सीताराम येचुरी: एक जनवादी बुद्धिजीवी की राजनैतिक यात्रा

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12 सितंबर, 2024 को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के महासचिव सीताराम येचुरी ने धरती को अलविदा कर दिया। उनके निधन से भारत की संसदीय वामपंथी राजनीति में एक तात्कालिक निर्वात पैदा हो गया है। वे सांप्रदायिक एकाधिकारवादी राजनीति के विरुद्ध राजनैतिक लामबंदी के एक अहम किरदार थे।

उनकी याद में दिल्ली और देशभर में सभाओं का सिलसिला जारी है। दिल्ली में, प्रेस क्लब की लॉन में, 21 सितंबर, 2024 को जेएनयू के पहले दशक के छात्रों के एक समूह द्वारा आयोजित विशाल सभा में, उन्हें जेएनयू छात्रसंघ के निवर्तमान अध्यक्षों ने उनसे जुड़ी यादें शेयर कर श्रद्धांजलि दी।

28 सितंबर को उनकी याद में तालकटोरा स्टेडियम में सभा में हजारों लोगों की मौजूदगी रही।

प्रेस क्लब की सभा में जेएनयू छात्रसंघ में उनके एक पूर्ववर्ती अध्यक्ष और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के उनके पूर्ववर्ती महासचिव प्रकाश करात ने जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता तथा देश के संघीय ढांचे की सुरक्षा की लड़ाई के अथक योद्धा के रूप में उन्हें याद करते हुए कहा कि सीताराम ने जेएनयू में जो सीखा, राष्ट्रीय नेता के रूप में उस पर अमल किया।

एक विचार के रूप में जेएनयू की रक्षा और सुरक्षा में योगदान ही सीता के प्रति सही श्रद्धांजलि होगी।

जेएनयू के अपने समकालीनों में सीताराम येचुरी सीता नाम से ही जाने जाते थे। 2016 में राष्ट्रद्रोह का अड्डा बताकर जेएनयू पर पुलिसिया हमला और उसके विरुद्ध जेएनयू आंदोलन के समय से ही विचार-विमर्श आधारित जेएनयू की जनतांत्रिक शैक्षणिक संस्कृति सरकार और संघ परिवार के निशाने पर है।

मरणोपरांत उनका पार्थिव शरीर, 13 सितंबर को जेएनयू ले जाया गया जहां भारी संख्या में छात्र-शिक्षक-कर्मचारियों ने उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी। सीता जेएनयू के पहले दशक में छात्रसंघ अध्यक्ष थे और उस समय संघर्षों में नारा लगता था, ‘छात्र-शिक्षक कर्मचारी एकता ‘जिंदाबाद’।

सीता सांप्रदायिक अधिनायकवाद के विरुद्ध जनतांत्रिक ताकतों की एकजुटता की राजनीति के एक प्रमुख रणनीतिकार के रूप में जाने जाते थे। 1996 में संयुक्त मोर्चा की सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम का मसौदा तैयार करने में उनकी अहम भूमिका थी।

वे भाजपा के नेतृत्व में सांप्रदायिक एकाधिकारवादी शासन के विरुद्ध भारतीय राष्ट्रीय विकासोन्मुख समावेशी गठबंधन (इंडिया) की लामबंदी के भी प्रमुख किरदार थे। सीताराम येचुरी जेएनयू के एकमात्र ऐसे छात्र नेता थे, जो, विशिष्ट परिस्थितियों में ही सही, तीन बार छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने गए।

सीपीएम के महासचिव के रूप में यह उनका तीसरा कार्यकाल था, जो उनकी असामयिक मृत्यु से अधूरा ही रह गया। पहली बार 2015 में वे सीपीएम की 21 वीं पार्टी कांग्रेस में महासचिव चुने गए थे तथा दूसरी और तीसरी बार, क्रमशः 22वीं (2018) और 23वीं (2022) पार्टी कांग्रेसों में।

प्रकाश करात के बाद वे ही जेएनयू के एक ऐसे छात्र नेता थे जो किसी राष्ट्रीय पार्टी के सर्वोच्च पदाधिकारी बने, वह भी लगातार तीन बार। यह अलग बात है कि उन्होंने जब पार्टी की बागडोर संभाली तो पार्टी की स्थिति डांवाडोल हो चुकी थी। पश्चिम बंगाल का किला ढह चुका था तथा त्रिपुरा का ढहने वाला था।

अपने अकर्मों के चलते भारत में कम्युनिस्ट संसदीय प्रभाव के क्षीण होने पर विमर्श की यहां न तो गुंजाइश है, न ही जरूरत। सीताराम के नेतृत्व ने वस्तुस्थिति को स्वीकार कर गैर-सांप्रदायिक संसदीय पार्टियों के गठबंधन की राजनीति को तरजीह दी। 1996 में वे संयुक्त मोर्चा सरकार में ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने के पक्षधर थे, लेकिन पार्टी की केंद्रीय समिति ने इसे नकार दिया।

सीता 2005 से 2017 तक पश्चिम बंगाल से राज्य सभा सदस्य रहे। 2012 में जब उनसे पहले जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे, डीपी त्रिपाठी महाराष्ट्र से एनसीपी के राज्य सभा के सदस्य चुने गए तो संयोग से फिरोजशाह रोड पर दोनों के सांसद आवास अगल-बगल थे।

हम लोगों के समकालीन जेएनयू वाला कोई उनमें से किसी के यहां जब कोई उत्सव आयोजित करता तो दोनों के लॉन एक हो जाते थे। 1983 में त्रिपाठी जी सीपीएम से कांग्रेस में चले गए थे और वहां से एनसीपी में। वे एनसीपी के सांसद थे। अलग-अलग पार्टियों में होने के बावजूद उनके निजी संबंध मित्रवत बने रहे। त्रिपाठी जी का 4 साल पहले कैंसर से देहांत हो गया।

आपातकाल के बाद, 1977 में जेएनयू छात्रसंघ के चुनाव में एसएफआई के अध्यक्षीय उम्मीदवार के रूप में सीताराम के चयन में त्रिपाठी जी की निर्णायक भूमिका थी। त्रिपाठी जी जेएनयू छात्रसंघ के उनके पूर्ववर्ती अध्यक्ष थे, जिनके कार्यकाल का काफी समय आपातकाल में भूमिगत सक्रियता और तिहाड़ जेल में बीता।

जेएनयू एसएफआई में त्रिपाठी गॉडफादर समझे जाते थे। आपातकाल में भूमिगत रहने की संभावनाओं की तलाश में, मैं अगस्त, 1976 इलाहाबाद से दिल्ली आया और इलाहाबाद के परिचय के आधार पर त्रिपाठी जी को खोजते जेएनयू पहुंच गया, इलाहाबाद में वे वियोगी नाम से जाने जाते थे।

वे तो तिहाड़ जेल में होने के नाते नहीं मिले लेकिन उनके प्रिय कॉमरेड सीताराम येचुरी का पड़ोसी होने का मौका मिल गया।

त्रिपाठी जी के बारे में पूछताछ के दौरान इलाहाबाद के एक अन्य सीनियर, रमाशंकर सिंह से परिचय हुआ, जिन्होंने अपने कमरे में आश्रय की पेशकश की। वे गंगा हॉस्टल के कमरा नंबर 323 में रहते थे और सीता 325 में।

तब पता नहीं था कि सीता जेएनयू छात्रसंघ के भावी अध्यक्ष हैं, लेकिन उसका सादगीपूर्ण, विनम्र, समानता का वर्ताव जेएनयू संस्कृति का द्योतक था और एक साल की वरिष्ठता से सर की उपाधि वाली इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सामंती संस्कृति से आने वाले छात्र के लिए सुखद सांस्कृतिक शॉक।

चारमीनार सिगरेट पीने वाले सीताराम उस समय अर्थशास्त्र में पीएचडी के छात्र थे और मुझे छात्र बनने के लिए आपातकाल की समाप्ति का इंतजार। बीए प्रथम वर्ष वाला छात्र पीएचडी के छात्र से तुम के संबोधन से बात कर सकता था। सीता और जेएनयू ने कभी भी मुझे बाहरी या अवांछित होने का एहसास नहीं होने दिया।

जेएनयू पहुंचने के पहले ही मार्क्सवाद की बारीकियां जाने बिना ही मैं अपने को मार्क्सवादी समझने लगा था, सीता से बातचीत से मुझमें मार्क्सवादी राजनैतिक अर्थशास्त्र की थोड़ी समझ आना शुरू हुई। सीता को श्रद्धांजलि देने वालों में कुछ लोगों ने गलत लिखा है कि वे आपातकाल में गिरफ्तारी के चलते पीएचडी नहीं कर पाए।

आपातकाल में सीताराम गिरफ्तार जरूर हुए थे, लेकिन जल्दी ही छूट गए थे। तीन बार जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहने के बाद सीपीएम की राष्ट्रीय राजनीति में उनका दखल बढ़ता गया और पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति में व्यस्तताओं के चलते वे पीएचडी पूरी न कर सके। उनकी प्राथमिकता पीएचडी पूरी करना न होकर पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति बन गयी।

1977 में आपातकाल खत्म होने के बाद डीपी त्रिपाठी जेल से छूटकर आए तो सभी विचारों के छात्रों ने छात्रसंघ के अध्यक्ष के रूप में उनका भव्य स्वागत किया। जेएनयू में अक्टूबर में चुनाव होते थे, त्रिपाठी जी और एसएफआई आपातकालीन छात्रसंघ की निरंतरता के पक्षधर थे।

फ्री थिंकर्स चुनाव के पक्षधर थे। चुनाव को लेकर जनमत संग्रह हुआ और चुनाव चाहने वालों की जीत हुई।

एसएफआई में अध्यक्ष पद की उम्मीदवारी के एक और दावेदार थे, दिलीप उपाध्याय (दिवंगत), त्रिपाठी जी के नेतृत्व में संगठन ने सीताराम की उम्मीदवारी पर मुहर लगा दी। फ्रीथिंकर उम्मीदवार एन राजाराम थे। पूरा परिसर सीताराम-राजाराम के हस्तलिखित पोस्टरों से भर गया।

बिना सरकार या विश्वविद्यालय प्रशासन की दखल के छात्रों द्वारा निर्वाचित चुनाव आयोग द्वारा चुनाव संचालन एक अनूठी बात लगी। जेएनयू छात्रसंघ के चुनाव के अनूठेपन की चर्चा की यहां गुंजाइश नहीं है, सीताराम भारी मतों से चुनाव जीत गए। अध्यक्ष का चुनाव सीधे होता था, बाकी पदाधिकारियों का चुनाव हर स्कूल से निर्वाचित पार्षद (कौंसिलर) करते थे।

अप्रैल 1977 में संपन्न इस छात्रसंघ का कार्यकाल अधूरा था, इसलिए अक्टूबर, 1977 के चुनाव में दुबारा सीता ही एसएफआई के अध्यक्षीय उम्मीदवार बने और जीते।

इसी छात्रसंघ के कार्यकाल में कैंपस में मार-पीट की एक घटना हुई, जिसे लेकर शाम से शुरू अगले दिन सुबह तक चली आमसभा (जीबीएम) के बाद हुए मतदान में छात्रसंघ का प्रस्ताव बहुमत से खारिज हो गया और नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए त्रिपाठी जी ने सीताराम की अध्यक्षता के छात्रसंघ के इस्तीफे की घोषणा कर दी।

उसके बाद के चुनाव में सीताराम फिर उम्मीदवार बने और जीते। इसी छात्रसंघ के कार्यकाल में छात्रसंघ के संविधान में संशोधन किया गया और सभी पदाधिकारियों का प्रत्यक्ष चुनाव होने लगा।

1980 में संगठन की कार्यप्रणाली को लेकर एसएफआई में टूट हो गयी, हम कुछ लोगों ने टूटकर अलग संगठन बनाया आरएसएफआई (रिबेल एसएफआई) और एसएफआई के बहुत लोग हमलोगों के प्रति कटुता पाल लिए, लेकिन सीता का बर्ताव मित्रतापूर्ण बना रहा।

राष्ट्रीय राजनीति में बड़े कद के बावजूद सीता जहां भी मिलते थे उसी तरह सहज मित्रता भाव से।

19 अगस्त को पहले दशक का जेएनयूआइट्स के व्हाट्सअप ग्रुप से पता चला कि, सीताराम येचुरी निमोनिया के इलाज के लिए आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) में भर्ती हुए। तब से ग्रुप में उनके स्वास्थ्य का सरोकार संवाद का मुख्य विषय बना रहा।

हम सब को उनके ठीक होने की उम्मीदें थीं, डॉक्टर भी उम्मीद दिला रहे थे। लेकिन 12 सितंबर को उनके देहांत की खबर ने हमारे होश उड़ा दिए। किसी करीबी, समकालिक की श्रद्धांजलि लिखना बहुत मुश्किल लगता है। उसके न होने की अनुभूति हृदय- विदारक होती है।

ऐसी ही मनोस्थिति 35 साल पहले जेएनयू के ही साथी, जनकवि गोरख पांडेय की श्रद्धांजलि लिखने में हुई थी, दुनिया को जागते रहने की गुहार लगाते-लगाते वे एक शाम पंखे से लटककर हमेशा के लिए सो गए और पीछे छोड़ गए, आने वाली पीढ़ियों के लिए क्रांतिकारी गीतों और कविताओं की समृृद्ध विरासत।

गोरख आमजन के जैविक जनकवि थे तथा सीताराम आमजन के जनतांत्रिक बुद्धिजीवी। वे अपनी पार्टी के सर्वोच्च नेता (महासचिव) और प्रमुख विचारक तथा सांप्रदायिक फासीवाद के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा की रणनीति के प्रमुख सिद्धांतकार थे।

उनके न रहने से फासीवाद विरोधी राजनीति में एक बौद्धिक रिक्तता तो पैदा ही हो गयी है। आजीवन जनहित की राजनीति करने के बाद अंत्येष्टि के कर्मकांड को धता बताते हुए कॉमरेड सीताराम येचुरी ने मरणोपरांत अपना पार्थिव शरीर मेडिकल छात्रों को शोध के लिए एम्स को दान कर दिया।

इन्हीं शब्दों के साथ कॉमरेड सीताराम येचुरी को श्रद्धांजलि और अंतिम लाल सलाम अर्पित करता हूं!

(ईश मिश्र दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे हैं)

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