बंगाल का सबसे बड़ा सांस्कृतिक पर्व: 300 वर्ष पहले बंगाल से शुरू हुआ दुर्गापूजा

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शारदीय नवरात्र में बंगाल में मनाया जाने वाला दुर्गापूजा पर्व बंगाल का सबसे बड़ा धार्मिक और सांस्कृतिक पर्व है। वास्तव में यह पर्व कला, साहित्य, संस्कृति और संगीत का एक समन्वय है। बंगाली चाहे आस्तिक हों या नास्तिक बड़े उत्साह से इस पर्व में भाग लेते हैं।

इस अवसर पर बंगाल में लम्बी छुट्टियां होती हैं, इसलिए देश भर के पर्यटक स्थल बंगाली पर्यटकों से भरे रहते हैं। बंगाली भाषा में प्रकाशित होने वाले अखबार और पत्र-पत्रिकाएं विशेष पूजा विशेषांक निकालते हैं, जिसमें बंगाल के सभी लेखक-कवि जिनकी वैचारिक प्रतिबद्धता किसी भी किस्म की हो, वे उसमें अपनी कविता, कहानी और लेख लिखते हैं।

‘देश’ नामक पत्रिका का पूजा विशेषांक हमेशा बहुत चर्चित रहता है। इसमें बंगाल की बहु-चर्चित उपन्यासकार और लेखिका महाश्वेता देवी सहित अनेक प्रगतिशील लेखकों-कवियों की रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। बंगाल की दुर्गापूजा उत्तर भारत की दुर्गापूजा से बिलकुल भिन्न है।

उत्तर भारत में लोग नौ दिन व्रत रखकर शाकाहारी भोजन करते हैं, जो लोग व्रत-पूजा नहीं भी करते हैं, वे भी मांसाहार से दूर रहते हैं, ठीक इसके विपरीत बंगाल में दुर्गापूजा के दौरान लोग प्रतिदिन मांस, मछली तथा अच्छे-अच्छे भोजन करते हैं, दस दिन तक नये-नये कपड़े पहनकर दुर्गा पांडालों जाकर पूजा-अर्चना करते हैं तथा पांडालों में नृत्य,संगीत एवं रंगमंच का आयोजन होता है।

इन आयोजनों में पूरी बांग्ला संस्कृति उभरकर सामने आ जाती है। नवरात्रि समाप्त होने पर भी एक-दूसरे के घर पर मिठाई और उपहार लेकर जाते हैं। वास्तव में दुर्गापूजा के बारे में धारणा यह है, कि बेटी घर आती है, तो इस खुशी में लोग अपने हर्षोल्लास इन रूपों में प्रकट करते हैं।

दशभुजी या अष्टभुजी दुर्गा की प्रतिमा बनाकर उसके पूजन की परम्परा आज से क़रीब 300 वर्ष पहले बंगाल ही से शुरू हुई तथा वहीं से सारे देश में फैली।

उत्तर भारत में प्राचीन समय से घटपूजा की परम्परा थी, इसमें एक मिट्टी के कलश की स्थापना करके उस पर धान आदि उगाया जाता था और उसकी नौ दिन तक पूजा की जाती थी, यह त्योहार उत्पादकता और समृद्धि का प्रतीक था।

बंगाली संस्कृति के सुप्रसिद्ध लेखक पी बंदोपाध्याय की रचना ‘रत्नावली’ नामक ग्रन्थ (पृष्ठ संख्या-265) और सुप्रसिद्ध दर्शनशास्त्र के विद्वान डीपी चट्टोपाध्याय की प्रसिद्ध पुस्तक ‘लोकायत’ (पृष्ठ संख्या-230) में वर्णित है, कि “अभी एक शताब्दी पहले तक बंगाल में दस हाथों वाली सिंहारूढ़ दुर्गा देवी; जो अपने पुत्र-पुत्रियों से घिरी हैं- के बारे में कुछ भी नहीं पता था।”

उन्होंने लिखा कि “बंगाल प्रांत (बंगाल, बिहार, ओडिशा) में मूर्तिपूजा वस्तुत: अट्ठारहवीं सदी के उत्तरार्ध (1750 से 1800 ई०) के बीच प्रारंभ हुई थी।

बंगाल के इतिहास के पन्नों को पलटें, तो हमें पता चलता है कि लगभग 16वीं शताब्दी के अंत में 1576 ई में पहली बार दुर्गापूजा हुई थी। उस समय बंगाल अविभाजित था, जो वर्तमान समय में बांग्लादेश है। इसी बांग्लादेश के ताहिरपुर में एक राजा कंसनारायण हुआ करते थे।

कहा जाता है कि 1576 ई में राजा कंस नारायण ने अपने गांव में देवी दुर्गा की पूजा की शुरुआत की थी। कुछ और विद्वानों के अनुसार मनुसंहिता के टीकाकार कुलुकभट्ट के पिता उदयनारायण ने सबसे पहले दुर्गा पूजा की शुरुआत की। उसके बाद उनके पोते कंसनारायण ने की थी।

इधर कोलकाता में दुर्गापूजा पहली बार 1610 ईस्वी में कलकत्ता में बड़िशा (बेहला साखेर का बाजार क्षेत्र) के राय चौधरी परिवार के आठचाला मंडप में आयोजित की गई थी। तब कोलकाता शहर नहीं था। तब कलकत्ता एक गांव था, जिसका नाम था ‘कोलिकाता’।

● दुर्गा पूजा की शुरुआत की कई असत्यापित कहानियां हैं, तो कई दस्तावेजी इतिहास भी हैं। सबसे लोकप्रिय कहानी 1757 में प्लासी की लड़ाई के बाद की है। प्लासी की लड़ाई बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला और अंग्रेजों के बीच हुई थी। इस लड़ाई में ब्रिटिश सैनिकों का नेतृत्व रॉबर्ट क्लाइव ने किया था।

● इस लड़ाई में सिराजुद्दौला की हार से भारतीय इतिहास की दिशा बदल गई। अंग्रेजों की जीत के बाद पहले बंगाल और अंततः पूरे उपमहाद्वीप पर ईस्ट इंडिया कंपनी की पकड़ मजबूत हुई। इस जीत ने क्लाइव को बहुत अमीर आदमी भी बना दिया।

अत्यधिक धार्मिक क्लाइव ने युद्ध मिली जीत का श्रेय अपने भाग्य और ईश्वर को दिया। क्लाइव अपने ईश्वर का धन्यवाद करने के लिए कलकत्ता में एक भव्य समारोह आयोजित करना चाहता था। लेकिन पूर्व नवाब ने शहर के एकमात्र चर्च को ढहा दिया था।

क्लाइव के फ़ारसी अनुवादक और करीबी विश्वासपात्र नबाकिशन देब ने सुझाव दिया कि वह उनकी हवेली आएं और देवी दुर्गा को प्रसाद चढ़ाएं, इस तरह कलकत्ता की पहली दुर्गा पूजा शुरू हुई।

देब की हवेली शोभा बाजार में थी, जो वर्तमान में पश्चिम बंगाल के पर्यटन विभाग द्वारा संरक्षित है। आज भी वहां बोलचाल की भाषा में “कंपनी पूजा” कहा जाता है। हालांकि इस कहानी के दस्तावेजी साक्ष्य नहीं हैं।

1757 से पहले देब का क्लाइव को जानने का कोई रिकॉर्ड नहीं है, करीबी विश्वासपात्र होने की बात तो छोड़ ही दीजिए। एक गुमनाम पेंटिंग को छोड़कर उस वर्ष वास्तव में पूजा होने का भी कोई सबूत नहीं है।

● जबकि शोभा बाजार पूजा निस्संदेह कलकत्ता में सबसे पुरानी है, इसकी मूल कहानी अत्यधिक संदिग्ध है। बहरहाल यह कहानी कलकत्ता में दुर्गा पूजा की समाजशास्त्रीय उत्पत्ति के लिए एक रूपक के रूप में कार्य करती है। सीधे शब्दों में कहें तो आधुनिक दुर्गा पूजा की उत्पत्ति का श्रेय बंगाली जमींदारों और व्यापारियों और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच सांठगांठ को दिया जा सकता है।

बंगाल में कंपनी के शासन के साथ कई सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन आए। लोकल बंगाली कंपनी शासन का फायदा उठाकर तेज़ी से अमीर हुए। सबसे ज़्यादा फ़ायदा जमींदारों को मिला।

मुग़लों के पतन के बाद बंगाल में जमींदार तेजी से मुखर हुए और प्रभावी ढंग से अपनी जागीर चलाने लगे। कंपनी ने जागीरदारों को अपने और मूल आबादी के बीच मध्यस्थ के रूप में माना।

● इस बीच अमीर बंगाली व्यापारियों का भी एक वर्ग उभरा, खासकर कलकत्ता में। कंपनी के शासन के साथ इतने बड़े पैमाने पर आर्थिक अवसर आए, जो पहले कभी नहीं देखे गए थे। कुछ लोग बहुत जल्दी बहुत अमीर हो गए, इस प्रकार टैगोर या मलिक जैसे बड़े व्यापारिक परिवार उभरे।

इतिहासकार तपन रायचौधरी ने ‘मदर ऑफ यूनिवर्स’ शीर्षक से एक निबंध लिखा है, जिसमें वे बताते हैं, “नए अमीरों के लिए दुर्गापूजा धन के प्रदर्शन और साहबों (अंग्रेजों) के साथ मेलजोल का एक भव्य अवसर बन गई।”

रायचौधरी के अनुसार, “भक्ति के बजाय विशिष्ट उपभोग” इन त्योहारों का केंद्रीय उद्देश्य था। प्रतिद्वंद्वी अमीर व्यापारी परिवार यथासंभव भव्य पूजा की मेज़बानी करने के लिए प्रतिस्पर्धा करते, मूर्तियों को सोने से सजाया जाता। लखनऊ और दिल्ली जैसे दूर-दूर के इलाकों से लड़कियों को बुलाकर काम पर रखा जाता।

यहां तक कि ब्रिटिश गवर्नर-जनरल को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया जाता। रायचौधरी ने लिखा,“पूजा के दौरान… लोग जितना समय देवी को देखने में बिताते, उतना ही समय शॉपिंग करने में लगाते।” इस तरह, दुर्गापूजा देवी की पूजा के साथ-साथ मौज-मस्ती करने का भी अवसर बन गई।

● 19वीं सदी के अंत तक बंगाली आबादी ;विशेषकर शिक्षित बुद्धिजीवियों में राष्ट्रवाद की भावनाएं उभरीं। बंकिम का ‘आनंद मठ’ 1882 में प्रकाशित हुआ था। आनंद मठ 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के संन्यासी विद्रोह का एक काल्पनिक संस्करण था।

उपन्यास ने ‘बंदे मातरम’ वाक्यांश को लोकप्रिय बनाया, जिसने ‘राष्ट्र’ की ‘मां’ के रूप में कल्पना को लोकप्रिय बनाया। इस प्रकार दुर्गा पूजा अचानक उभरते राष्ट्रवादी प्रोजेक्ट का हिस्सा बन गया।

बंगाल के दुर्गापूजा का इतिहास उस रोमांचकारी इतिहास का हिस्सा है, जिसकी जड़ें हमारे स्वाधीनता संग्राम में निहित हैं। निश्चित ही यह इतिहास और मिथक का समन्वय भी हो सकता है, लेकिन यह भी सत्य है कि दुर्गापूजा के समय बंगाल; विशेष रूप से कोलकाता एक ऐसे उल्लास के सागर में डूब जाता है, जिसमें धर्म तो है ही, साथ में एक ऐसी बांग्ला संस्कृति है जिसमें कला, साहित्य और रंगमंच सभी आपस में गुंथा हुआ है।

(स्वदेश कुमार सिन्हा लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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