Thursday, April 25, 2024

अतीक़ अहमद: राजनीतिक और प्रशासनिक विडंबनाओं का प्रतीक

यह शख़्स कई प्रतीकों का एक समग्र प्रतीक था। हर व्यक्ति की तरह इसकी कई पहचान थी। मगर, इसकी मुख्य पहचान अपराध से जुड़ी थी। वह ज़मीन और ज़ायदाद का लालची था। धमकाकर किसी की ज़िंदगी भर की दौलत आतंक के दम पर पल में हड़प लेता था। उसने कई सारे मर्डर किए थे। वह किसी समय किसी को भी धमका सकता था। कहीं भी और किसी की ज़मीन हड़प सकता था।

उसके दोस्तों में शायर और कवि थे, राजनीति के धुरंधर थे, पढ़े-लिखे लोग थे, उलेमा और मौलवी थे। उसने कइयों की शादी करवा दी थी; कइयों की तालीम के ख़र्च दिए थे; वह मुसलमान था;उसकी लफ़्ज़ों में क़ुरान की आयतों और सूरों की मिसालें होती थीं; कभी-कभी ख़ुद उलेमाओं की तरह तक़रीरें किया करता था; वह क़ुरान में दी गयी हिदायतों के ख़िलाफ़ करतूत करने वाला एक नाअमल मुसलमान था, मगर उसके गिरोह में सिर्फ़ आतंकी मुसलमान ही नहीं, आतंकी हिंदू भी थे, वह मस्जिदों के लिए ज़क़ात ही नहीं देता था, मंदिर बनवाने का इंतज़ाम भी किया करता था।

वह पिछले 42 सालों से हर रंग की हुक़ूमत का प्यारा था। रोज़-रोज़ संविधान के मूल्यों की धज्जियां उड़ाते लोगों का दुलारा था। उसके पास अपराधिक हैसियत का ऐसा डंडा था, जिसमें वह किसी भी विचारधारा का झंडा लहरा सकता था। शुरू में उसने उस डंडे में बिना किसी रंग का झंडा लगाए लहराया, बाद में उसने समाजवाद का लाल झंडा लहरा दिया। मौक़ा मिला तो समाजवाद को पराया बनाकर अपना दल का झंडा बुलंद कर दिया। इतने से संतोष नहीं हुआ, तो अपना दल ने उसे यूपी इकाई के अध्यक्ष की कुर्सी पर भी विराजमान कर दिया। वह कांग्रेस सरकार की नैया का बाहुबली पतवार भी था।

दुनिया के दादा अमेरिका के साथ परमाणु डील की बात आयी, तो कांग्रेस की नैया विश्वास मत के दरिया में डगमगाने लगी। जेल से बाहर लाकर छ: बाहुबली दादाओं में से एक दादा अतीक़ ने भी उस डगमगाती नैया की पतवार संभाल ली और यूपीए सरकार को अविश्वास प्रस्ताव के मंझधार से निकालकर विश्वासमत हासिल करने के किनारे तक लगाया था। यह दावा अपना नहीं, राजेश सिंह की किताब, “बाहुबलिज़ ऑफ़ इंडियन पॉलिटिक्स: फ़्रॉम बुलेट टू बैलट” में दर्ज है।

उसके रहते डराये गये लोगों को छोड़कर नागरिकों की ओर से कभी कोई सामूहिक मुख़ालफ़त नहीं हुई,क्योंकि वह मुख़्तलिफ़ पार्टियों का समाजवादी भी था। अगर उसे थोड़ा समय मिलता, तो वह अन्य ‘वादी’ भी हो सकता था। उसमें सबका साथ, सबका विकास का माद्दा भी था, यह ठीक है कि उसे इसका मौक़ा नहीं मिल पाया।

वह ज़िंदगी भर संविधान बचाने वालों के साथ मिलकर संविधान का पुर्जा-पुर्जा हिलाता रहा। क़ानून और संविधान से बनी संस्थाओं की दरों-ओ-दीवारों में उसकी रौब थी। जब वह तड़तड़ाती गोलियों से ठंढा पड़ गया, तब संविधान की गर्मी को उसके साथ पेश आने वाले क़ानूनी तरीक़े की याद आयी, मगर अतीक़ के 42 सालों के अपराध की यादें हुक़ूमत को होशमंद होने की हिदायत देती हैं कि वह न तो मर्द था, न वह फ़र्द था, न वह साहसी था, न बहादुर था, न तो ईमान वाला था, न वह मुसलमान था, वह एक ऐसा डरा हुआ इंसान था, जिसे ताज़िंदगी बुरी तरह डरी हुई इस देश की सियासत पालती रही, वोट देने वालों को ही वोट देने के लिए डराती रही, यक़ीन मानिए जब तक वह ज़िंदा रहा, संविधान को यह बात बुरी तरह सालती रही। आख़िर जब मारा गया, तब भी संविधान हुक़ूमत की सहूलियत के किसी तक्खे पर रख दिया गया, जहां लोकप्रियता रोशन होती है, मगर जहां संविधान का मूल्य खाक़ होता है। यानी जाते-जाते वह अपने नागरिक होने के हिस्से का संविधान भी खाते हुए गया।

(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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