रिवाजों के अनुसार हुआ था। यह दोनों की दूसरी शादी थी। महिला ने दावा किया कि पति ने उनके साथ क्रूरता की, क्योंकि वह उनकी मोटरसाइकिल और 50,000 रुपये की माँग पूरी नहीं कर सकी। पारिवारिक न्यायालय ने तर्क दिया कि दूसरी शादी होने के कारण दहेज की माँग की संभावना नहीं है, क्योंकि पति अपने घर को फिर से बसाने की कोशिश कर रहा होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा, “पारिवारिक न्यायालय का यह तर्क कानूनी सिद्धांतों से अनभिज्ञ है और केवल अनुमान पर आधारित है।” कोर्ट ने नागराथिनम बनाम राज्य (2023) मामले का उल्लेख करते हुए कहा कि “न्यायालय समाज को नैतिकता और आचार-विचार पर उपदेश देने वाली संस्था नहीं है।” कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि दूसरी शादी होने पर दहेज की माँग नहीं होगी, यह धारणा त्रुटिपूर्ण है।

पारिवारिक न्यायालय ने 2005 के एक समझौते के आधार पर यह भी माना कि महिला का चरित्र और आचरण वैवाहिक जीवन में दरार का कारण था। सुप्रीम कोर्ट ने इसे गलत ठहराया, क्योंकि समझौता विलेख में महिला की ओर से कोई गलती स्वीकार नहीं की गई थी। 2005 में पति द्वारा दायर तलाक का मुकदमा इस समझौते के आधार पर खारिज हुआ था, जिसमें दोनों पक्षों ने एक साथ रहने और शिकायत का अवसर न देने पर सहमति जताई थी।

सुप्रीम कोर्ट ने भरण-पोषण के दावे को खारिज करने के आधार को अस्थिर माना। कोर्ट ने यह भी विचार किया कि भरण-पोषण किस तिथि से देय होगा-याचिका दायर करने की तिथि से या आदेश की तिथि से। रजनेश बनाम नेहा (2021) मामले का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा, “सीआरपीसी की धारा 125 एक लाभकारी कानून है, जिसका उद्देश्य पत्नी और बच्चों को अभाव और आवारागर्दी से बचाना है। सामान्य रूप से, न्यायिक प्रक्रिया में देरी के लिए याचिकाकर्ता को नुकसान नहीं उठाना चाहिए।”

पति, जो बीएसएफ में कांस्टेबल के रूप में कार्यरत था और 2008-09 में 15,000 रुपये मासिक वेतन प्राप्त करता था, को कोर्ट ने आदेश दिया कि वह महिला को याचिका दायर करने की तिथि से 4,000 रुपये प्रतिमाह भरण-पोषण दे। बच्चों के लिए भरण-पोषण भी याचिका की तिथि से देय होगा। चूँकि बेटी वयस्क हो चुकी है, उसके लिए भरण-पोषण केवल वयस्क होने की तिथि तक देय होगा।

कोर्ट ने पति को निर्देश दिया कि वह बकाया राशि का समायोजन करने के बाद चार महीने के भीतर पारिवारिक न्यायालय में राशि जमा कराए।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं)

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