जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद टैगार ने नाइटहुड लौटाई थी, लेकिन सावरकर ने सम्राट से दया मांगी थी

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बार कविवर रबींद्रनाथ टैगोर की पहले जैसी याद नहीं आई। गुरुदेव का जन्मदिन सरकार, सत्ताधारी पार्टी और उसके पितृसंगठन आरएसएस की स्मृतियों में आए ज्यादा शोर मचाए बगैर निकल गया। ऐसे अवसरों पर सरकारी श्रद्धांजलियों का उतना अर्थ भी नहीं है। मेरा मतलब उस शोर से है जो प्रधानमंत्री तथा उनके समर्थक पश्चिम बंगाल के चुनावों के पहले गुरुदेव और नेताजी को लेकर मचा रहे थे। वे उन्हें दूसरे दलों खासकर तृणमूल कांग्रेस से छीन कर संघ परिवार के खेमे में लाने की मुहिम चला रहे थे। उन्होंने अपनी दाढ़ी को टैगोर वाली दाढ़ी का लुक दे दिया था। गुरुदेव की पंक्तियों को उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर दोहराया था।

प्रधानमंत्री, भाजपा और आरएसएस को गुरुदेव भले ही याद न आएं, हमें उन्हें याद करने की जरुरत है, खासकर उस समय जब प्रधानमंत्री भारतीय राष्ट्रवाद के उस रूप को लेकर मैदान में उतर आए हैं जो नाजीवाद से मिलता-जुलता है। बात सिर्फ इतनी नहीं है कि यह अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने पर तुला हुआ है, प्रधानमंत्री जिस राष्ट्रवाद का झंडा लेकर घूम रहे हैं, वह हमें अंधविश्वास की ओर ले जाने वाला तथा धर्म की आध्यात्मिकता को प्रतिशोध की अग्नि में बदलने वाला है।

यह कविवर की कल्पना के भारत से कोसों दूर है ही, स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा को समाहित करने वाले संविधान की धज्जियां उड़ा रहा है। यह विचारधारा विनायक दामोदर सावरकर की हिंदुत्व की विचारधारा से प्रेरित है। इसके विपरीत टैगोर की विचारधारा मानवतावाद की थी जो किसी तरह की संकीर्णता के खिलाफ थी। चुनावी लाभ की बात और है, मोदी तथा भाजपा को देर-सवेर टैगोर को छोड़ना ही था।

कवींद्र रबींद्र ने बंगाल के विभाजन तथा स्वदेशी आंदोलन के बाद से ही अपने को संकीर्ण राष्ट्रवाद से अलग कर लिया था। हालांकि उस आंदोलन में उन्होंने पूरे उत्साह से भाग लिया था। इस परिघटना को महान फिल्मकार सत्यजीत रे ने टैगोर के जीवन पर बनाई अपनी डॉक्युमेंटरी फिल्म में बहुत ही बारीकी से रेखांकित किया है। उन्होंने दिखाया है कि किस तरह बंगाल के विभाजन के विरोध में सड़क पर उतरी बंगाल की जनता के बीच कविवर देशभक्ति के गीत गा रहे थे और अपनी लोकप्रियता के चरम पर थे।

वह बंगभंग आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध थे और सामूहिक रक्षाबंधन के कार्यक्रम को सफल बनाने में पूरी ताकत लगाई थी। लेकिन 1913 आते-आते राष्ट्रवाद के इस रूप से उनका मोहभंग होने लगा। इसकी वजह थी यूरोप में उभरा संकीर्ण राष्ट्रवाद और दुनिया पर मंडरा रहे प्रथम विश्वयुद्ध के काले बादल। वह राष्ट्रवाद को मानवता का दुश्मन मानने लगे और इसकी तीखी आलोचना करने लगे। उनके विचारों में हुआ यह परिवर्तन 1917 में छपी उनकी किताब ‘राष्ट्रवाद’ में स्पष्टता से अभिव्यक्त हुआ है।

वह लिखते हैं- ‘‘मैं किसी एक खास राष्ट्र के खिलाफ नहीं हूं, बल्कि सभी राष्ट्रों को लेकर जो सामान्य समझ है, उसके खिलाफ हूं। राष्ट्र क्या है? यह सभी लोगों की एक संगठित शक्ति का रूप है। यह संगठन लोगों को मजबूत और कुशल बनाने पर निरंतर जोर डालता है। ताकत और कौशल पाने के लिए होने वाली यह कोशिश अपने के त्याग करने तथा सृजन की मनुष्य की उच्चस्तरीय प्रकृति की ऊर्जा को नष्ट कर डालती है। लेकिन, मनुष्य इसमें नैतिक उन्नयन की सारी संतुष्टि महसूस करता है और इसलिए यह मानवता के लिए अत्यंत खतरनाक बन जाता है।’’

वह लिखते हैं, ‘‘लोग, जिन्हें स्वतंत्रता प्रिय है, राष्ट्र के इस औजार के सहारे दुनिया के बड़े हिस्से में गुलामी को गौरवपूर्वक टिकाए रखते हैं। उन्हें लगता है उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया है। लोग स्वभाव से न्यायप्रिय होते हैं, लेकिन अपने व्यवहार और विचार, दोंनों में क्रूरतापूर्ण ढंग से अन्यायी बन सकते हैं। आदमी ईमानदार होते हैं, लेकिन अपनी आत्मतुष्टि के लिए आंख मूंद कर दूसरों के मानवाधिकार छीन लेते हैं। साथ ही, पीड़ित को दोष भी देते रहते हैं कि वे अच्छे व्यवहार के लायक नहीं हैं।’’

टैगौर के ये विचार आज अत्यंत प्रासंगिक लगते हैं जब हम मौजूदा राजनीति पर नजर दौड़ाते हैं। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री समेत सत्ताधारी पार्टी का हर नेता मुसलमानों को आतंकवादी और अपराधी के रूप में चित्रित करता नजर आता है। उत्तर प्रदेश में अतीक अहमद तथा उसके परिवार का सफाया जिस शोर-शराबे के साथ किया गया और मानवाधिकारों की पूरी तरह धज्जियां उड़ा दी गईं। कानून के राज की जगह राज्य की बेरोकटोक हिंसा की वकालत की जा रही है। हिंदू राष्ट्रवाद का यही स्वरूप कर्नाटक के चुनाव प्रचार में भी दिखाई पड़ा। इसमें नागरिकता कानून और नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजनशिप जैसे मुद्दे उठाए गए जिनका इस राज्य से कोई लेना-देना नहीं है। ये दोंनों मुद्दे अल्पसंख्यकों को नागरिकता से वंचित करने के अभियान के हिस्सा हैं।

राष्ट्रवाद की इस आलोचना के पीछे गुरूदेव का उद्देश्य यूरोपीय राष्ट्र राज्यों के उस स्वरूप का विरोध करना था जो मानवता के एक बड़े हिस्से को गुलाम बनाए हुए था और जिसने एक अमानवीय संसार को जन्म दिया था। अपनी आलोचना में वह नस्लवाद और तमाम तरह के अत्याचारों का अपना निशाना बनाते हैं। इसमें वह भारतीय समाज की असहिष्णुता की भी जमकर आलोचना करते हैं। वह कहते हैं कि भारत की सभ्यता ने विविधता को बहुत कुशल तरीके से अपनाया और विभिन्न नस्लों तथा समुदायों को अपनी धारा में समाहित कर लिया। उसने अमेरिका जैसे मुल्कों की तरह दूसरे नस्लों के लोगों का सफाया नहीं किया। लेकिन जाति ने एक ऐसी कठोर व्यवस्था को जन्म दिया है, जिसने लोगों को अत्यंत कठोर घेरे में बंद कर दिया है। वह इस व्यवस्था को मानवीय विकास में बहुत बड़ी बाधा बताते हैं।

वह विविधता के साथ एक बहाव की वकालत करते हैं। एक अबाधित प्रवाह। वह आध्यात्मिक विेकास के पक्ष में थे, लेकिन अंधविश्वास में चिपटे रहने के खिलाफ थे। उनका मानना था कि जाति की व्यवस्था ने केवल संकीर्णता ही नहीं पैदा की है बल्कि लोगों के गुणों को भी कम कर दिया है। वह कहते हैं कि जाति व्यवस्था ने कला को शिल्प और प्रतिभा को कौशल में तब्दील कर दिया है।

वह राजनीतिक आजादी पर जोर देने के बदले मानवता के सर्वोच्च गुणों से संप्पन्न भारतीय राष्ट्र की कल्पना करते हैं जो संकीर्णता और अमानवीयता से मुक्त होगा। वह कहते हैं कि हम स्विट्जरलैंड जैसे लोकतंत्र का उदाहरण अपनाना चाहते हैं लेकिन भूल जाते हैं कि वहां के लोग एक दूसरे के साथ वैसी शारीरिक नफरत नहीं रखते हैं जैसी हमारे यहां विभिन्न जातियों के बीच है। जाहिर है गुरुदेव का इशारा अस्पृश्यता की ओर था।

इतिहास को देखने के उनके नजरिए पर भी गौर करना अत्यंत जरूरी लगता है जब हम देखते हैं कि हिंदुत्ववादी इतिहास से एक पूरे कालखंड, मुगल काल, को गायब करने पर आमादा हैं। वह राष्ट्रवादियों की इस सोच की जम कर आलोचना करते है जिसमें हमारी वर्तमान दुर्दशा के लिए हमारी सामाजिक व्यवस्था की खामियों को दोष नहीं दिया जाता है। वह इस सोच पर तीखा प्रहार करते हैं जिसमें ऐसा माना जाता है कि हमारे पूर्वजों के पास अलौकिक शक्ति थी और उन्होंने ऐसी उत्तम सामाजिक व्यवस्था बनाई है जो अनंत काल के लिए उपयुक्त है।

टैगोर कहते हैं कि इसी सोच के कारण हम अपनी सारी दुर्गतियों और कमियों के लिए बाहर से अचानक हुए हमलों को जिम्मेदार ठहराते हैं। लेकिन राष्ट्रवाद की संकीर्ण अवधारणा का टैगोर का विरोध उन्हें आजादी के आंदोलन से अलग नहीं कर पाया और इसके उलट राष्ट्रवाद झंडा उठाने का दावा करने वाले हिदुत्ववादी अंग्रेजों का साथ दे रहे थे। जब राष्ट्र के लिए त्याग का वक्त आया तो गुरुदेव पीछे नहीं हटे। जालियांवाला बाग नरसंहार ने टैगोर को अंदर से हिला दिया था और उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के सबसे बड़े सम्मान नाइटहुड यानि सर की उपाधि को लौटा दिया।

टैगोर पंजाब में चल रहे दमनचक्र की हर जानकारी ले रहे थे। लाहौर के वैज्ञानिक तथा स्वतंत्रता सेनानी रूचिराम साहनी यह जानकारी पंजाब के कांगेस नेता बनवारीलाल चौधरी की मार्फत उन तक पहुंचा रहे थे। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखिका मैत्रेयी देवी ने टैगोर की उन दिनों की मनोदशा के बारे में लिखा है। उन्होंने अपनी पीड़ा का बयान करते हुए उनसे कहा था- “अगर मैंने कुछ नहीं किया तो जी नहीं पाऊंगा।’’

टैगोर ने नाइटहुड समेत सभी सम्मानों को लौटाते हुए वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड को एक ऐतिहासिक पत्र लिखा है, जिसमें उनकी पीड़ा अभिव्यक्त हुई है। इस पत्र की कापी शातिनिकेतन के अभिलेखागार में प्रदर्शित है। जालियांवाला बाग की घटना 13 अप्रैल,1919 को घटी थी और सवा महीना भी नहीं बीता कि 31 मई, 1919 को उन्होंने वायसराय को नाइटहुड लौटाने का पत्र लिखा- एक स्थानीय अशांति को कुचलने के लिए पंजाब सरकार ने जितना बड़ा कदम उठाया उससे हमें गहरा धक्का लगा है। इस घटना से हमारा दिमाग साफ हो गया है ब्रिटिश साम्राज्य की प्रजा के कारण हम कितने लाचार हैं।

उन्होंने लिखा कि सभ्य शासन के इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता है। उन्होंने लिखा, ‘‘यह देख कर कि निहत्थे और विपन्न लोगों पर उस शक्ति ने ऐसे सलूक किया है जिसके पास लोगों की जान लेने का अत्यंत कुशल तंत्र है, हमें यह मजबूती से कहना चाहिए कि इससे न कोई राजनीतिक फायदा मिलेगा और न ही नैतिक औचित्य।’’

आज के दौर में मीडिया के रवैए को देख कर यह जरूरी लगता है कि गुरूदेव ने जालियांवाला बाग के बारे में भारत के अंग्रेजी अखबारों के रवैए की कस कर आलोचना की है। उन्होंने अपने पत्र में लिखा है, ‘‘भारत के ज्यादातर अंग्रेजी अखबारों ने इस क्रूरता की प्रशसा की है और कुछ ने तो हमारी तकलीफ का विस्तारपूर्वक मजाक उड़ाने की निर्दयता भी दिखाई है, लेकिन हुक्मरानों ने इसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की। टैगोर लिखते हैं कि वह बहुत थोड़ा यही कर सकते हैं कि अपने लाखों देशवासियों के प्रतिरोध को आवाज दें। वह कहते हैं कि ये तमगे हमारी शर्मिंदगी बढ़ाते हैं। उन्होंने कहा, ‘‘मैं इन तमगों को नोच कर अपने उन देशवासियों के साथ खड़ा होना चाहता हूं जिन्हें तुच्छ समझे जाने की वजह से ऐसी तकलीफ दी जाने वाली है जो मानव जाति के लायक नहीं है।’’

एक ओर टैगोर अंग्रेज सरकार को क्रूर और इंसानों की जिंदगी लेने वाली मशीनरी बता रहे थे, दूसरी ओर अपने को वीर बताने वाले सावरकर उनसे दया की गुहार लगा रहे थे। और ब्रिटिश शासन को भारत की सुरक्षा तथा तरक्की के लिए जरूरी बता रहे थे। सावरकर ने जालियांवाला बाग के नरसंहार के ठीक साल भर बाद 30 मार्च, 1920 को वायसराय के नाम एक माफीपत्र सेलुलर जेल के चीफ कमिश्नर को सौंपा। इस पत्र में जालियांवाला बाग की घटना की आलोचना तो छोड़िए जिक्र तक नहीं है। स्वातंत्र्यवीर एक दयनीय याचक की भूमिका में हैं। वह कहते हैं कि इससे पहले कि देर हो जाए उन्हें अपना केस रखने का अंतिम मौका दिया जाए। उन्होंने यहां तक कहा कि वह और उनके भाई लिखित में यह प्रतिज्ञा करने को तैयार हैं कि वे किसी तरह की राजनीतिक गतिविधि में हिस्सा नहीं लेंगे।

यह दया याचिका ब्रिटिश सम्राट की ओर से राजनीतिक बंदियों को आम माफी की दिसंबर 1919 में हुई घोषणा के तहत की गई थी। इसके तहत उन राजनीतिक बंदियों को रिहा किया जाने लगा जो ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा के लिए खतरा नहीं माने जाते थे। अपनी और अपने भाई की रिहाई के लिए वह इतने बेचैन थे कि अलीपुर षड्यंत्र केस के अभियुक्तों बारिंद्रनाथ घोष और हेमचंद्र दास को रिहा किए जाने पर विलाप कर रहे थे कि वह और उनके भाई को उन लोगों से ज्यादा हक सरकार की दया पाने का है। वह प्रसिद्ध क्रांतिकारी शचींद्रनाथ सान्याल की रिहाई पर भी सवाल उठाते हैं और कहते हैं कि उन्होंने अपने आजीवन कारावास के सिर्फ चार साल ही पूरे किए थे, जबकि हम तो 10-11 साल जेल में बिता चुके हैं।

टैगोर प्रतिष्ठित कवि थे और सावरकर भी महाकवि माने जाते हैं। टैगोर ने अपने को कभी वीर नहीं कहा। लेकिन वक्त आने पर अपनी वीरता दिखा दी। सावरकर ने क्या किया? उन्होंने आधा दर्जन माफीनामा लिख कर स्वतंत्रता आंदोलन को कलंकित किया।

(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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