ट्रम्प पर सवार मार्क्सवाद का भूत!

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अमेरिकी राष्ट्रपति पद के रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प पर कार्ल मार्क्स और साम्यवाद का भूत सवार हो गया है। वे अमेरिकी जनता में मार्क्स, साम्यवाद और समाजवाद का काल्पनिक आतंक पैदा करके, राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतने का हथकंडा अपना रहे हैं। विगत शुक्रवार को ही ‘आस्थावादियों के शिखर सम्मलेन (दी बिलीवर्स समिट) को सम्बोधित करते हुए फेंकूपन और झूठ के खिलन्दड़ी ट्रम्प कहने लगे, ”हमारा कर्तव्य है कि हम समाजवाद, मार्क्सवाद, साम्यवाद को हरायें। ”इसके साथ ही उन्होंने अपराधियों और मानव तस्करों को भी हराने की बात कही। डेमोक्रेट सत्ताधारी पार्टी की उम्मीदवार व उपराष्ट्रपति कमला हैरिस पर भी भद्दे शब्दों के साथ हमला किया, क्योंकि वे भी चरम उदारपथी और सुदूर वामपंथी हैं। 

वाचाल ट्रम्प अपने बड़बोलेपन के लिए हमेशा से ही कुख्यात रहे हैं। पाठकों को याद होगा, जब ट्रम्प पिछली दफा राष्ट्रपति पद (2016-20 ) पर थे, तब उन्होने 30 हज़ार से अधिक बार झूठ बोला और दावे किये थे। इसकी गिनती किसी बाहरी एजेंसी ने नहीं, अमेरिका के प्रसिद्ध अखबार वाशिंगटन पोस्ट ने चेक की थी। आज जब चार वर्ष के सत्ता निर्वासन के बाद वे फिर से  चुनावी जंग में कूदे हैं, और हमलावर ढंग से अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। तो वे मार्क्सवाद, साम्यवाद, समाजवाद और यहां तक कि उदार लोकतंत्रवादी के भूतों से आतंकित हो उठे हैं।

उनका यह काल्पनिक भय अमेरिका के मैकार्थीवाद के आतंकी दौर की त्रासद यादों को ताज़ा कर देता है। दूसरे महायुद्ध की समाप्ति और शीत युद्ध के शुरूआती काल के पांचवें दशक में सेनेटर मैकार्थी ने मार्क्सवादियों, समाजवदियों, वामपंथियों के विरुद्ध नफरत का माहौल पैदा कर दिया था। अनेक प्रसिद्ध वामपंथी बुद्धिजीवियों, कलाकारों, वैज्ञानिकों आदि को अमेरिका छोड़ना पड़ा, जेल यात्राएं करनी पड़ीं, सामाजिक बहिष्कार के शिकार हुए। अंततः मैकार्थीवाद पराजित हुआ और मार्क्सवाद और समाजवादी विचारधाराओं का अध्ययन फिर से शुरू किया गया।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दिवंगत सर संघचालक गुरु गोलवलकर जी ने भी अपनी विवादास्पद पुस्तक ’बंच ऑफ थॉट्स ’ में भारत के तीन शत्रु गिनाये थे – मुस्लिम, ईसाई और कम्युनिस्ट। आज़ ट्रंप की निगाह में भी मोटे तौर पर शत्रु हैं, मुस्लिम और वामपंथी।

यह लेखक 1985 से अमेरिकी आवाजाही कर रहा है। पिछली यात्रा 2022 में थी। आज भी वामपंथ के प्रति अमेरिकी दिलों में बहुत गर्मजोशी नहीं है। समाजवादियों, साम्यवादियों को विचित्र दृष्टि से देखा जाता है। उनके प्रति उत्साह या स्वागत के भाव का प्रदर्शन नहीं किया जाता है। अलबत्ता, औसत अमेरिकी उदार पूंजीवादी लोकतंत्र के समर्थक हैं। इसी कसौटी के आधार पर उन्होंने 2020 के चुनावों में शाब्दिक उच्छृंखल ट्रम्प को अस्वीकार कर दिया था। लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प की उदार लोकतंत्रवादी विरोधी फितरत में कोई बुनियादी बदलाव आया है, ऐसा दिखाई नहीं दे रहा है। बल्कि, उन्होंने  समतावादी विचारधाराओं के प्रति काल्पनिक भय व घृणा का आतंक फैलाना शुरू कर दिया है। 

इससे अमेरिका की पारंपरिक छवि को बट्टा ही लगेगा। यदि ट्रंप की जीत होती है तो नए ढंग का नस्ली फासीवाद शुरू होगा। चुनाव के माहौल में इसरायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू की ट्रंप से मुलाकात बेमतलब की नहीं है। एक तरफ इसरायली सेना ग़जा में मुस्लिम बच्चों को मारती है, दूसरी तरफ नस्ली फासीवादी प्रधानमंत्री नए उभरते फासीवादी सितारे ट्रंप से मुलाकात करते हैं।यह स्वयं में हैरतअंगेज है। क्या यहूदी प्रधानमंत्री 1935 से 45 तक का होलोकास्ट भूल गए जब हिटलर ने नस्ल शुद्धता के नाम पर 60 लाख यहूदियों का महासंहार किया था। उन्हें सामूहिक रूप से गैस चैंबरों में ठूंसा गया था। इस लेखक ने भी पोलैंड स्थित दो चेंबरों की भयावयता को देखा है।आज भी उन अभागे यहूदियों की दारुण छवियां चिपकी हुई हैं; कोई उनमें फिर से प्राण फूंक दे, ऐसी कातर अनुभूति होती है।

ट्रम्प के मार्क्सवाद, साम्यवाद और समाजवाद विरोधी उवाचों या विलापों से एक बात ज़रूर स्थापित होती है कि भूमंडलीकरण या कॉर्पोरेटी पूंजीवाद या मुक्त अर्थव्यवस्था (लैस फेरे) ‘मानवता का  मसीहा’ के रूप में अवतरित होने में शर्मनाक ढंग से पिटी  है। विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं का मानना है कि आने वाले वर्षों में विषमता बढ़ेगी। ज़ाहिर है, इससे कई प्रकार की जटिल समस्याएं पैदा होंगी। राष्ट्रों और समाजों के बीच तनाव बढ़ेंगे। आप्रवासियों और विस्थापितों के विरुद्ध कट्टर राष्ट्रवादी वातावरण का विस्फोट होगा। सामजिक, सांस्कृतिक, नस्ली, राजनैतिक तनावों के माहौल में एकाधिकारवादी पूंजीवाद का विस्तार रुकेगा। कॉर्पोरेट पूंजीवाद के अस्तित्व के लिए भी खतरा पैदा हो सकता है। कॉर्पोरेट पूंजी का मंसूबा तो यह है कि राजसत्ता पर वह निर्णायक रूप से काबिज़ हो जाए। इसलिए उसे मज़बूत राज्य और कमज़ोर लोकतंत्र पसंद है। इसीलिए ट्रम्प को मज़बूत अमेरिकी राज्य और कमज़ोर लोकतंत्र चाहिए।

वे अमेरिकियों में श्वेत वर्चस्ववाद की भावना को जाग्रत करना चाहते हैं। वे इसके लिए किसी भी स्तर तक उतर सकते हैं। चुनाव शांतिपूर्वक संपन्न हो जायेंगे, इसे लेकर आशंकाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। ध्रुवीकरण से अमेरिकी समाज मुक्त है, यह सोचना भी गलत है। ट्रम्प के पास ध्रुवीकरण का मज़बूत हथियार है। वे इसके निर्मुक्त इस्तेमाल से पीछे नहीं हटेंगे। उनका श्वेत समाज पर विशेष फोकस है। उन्हें ऐसे लोग चाहिए जो नितांत आस्थावादी या अंधभक्त हों और ‘जनता की सरकार, जनता के लिए और जनता द्वारा‘ की चेतना अनभिज्ञ रहे। उसमें विवेक और विवेचना की शक्ति न हो। वह सिर्फ ‘ट्रंपवादी‘ रहे। डोनाल्ड ट्रम्प एक प्रकार से ‘ट्रम्प कल्ट’ पैदा कर रहे हैं।

1990 में साम्यवादी राजसत्ताएं सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में समाप्त हो चुकी थीं। तब यह मान लिया गया था कि मार्क्स, साम्यवाद और समाजवाद की हमेशा के लिए मृत्यु हो चुकी है। पूंजीवाद को अमरत्व प्राप्त हो चुका है। वह निर्द्वंद हो कर दुनिया के पूंजी रंगमंच पर अपना ड्रामा खेलता रहेगा। अब वही एकमात्र मानवता का मसीहा है। लेकिन उसका यह स्वप्न आधा-अधूरा ही नज़र आ रहा। वैसे अमेरिका इस समय भी पूंजीवाद का पुंज और अंतिम दुर्ग है। दृश्य और अदृश्य ‘साम्राज्य‘ है। बावजूद इसके, डोनाल्ड ट्रम्प मार्क्सवाद, समाजवाद, साम्यवाद से आतंकित हैं। उन्हें लगता है कि समतावादी और पूंजीवाद विरोधी विचारधाराओं का भय जगाकर, वे अमेरिकी मतदाताओं को अपने कट्टर नस्लवादी जाल में फांस सकते हैं।

इसका एक अर्थ यह भी निकलता है कि अमेरिकी मतदाताओं में समतावादी और प्रगतिशील विचारधाराओं के प्रति रुझान  बढ़ता जा रहा है। यदि इस रुझान को जनादेश में परिवर्तित होने दिया गया, तो कालांतर में अमेरिकी पूंजीवादी वैश्विक वर्चस्व के लिए खतरा पैदा हो सकता है। राजसत्ता के रूप में मार्क्सवाद, साम्यवाद की वापसी हो सकती है। हालांकि, यह दिवास्वप्न है। फिर भी डोनाल्ड ने अपने मक्कारी भरे उवाच में अनायास ही ऐसे संकेत दे दिए हैं। बेशक, अमेरिका में विषमता बढ़ती जा रही है। सामान्य लोगों का जीना दुर्गम होता जा रहा है। हो सकता है, अमेरिकी जनता वैकल्पिक राजनैतिक व्यवस्था की तलाश करने लगी हो! इस तलाश को डोनाल्ड ट्रम्प उसके शैशव काल में ही काल्पनिक आतंकवाद के शस्त्र से उसकी हत्या पर आमादा हो! ट्रंप के पैशाचिक मंसूबे पूरे न हो सकें, इसकी जिम्मेदारी अमेरिकी मतदाता की है। इस ऐतिहासिक जिम्मेदारी से अमेरिकी पलायन नहीं कर सकते।

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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