ग्राउंड रिपोर्ट: स्वच्छ भारत मिशन के तहत बने शौचालयों के बावजूद क्यों खुले में शौच कर रहे लोग!

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सागर। ग्रामीण स्वच्छ भारत मिशन 2 अक्टूबर, 2014 को शुरू किया गया था। इस मिशन का उद्देश्य 2 अक्टूबर, 2019 को पूरे देश को खुले में शौच से मुक्त (ओपीडीएफ) का सिद्धांत देना था। मिशन के तहत सभी ग्रामीण परिवारों को शौचालय की सुविधा उपलब्ध कराने का प्रस्ताव रखा गया।

स्वच्छ भारत मिशन ग्रामीण (एसबीएम-जी) के अंतर्गत, ज़रूरतमंदों, गरीब परिवारों के लिए घरेलू शौचालय (आईएएचएचएल) के निर्माण के लिए 12,000 रुपये की प्रोत्साहन राशि प्रस्तावित की गयी। 

सरकार ने अच्छी सोच के साथ स्वच्छ भारत के निर्माण हेतु, स्वच्छता मिशन का आगाज किया था। साल 2014 से भारत सरकार ने यूनिसेफ़ की साझेदारी में खुले में शौच मुक्त लक्ष्य तक पहुंचने में उल्लेखनीय प्रगति की। जनवरी 2020 की स्थिति के अनुसार 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के 706 जिलों और 603,175 गांवों को खुले में शौच मुक्त घोषित कर दिया गया है। 2014 से अब तक लगभग 50 करोड़ लोगों ने खुले में शौच करना बंद कर दिया। 

लेकिन, ग्रामीण स्तर पर‌ आज भी आबादी का एक बड़ा हिस्सा सरकारी शौचालयों से वंचित रह गया है। वहीं, 12,000 हजार रुपए की राशि से बने बहुत से शौचालयों की हालत जर्जर है। इसका उदाहरण मध्यप्रदेश में सागर जिले के कई गांव हैं। जहां हमने सरकारी शौचालयों की स्थिति को जाना-समझा। सागर से करीब 30 किलोमीटर दूर सुरखी थाना क्षेत्र है। पहले हम सुरखी पहुंचे। सुरखी में बाजार से सटी एक बस्ती है। इस बस्ती में क़रीब 100 झुग्गी-झोपड़ी बनी होगी। झुग्गी-झोपड़ी के निवासी ग़रीबी में जीवन जी रहे हैं। निवासियों को अब तक सरकारी शौचालयों का लाभ भी नहीं मिला।  

शौचालय में दरवाजा और छत ही नहीं है

जब झुग्गी-झोपड़ी वालों से मुलाकात कर हमने, शौचालय का लाभ ना मिलने से क्या-क्या परेशानी भोगनी पड़ती है? इस विषय पर चर्चा की। 

तब इस चर्चा में प्रशांत बताते हैं कि, ‘हमारी बस्ती में ज्यादातर सरकारी सुविधाओं का लाभ नहीं दिया गया है। वहीं, सरकारी शौचालय जैसी मूलभूत सुविधा भी हम बस्ती वालों को नहीं दी गयी। बस्ती में सरकारी शौचालय ना‌ बनवाया जाना यह दर्शाता है कि, हम खुले में शौच से मुक्त नहीं हो पाये हैं।

आगे अपने शब्दों को बयां करती हैं शारदा बाई आदिवासी। वे बताती हैं कि, ‘शौचालय ना होने से हमें बस्ती को घेर कर और दूर खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है। खुले में शौच करने में बड़ी दिक्कत होती है। हमारी बस्ती की 18-20 साल की जवान लड़कियां भी खुले में शौच करने को मजबूर है।

शारदा आगे बोलती हैं कि, ‘जब खुले में शौच करते वक्त कोई शख्स हमारे पास से गुजरता है, तब हमें बार-बार शर्म की वजह से खड़े होना पड़ता है। ऐसे में शौच की स्थिति में जब बार-बार खड़े होते हैं, तब शौच में ही हमारा एक-डेढ़ घंटा बर्बाद हो जाता है। खुले में शौच के दौरान हम लज्जित अगल‌ से होते हैं। शर्म के मारे हम शौच जाने के लिए तब उठते हैं, जब सुबह अंधेरा होता है। वहीं, शाम जब सूरज ढल जाता है और अंधेरा होता तब शौच के लिए जाते हैं।

रश्मि रैकवार अपना दुख बताते हुए कहती है कि, ‘यहां रहने वाले सभी झोपड़ी-झुग्गी वाले गरीबी और संसाधनहीनता के शिकार हैं। मुश्किल से हम पेट भर पाते हैं। हम शौचालय नहीं बनवा‌ सकते। यहां मुझ सहित कई लोगों को सरकारी राशन भी नहीं मिलता। मैं दूसरे के घर वर्तन साफ‌ करती हूं‌, तब पेट भर पाती हूं। खुद शौचालय बनवाने के बारे मैं कैसे सोच सकती हूं?, 

रश्मि आगे दर्द भरे लहजे में बोलती हैं कि, ‘हम लोग पचासों साल से यहां निवास करते आ रहें हैं। लेकिन, हमारे निवास स्थल को अब आर्मी एरिया बताया जा रहा है। इसलिए भी हमें किसी भी तरह की सुविधाएं नहीं दी जा रही हैं। 

आगे हम कुछ ही कदम चले की हमें सरोज रानी आदिवासी मिलती है। अपने बारे में बताते हुए वे कहती हैं कि, ‘शौचालय और आवास का अब तक लाभ नहीं मिला। आज की स्थिति यह है कि, पैसा नहीं तो कुछ नहीं। पैसा होने से इंसान की सुनवाई जल्दी होने लगती है। बिना पैसे के हम गरीबों की भला कौन‌ सुनता है।

सरोज रानी से कुछ दूर खड़े दिखते हैं हमें भगवान दास। बात करने पर उन्होंने बताया कि,‌ ‘हमारा भी शौचालय नहीं बना है। सरकार शौचालय नहीं बनवा सकती, तब मजदूरी ही दिला दे। यहां कोई काम नहीं मिल रहा। हमारे पास कोई काम होता, तब हम खुद शौचालय भी बनवा लेते और घर भी बनवा लेते। हमारा विकास तभी होगा जब हमें अच्छा काम मिलेगा। 

आगे कच्ची सड़क के पास कुछ लोग हमें मिलते हैं। जिनमें बसंती और लखन सहित कई अन्य जन बताते हैं कि, ‘हमारी बस्ती में यह जांच-पड़ताल तक नहीं होती है कि, बस्तीवासी किस हालात में जी रहे हैं। इसकी भी जांच नहीं हुई कि इनके पास सरकारी शौचालय क्यों नहीं पहुंचा? और इनके लिए क्या खुले भी शौच के लिए कोई व्यवस्था है या नहीं। नेताओं के भाषण में हमें सुनने मिलता है कि, देश खुले में शौच मुक्त हो गया। लेकिन, शौचालय से वंचित और खुले में शौच करते लोग कैसे स्वीकार लें की देश‌ खुले में शौच मुक्त हो गया।, 

सुरखी थाना‌ से जब हम अपने कदम आगे बढ़ाते हैं, तब सुरखी से सटे बरखुआ तिवारी गांव पहुंचते हैं। गांव की आबादी तकरीबन 800 होगी। पठार पर बसा यह गांव‌ पिछड़ेपन का शिकार है। लोगों के कच्चे घर‌ जर्जर अवस्था में हैं। 

बरखुआ गांव की औरतें शौचालय न होने की पीड़ा बयान करती हुईं

गांव‌ में जब हम प्रवेश करते हैं तब एक चबूतरे के पास कुछ लोग हमें बैठे दिखाई देते हैं। इन‌ लोगों से स्वच्छता मिशन के तहत बने शौचालयों की स्थिति को लेकर जब हम बातचीत करते हैं। 

तब इस बातचीत में एक शख्स अपना नाम नहीं बताते, लेकिन वह हमें बताते हैं कि, ‘सरकारी शौचालय के नाम पर हमें आश्वासन ही मिलता है। हमें बरसात के मौसम में सबसे ज्यादा खुले में शौच करने में दिक्कत होती है। खेतों में फसलें लगी होती है। जहां-तहां कीचड़ पसरा होता है। रास्तों के आसपास और कीचड़ में हम शौच करने को विवश हो जाते हैं।,

इसके पश्चात हेमराज पटेल बताते हैं कि, ‘मेरा तो शौचालय नहीं बना है। मगर, मेरे माता-पिता का सरकारी शौचालय बना है। तब शौच के लिए मैं अपने माता-पिता का शौचालय उपयोग करता हूं।,

आगे हेमराज फ़रमाते हैं कि, ‘सरकार द्वारा बनवाये गये शौचालय बहुत छोटे हैं। शौचालयों के गड्ढे भी छोटे हैं। ऐसे में शौचालयों के गड्ढे जल्द  भरने, दरकने और फटने देखने मिलते हैं। कुल मिलाकर शौचालय की राशि थोड़ी और बढ़ाई गयी होती। साथ में शौचालय ढंग से निर्मित किये गये होते, तब सही मायनों में शौच के लिए उनका उपयोग हो पाता।, 

शौचालय न होने की तकलीफ बताते गांव के लोग

गांव‌ की कच्ची और संकरी गली हमें गांव के और भीतर ले जाती है। तब हमें अपने कच्चे घर के बाहर खड़े मिलते हैं प्रताप गोंड आदिवासी। बातचीत के दौरान प्रताप हमें बताते हैं कि, ‘गांव में ज्यादातर व्यक्ति शौचालय का उपयोग नहीं कर रहे हैं। वजह है कि, शौचालय खराब स्थिति में है। पानी की समस्या भी एक कारण है। गांव में शौचालय को सही तरह से नहीं बनवाया गया। कुछ शौचालय गड़बड़ बने, तब वह गिर भी गये। कुछ चोक हो गये। कुछ की हालत जर्जर है।,

प्रताप हमें अपना शौचालय भी दिखाते हैं। उनके शौचालय पर छप्पर नहीं ढला। ना ही शौचालय का गड्ढा सही तरह बनाया गया। ऐसे में वह शौचालय का उपयोग ही नहीं कर पाए। 

प्रताप के घर के निकट ही आशा रानी का कच्चा घर बना है। जब हम आशा रानी से मिले तब उन्होंने हमें बताया कि, ‘हमारा सरकारी शौचालय तो बना है, मगर आधा ही बना है। हमने सरपंच-सचिव से कहा भी कि, शौचालय पूरा बनवा‌ दीजिए तब हमें जवाब मिला की बन जायेगा‌। मगर, अब तक बना नहीं है। हमारे आस-पास बहुत घर‌ बन‌ गये हैं। जिससे खुले में शौच करने‌ के लिए जगह कम बची है। ऐसे में ‌ हमें शौच के लिए जाने में बहुत परेशानियां होती है।  

आशा रानी के घर उनकी सहेली कुंअर बाई भी आयी हुई थीं। वे अपना हाल बयां करते हुए कहती हैं कि, ‘हमारा घर बहुत कच्चा है। ना हमें आवास का लाभ दिया और ना शौचालय का। हमें राशन तक नहीं दिया जाता है। हमारी जिंदगी की चुनौतियां बहुत है। सरकार से हम को कुछ तो मिलना चाहिए।, 

योजना का लाभ न मिलने का दर्द बताती औरतें

आशा रानी के घर से निकलकर हम आगे जाते हैं तब कुछ बच्चों के साथ एक युवती दुर्गा हमें मिलती हैं। दुर्गा हमसे कहती हैं कि, ‘हमारा और हमारे आस-पास के लोगों का शौचालय नहीं बना है। मैं और मेरे आस-पास की कई लड़कियां पढ़ाई करती हैं। हम पोस्टर पर, किताबों पर स्वच्छता के बारे में पढ़ते हैं। मगर, जब हम गरीबों के घर सरकारी शौचालय ही नहीं बना तो हम स्वच्छता का पालन कैसे करें?

दुर्गा आगे बोलती हैं कि, ‘स्वच्छता मिशन के तहत बन रहे शौचालयों का ढंग से क्रियान्वयन भी नहीं हुआ। ग्रामीण स्तर पर शौचालयों की हालत खराब है। ऐसे में समझ नहीं आता कि, स्वच्छता मिशन सफल कैसे हो सकता है? वहीं, जिन गरीबों को सरकारी शौचालय का लाभ नहीं मिला, वह खुले में शौच से कब मुक्त होंगे? 

आगे हम अपना रुख हफसिली गांव की तरफ करते हैं। बरखुआ तिवारी गांव से हफसिली गांव सटा हुआ है। दोनों गांव‌ के बीच की दूरी करीब 2 किमी है। हफसिली गांव पहुंचने के बाद हमें मालूम चलता है कि, गांव की आबादी अंदाजे से 2000 होगी‌। कीचड़ से सनी गांव‌ की सड़कें विकास की दशा को स्पष्ट करती हैं। 

हफसिली गांव में संवाद करते लोग

गांव‌ में भीतर की ओर जाने पर हमें अमर सिंह पेड़-पौधे के आस-पास का कचरा साफ करते दिखते हैं। पास पहुंचते हैं तब अमर सिंह शौचालय को लेकर कहते हैं कि, ‘सरपंच-सचिव मेरी गरीबी की हालत से वाक़िफ़ है। इसके बावजूद मुझे शौचालय का लाभ नहीं दिया गया। मैं बूढ़ा व्यक्ति अपने कच्चे घर में रहता हूं। परिवार भूखा ना रहे इसलिए हमारा एकलौता बेटा बाहर कमाने गया है।

अमरसिंह आगे बोलते हैं कि, ‘शौचालय न होने से दिन‌ हो या रात शौच के लिए हमें बाहर जाना पड़ता है। मुझ जैसे गांव में पचासों लोग होंगे, जिनके शौचालय नहीं बने हैं। ये लोग भी खुले में ही शौच करते हैं। 

अपने कच्चे घर के सामने बैठे अमर सिंह

आगे कीचड़ से खचाखच भरी सड़क के पास हमें ब्रजेश मिलते हैं। वे जिक्र करते हैं कि, ‘हम चार भाई हैं। चार भाइयों में से किसी का भी शौचालय नहीं बनवाया गया। हमारा परिवार बाहर ही शौच को जाने के लिए मजबूर है। मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूं, जिनके सरकार की तरफ से शौचालय नहीं बनवाये गये। इनमें जो लोग सक्षम थे, उन्होंने घर‌ से शौचालय बनवाये हैं। बाकी लोगों के पास शौचालय नहीं है। 

शौचालय न मिलने की स्थिति बताते हैं ब्रजेश

ब्रजेश बेनी बाई के घर की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि, उनका सरकारी शौचालय बना है लेकिन आधा ही बना है। 

जब हम बेनी‌ बाई के घर‌ जाकर उनके‌ शौचालय को देखते हुए उनसे बात करते हैं, तब बेनी बाई कहतीं हैं कि, ‘अधबने शौचालय का गड्ढा हमें खुद खोदना पड़ा है। गड्ढा में लगाने के लिए ईंट, सीमेंट, रेत जैसा मटेरियल हमें खुद खरीदना पड़ा। जिसके लिए हमें एक रुपए नहीं दिया गया। सिर्फ कहने को हुआ है कि, सरकार ने शौचालय बनवाया है। पैसा हमारा खुद का भी लगा है।  

बेनी बाई जिन्होंने खुद का पैसा लगाकर शौचालय बनवाया

आगे हम रामदयाल गोंड आदिवासी से रू-ब-रू होते हैं। रामदयाल का कहना है कि, ‘शौचालय नहीं था तब हमें दूसरों की जगह, खेत पर खुले में शौच के लिए जाना पड़ता था। ऐसे में कई बार लड़ने-झगड़ने के हालात बन जाते थे। काफी इंतजार के बाद‌ जब सरकारी शौचालय नहीं बना और खुले में शौच के लिए लड़ना-झगड़ना हमसे बर्दाश्त नहीं हुआ, तब हमने खुद ही शौचालय बनवा लिया। 

इसके आगे गांव में बने सरकारी शौचालयों की बदहाली तुलसीराम बख़ूबी बयां करते हैं। तुलसीराम काछी कहते हैं कि, ‘सरकार द्वारा बनवाये गये कई लोगों के शौचालय में गेट नहीं लगा, गड्ढा नहीं खुदा, छप्पर नहीं डला। ऐसे में कैसे कोई शौचालय का उपयोग कर सकता है? गांव में देखने में लगता है कि, सरकारी शौचालय बनवाने का नाम बस किया गया है। ताकि, यह पता चल सके कि सरकारी शौचालय बनवाये गये हैं। 

शौचालय पर चर्चा करते प्रशांत औऱ देवेंद्र

गांव के एक चौराहे से कुछ दूर हमें धर्मेंद्र गोंड आदिवासी का कच्चा घर मिलता है। घर के‌ बाहर धर्मेंद्र अपने परिवार जनों से गुफ्तगू करते नजर आते हैं। 

जब हम धर्मेंद्र से सरकारी शौचालयों पर चर्चा करते हैं, तब वह कहते हैं कि, ‘हमारे परिवार में हम पांच भाई हैं। पांच भाइयों में किसी का भी शौचालय नहीं बना है। माता-पिता का अधूरा ही सरकारी शौचालय बनवाया गया है। हम बहुत गरीबी में जीवन जी रहे हैं। हमारे घर‌ कच्चे बने हैं। घरों की दीवारें खिसक रही है। हमारे पास इतने पैसों की व्यवस्था नहीं कि हम खुद का शौचालय और घर बनवा सके।

अधूरा बना शौचालय

गांव के अंत में हमें रामचरन और भभूदे अहिरवार मिलते हैं। भभूदे रामचरन के पिता हैं। पिता और बेटा बताते हैं कि, ‘यहां लोगों के जीवन-यापन में बुनियादी सुविधाएं रोड़ा बनी है। सड़क, पानी, आवास, जैसी कई सुविधाओं की कमी है। जिनमें बेहद जरूरी सुविधा शौचालय भी है। शौचालय ना होने से लोग खुले में शौच करते हैं, जिससे ना सिर्फ धरती गंदी होती है बल्कि बड़ी-बड़ी बीमारियां भी जन्म लेती हैं। 

अपने पक्के घर के सामने बैठे शौचालय पर बात करते रामचरण

आगे वे कहते हैं कि, ‘बरसात के इस मौसम में खुले में शौच करते समय सर्प, जहरीले कीड़े, मच्छर अन्य के काटने का खतरा बना रहता है। शौच के वक्त जीव-जंतु के काटने से कोई मरता है,‌ तब इसका जिम्मेदार कौन‌ होगा? सरकार यदि ढंग‌ से शौचालय बनवाती और‌ सबको शौचालय मिलता तब ऐसी मुसीबतों के आने का खतरा नहीं होता। 

जब स्वच्छता मिशन के तहत बने शौचालयों की स्थिति और आंकड़ों की तरफ हम ध्यान देते तब ज्ञात होता है कि, मध्यप्रदेश में 2014 के बाद 50 हजार से ज़्यादा गांव में तक़रीबन 90 लाख 56 हजार शौचालय बनाए गए। सर्वे से विदित हुआ कि लगभग 4 लाख 50 हजार घरों में शौचालय है ही नहीं। साथ ही 5 लाख 50 हजार ऐसे शौचालय सामने आए, जो किसी काम के ही नहीं थे।

डब्ल्यूएचओ के अनुसार एसबीएम से जान बचती है। 2018–2014 की तुलना में 2019 में डायरिया से 3 लाख मौतें टाली गईं। अक्टूबर 2019 तक 6 लाख से ज़्यादा गांवों खुले में शौच से मुक्त हुए हैं। एसबीएम (जी) चरण-II का कुल अनुमानित परिव्यय 1.40 लाख करोड़ रुपये है। 

वर्ष 2014-15 और 2021-22 के बीच, केंद्र सरकार ने स्वच्छ भारत मिशन ग्रामीण को कुल 83,938 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं। वर्ष 2023-24 में 52,137 करोड़ रुपये आवंटित किए गए है। वहीं, पिछले नौ वर्षों में 12 करोड़ शौचालय बनाए गए हैं। 

सोचनीय है कि, स्वच्छ भारत के निर्माण हेतु शौचालयों को निर्मित करना एक अच्छी पहल थी। मगर, ज़रूरतमंदों को शौचालय ना मिलना और शौचालयों का सही क्रियान्वयन ना होना, सब किये-कराए पर पानी फेर देता है। ऐसे में लोग खुले में शौच मुक्त नहीं हो पाते हैं। 

(सतीश भारतीय स्वतंत्र पत्रकार हैं, वह मध्यप्रदेश के सागर में रहते हैं)

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