संघ-भाजपा के कार्यकर्ता की तरह व्यवहार कर रहे तमिलनाडु के राज्यपाल

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भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अपने राजनैतिक दृष्टिकोण में संविधान द्वारा प्रदत्त उस बिंदु को स्वीकार करने में आनाकानी करती है, जो भारतीय लोकतांत्रिक गणतंत्र की अवधारणा से संबंधित है। संविधान के निर्माण के समय भारत के विभिन्न धर्मों, मतों, विश्वासों, भाषाओं और सांस्कृतिक विविधता को स्वीकार करके जो लोकतंत्र का स्वरूप लागू किया गया था, उसके विपरीत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की विघटनकारी विचारधारा है। पिछले दस-ग्यारह वर्षों के भाजपा शासनकाल में इस विचारधारा ने पूरे देश में जगह-जगह खाइयाँ खोद दी हैं। विभिन्न धर्मों, समाजों, राज्यों, संस्कृतियों और यहाँ तक कि भाषाओं के बीच भी ये खाइयाँ स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं।

संविधान के अनुसार, अपने-अपने कार्यक्षेत्र में राज्य सरकारें प्रदत्त अधिकारों के साथ स्वतंत्र हैं। लेकिन संघ से प्रशिक्षित और पोषित भाजपा सरकार ने विपक्षी दलों द्वारा संचालित राज्य सरकारों के अधिकारों में जबरदस्त और अनावश्यक हस्तक्षेप किया है। उत्तर-पूर्व, उत्तराखंड और दिल्ली से लेकर तमिलनाडु तक इसके कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। यद्यपि गैर-भाजपा दलों की केंद्र सरकारों द्वारा भी इस तरह का हस्तक्षेप किया जाता रहा है, लेकिन उस समय विपक्षी दल और न्यायालय इस हस्तक्षेप को चुनौती देने में सफल रहे हैं।

राज्य सरकारों के कार्यों में हस्तक्षेप करने और उनके अधिकारों में कटौती करने के लिए केंद्र सरकारें विभिन्न तरीकों का उपयोग करती रही हैं, जिनमें अपने पसंदीदा और आज्ञाकारी व्यक्तियों को राज्यपाल के रूप में नियुक्त करना प्रमुख है। इसके माध्यम से राज्यों के कानूनी और स्वाभाविक अधिकारों पर कई तरह से हमले किए जाते रहे हैं।

तमिलनाडु का हालिया मामला देश के संविधान अध्येताओं और शुभचिंतकों के लिए गहन विचारणीय विषय बन गया है।

भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए की मोदी सरकार ने अपने एक कार्यकर्ता, आर.एन. रवि को तमिलनाडु का राज्यपाल बनाकर नियुक्त किया था। उन्होंने तब से तमिलनाडु की सरकार के हर संवैधानिक अधिकार को अवरुद्ध करने और कुचलने का प्रयास किया। राज्य सरकार के प्रत्येक जनकल्याणकारी कार्य में अड़चनें डालकर उन्होंने तमिलनाडु को कमजोर करने की कोशिश की। साथ ही, समाज में धार्मिक और भाषाई वैमनस्य तथा ध्रुवीकरण को बढ़ाने का प्रयास किया।

यह समझना बहुत जरूरी है कि तमिलनाडु ने उत्तर भारत के लोगों, विशेषकर युवाओं और मेहनतकशों को बड़ी संख्या में रोजगार प्रदान करके देश की प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। समन्वयवादी समाज की झलक तमिलनाडु के शहरों, कस्बों और गाँवों में उत्तर भारतीय फेरीवालों की मौजूदगी के रूप में देखी जा सकती है। (दो वर्ष पहले निहित स्वार्थों द्वारा बिहार के एक संघी यूट्यूबर के माध्यम से इस सामाजिक ताने-बाने को तोड़ने के लिए एक फर्जी खबर भी फैलाई गई थी।) यही कारण है कि तमिलनाडु की जीडीपी उत्तर भारत के गोबर-पट्टी के किसी बड़े राज्य से अधिक है। यहाँ तक कि उसका जीएसटी संग्रह भी उत्तर भारत के इन राज्यों से ज्यादा है। इसके बावजूद केंद्र सरकार जीएसटी के सापेक्ष उचित सहायता प्रदान नहीं कर रही है।

मोदी सरकार ने गणतंत्र के प्रतिनिधि के बजाय भाजपा के एजेंट के रूप में टी. रवि को राज्यपाल नियुक्त किया था, जिन्होंने तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित कानूनों को अवैध रूप से रोककर राज्य की जनता के हितों पर कुठाराघात किया।

पिछले दिनों संविधान और गणतंत्र के अधिकारों की रक्षक सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में स्पष्ट रूप से राज्यपाल को, और परोक्ष रूप से मोदी सरकार को, फटकार लगाते हुए कानूनों को रोकने को गलत ठहराया। न्यायालय ने यह भी आदेश दिया कि एक निश्चित अवधि के बाद कानूनों को राज्यपाल की सहमति/स्वीकृति के बिना स्वीकृत माना जाएगा।

मजे की बात यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद राज्यपाल ने बिलबिलाते हुए कहा कि कानून बनाना सर्वोच्च न्यायालय का काम नहीं है। लेकिन तमिलनाडु की स्टालिन सरकार ने अड़चनें पैदा करने वाले और काम बिगाड़ने वाले राज्यपाल की भूमिका को दरकिनार करते हुए रोके गए कानूनों को लागू करके मास्टर स्ट्रोक खेला।

जबकि भाजपा अपने नफरत भरे एजेंडे को दक्षिण भारत में फैलाकर राज्यों में सरकार बनाने का सपना देख रही थी, उसे सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को गंभीरता से लेते हुए अपने रुख में बदलाव करना चाहिए था। लेकिन भाजपा की दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु को जीतने की चालों को देखकर लगता है कि उसने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने और गणतंत्र के ताने-बाने को कमजोर करने का काम शुरू कर दिया है।

शायद इसी के मद्देनजर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने तमिलनाडु को और अधिक स्वायत्त करने या स्वायत्तता लेने का प्रस्ताव पेश किया है। इस स्वायत्तता के संदेश का प्रभाव कितना व्यापक होगा और इसके निहितार्थ क्या होंगे, यह भविष्य की राजनीति में स्पष्ट होगा।

तमिलनाडु विधानसभा में मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने राज्य को स्वायत्त बनाने का प्रस्ताव पेश करते हुए कहा कि हमें सभी शक्तियों की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि देश को आजाद हुए 75 वर्ष पूरे हो चुके हैं। हमारे देश में विभिन्न भाषाओं, जातियों और संस्कृतियों के लोग रहते हैं, और हम सभी मिलजुलकर रहते हैं। डॉ. बी.आर. आंबेडकर का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि आंबेडकर ने देश की राजनीति और प्रशासन की प्रणाली को इस तरह से बनाया कि सभी के हितों की रक्षा हो सके।

स्टालिन ने कहा कि एक-एक करके राज्यों के अधिकार छीने जा रहे हैं। राज्य के लोग अपने मौलिक अधिकारों के लिए केंद्र से संघर्ष कर रहे हैं। हम किसी तरह अपने भाषाई अधिकारों की रक्षा कर रहे हैं। ऐसे में राज्य तभी विकास कर सकते हैं, जब उनके पास सभी आवश्यक शक्तियाँ हों।

एम.के. स्टालिन ने स्वायत्तता के प्रारूप की सिफारिश करने के लिए एक समिति का गठन किया है, जिसकी अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश कुरियन जोसेफ करेंगे। इसके अलावा, पूर्व आईएएस अधिकारी अशोक वर्धन शेट्टी और नागराजन इस समिति में शामिल होंगे। समिति को अपनी सिफारिशें देने के लिए जनवरी 2026 तक का समय दिया गया है। इस दौरान समिति को अंतरिम रिपोर्ट राज्य सरकार को सौंपनी होगी, जबकि अंतिम रिपोर्ट 2028 तक प्रस्तुत की जाएगी।

देखना यह है कि स्टालिन ने भारतीय गणतंत्र के मैदान में जिस गेंद पर शॉट मारा है, वह कितनी गुगली लेगी। यह तो भविष्य ही बताएगा। लेकिन इस शॉट से भाजपा को झटका जरूर लगेगा, और उसे अब अपने नफरत भरे एजेंडे के बजाय स्टालिन के लोकतांत्रिक गणतंत्र के एजेंडे पर लड़ना होगा, जहाँ संघी वीरों के पैर काँपने स्वाभाविक हैं।

(इस्लाम हुसैन गांधीवादी कार्यकर्ता हैं और काठगोदाम, नैनीताल में रहते हैं)

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