बिहार मुसहर समुदाय: हमर जिंदगी तो ऐसे ही गुजर गईल, हमर बचवा का ऐसे ना गुजरी 

कुछ गज जमीन, जर्जर मकान, दिल्ली में काम करता पुरुष और खेत में काम करती महिलाएं! मुसहर समुदाय के जीवन नैया का बस यही आधार है। बिहार में सभी जाति की अलग-अलग पार्टी बन चुकी है। हम पार्टी के जीतन राम मांझी मुसहर समुदाय का नेता हो चुके हैं। इससे पहले इस समाज पर लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की पूर्ण राजनीतिक पकड़ थी। लेकिन किसी भी सरकार ने इस समुदाय के लिए कुछ भी नहीं किया। 

बिहार के सुपौल जिला स्थित वीणा, करिहो और लोकहा पंचायत के मुसहर बस्ती की लगभग यही कहानी थी। अधिकांश मुसहर समाज मोदी, लालू प्रसाद यादव, जीतन राम मांझी, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार को छोड़कर किसी भी नेता को नहीं पहचानते है। 

अधिकांश मुसहर बस्ती में औरतों के पिचके हुए गाल और नर-कंकाल सरीखे कुपोषित बच्चे दिख जाएंगे। अधिकांश घर में पुरुष दिल्ली और पंजाब मजदूरी करने जाता है। सुपौल के त्रिवेणीगंज प्रखंड के मटकुरिया गांव के रत्नेश सादा दिल्ली में मजदूरी करते है। वो बताते हैं कि “किसी नेता को नहीं जानते हैं। बस खेती वाला 6000 रुपये आता है। बेटा लोग को भी दिल्ली ले जाकर मजदूरी करवाएंगे। पढ़ने में मन नहीं लगता है उसका। चुनाव आते रहता है। इससे हम लोगों और हमारी जिंदगी को कोई फर्क नहीं पड़ता है।”

चेहरे पर मोटी झुर्रियां और फटी साड़ी पहने 65 वर्षीय बूधनी भरी आवाज में कहती हैं कि हमर जिंदगी तो ऐसे ही गुजर गईल। हम चाहते हैं कि हमर बचवा का ऐसे ना गुजरी।”

अनुसूचित जाति की तीसरी सबसे बड़ी आबादी सबसे पिछड़ी क्यों?

बिहार सरकार की जाति रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में मुसहरों की आबादी 40.35 लाख है, जो बिहार की कुल आबादी का 3.08 प्रतिशत है। उत्तरी बिहार में सादा और दक्षिणी बिहार में मांझी व राजवार, भुइया जनजाति से आने वाले समुदाय हैं। अगर इन तीनों को एक साथ मिला दिया जाए, तो यह बिहार में अनुसूचित जनजातियों में सबसे बड़ा हिस्सा हैं।

पूरी जाति में संख्या के हिसाब से देखें, तो ऊंची जाति के ब्राह्मण, राजपूत और शेख (मुस्लिम), पिछड़ा वर्ग के यादव व कुशवाहा तथा अनुसूचित जाति के दुसाध और चमार के बाद मुसहरों की आबादी सबसे ज्यादा है।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2007 में मुसहर समेत हाशिये पर खड़ी अन्य दलित जातियों को सशक्त करने के लिए महादलित विकास मिशन की स्थापना की थी। इसके बावजूद इसकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। 2010 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अनुसूचित जाति वर्ग समुदाय के भूमिहीन सदस्यों को 3 डिसमिल जमीन उपलब्ध कराने का वादा किया था। लेकिन ग्राउंड पर स्थिति बहुत हद तक नहीं बदली है। भूमि के कागजात प्राप्त करने वाले कई लोगों को अब तक निर्धारित जमीन पर कब्जा नहीं दिया गया है।

बिहार के 20.49 (1.57%) लाख सरकारी नौकरी में महज 10,615 (0.75) मुसहर सरकारी नौकरियों में है। वहीं संगठित निजी क्षेत्रों में सिर्फ 3903 (0.10 फीसदी) और असंगठित निजी क्षेत्र में 14,543 मुसहर कार्यरत हैं। 

इंदिरा आवास योजना के बावजूद मुसहरों की लगभग 45 प्रतिशत आबादी अब भी झोपड़ियों में रहने को मजबूर है। आंकड़ों के मुताबिक, मुसहरों के कुल परिवार का 54.56 प्रतिशत हिस्सा प्रत्येक महीने 6 हजार रुपये से भी कम कमाता है, जो अनुसूचित जाति समूह की किसी भी जाति के मुकाबले से सबसे ज्यादा आबादी है। 

आंकड़ों के मुताबिक मुसहर की स्थिति इतनी खराब होने के बावजूद राज्य के सबसे बड़े मुसहर जाति के नेता जीतन राम मांझी इस आंकड़े पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि मुसहर जाति की स्थिति इससे भी बदतर है। 

आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अलावा शोधश्री नाम के जर्नल के अप्रैल-जून 2018 अंक में “द मुसहर्स: ए सोशली एक्सक्लूडेड कम्युनिटी ऑफ बिहार” में लिखे रिसर्च के मुताबिक बिहार के अधिकांश मुसहर परिवारों के पास जमीन या दूसरी संपत्तियां नहीं होती हैं। उन्हें जमीन देकर घर बसाने की सरकार की कोशिश बिहार में सफल नहीं हुई है। साथ ही राज्य के महादलित आयोग के मुताबिक मुसहरों की साक्षरता दर देश में दलितों के बीच सबसे कम 9.8% है। वहीं मुसहर महिलाओं में साक्षरता दर 1% से भी कम है।

बिहार में जाति राजनीति पर काम कर रहे परमवीर बताते हैं कि, “90 से पहले सवर्ण जाति की स्थिति बेहतर थी। क्योंकि राजनीतिक हिस्सेदारी में यही जातियां थी। 90 के बाद मुख्य रूप से यादव और कुर्मी जातियों की संख्या में काफी सुधार हुआ। इसका श्रेय मुख्यरूप से लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार को जाता है। आने वाले वक्त में अति पिछड़ा जातियों की स्थिति में सुधार हो रहा है। दलितों में सबसे बेहतरीन स्थिति पासवान की है। इसका श्रेय रामविलास पासवान को जाता है।  सीधे अर्थ में कहे तो जब तक राजनीतिक हिस्सेदारी में जातियां नहीं जाएंगी उनकी स्थिति में सुधार नहीं हो सकता है। अन्य लोकसभा क्षेत्र की तुलना में गया के मुसहर की स्थिति थोड़ी ठीक है। जीतन राम मांझी ने मुख्यमंत्री कार्यकाल में वहां कुछ काम किया है। जीतन राम मांझी के अलावा दूसरा कोई मुसहर समुदाय का बड़ा नेता राज्य में नहीं है। जबकि संख्या की दृष्टिको से बड़ी जाति है।”

पहले मुसहर सांसद के घर तक सड़क नहीं

यादव का गढ़ कहलाने वाले मधेपुरा स्थित मुरहो गांव के किराई मुसहर मुसहर समुदाय के पहले सांसद बने थे। इसी गांव में मंडल आयोग के अध्यक्ष बीपी मंडल का भी जन्म हुआ था। 

मुरहो गांव और पूरे मधेपुरा में  बीपी मंडल के परिवार की राजनीतिक हैसियत आज भी देखने को मिलती है। बीपी मंडल के पिता रास बिहारी मंडल इलाके के बहुत बड़े जमींदार थे। बीपी मंडल के पोता निखिल मंडल जदयू के एक बड़े नेता हैं वहीं इसी गांव में 1952 में सांसद पहुंचने वाले मुसहर जाति के पहले व्यक्ति किराई मुसहर का घर गांव के दक्षिणी हिस्से में है। जहां तक अभी भी सड़क नहीं पहुंची है।

गांव के सरयू ऋषि देव बताते हैं कि, “हम दलितों के नाम पर राजनीति होने के बावजूद, हमें कुछ मिलता है? कुछ नहीं। सरकारी जमीन पर मेरे पास रहने के लिए घर है। राज्य और क्षेत्र के सभी बड़े नेता मंडल जी के दरवाजे पर तो जाते हैं लेकिन किराई मुसहर जी के यहां कोई झांकने भी नहीं आता है।”

किराई मुसहर के पोते उमेश के मुताबिक सांसद किराई मुसहर ने पहली बार बुधमा के अत्यंत गरीब व भूमिहीन घंटिन दास को सरकारी भू-खंड का आवंटन कराकर उनके लिए फूस व टाली का घर बनवाया था। यही योजना बाद की इंदिरा सरकार में इंदिरा आवास योजना बनी थी। 

(बिहार से राहुल की रिपोर्ट)

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