भारत में विवाह पर साल का कुल खर्चा 10 लाख करोड़ रूपया

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एक इंवेस्टमेंट बैंकिंग फर्म जेफरीज ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी कर बताया कि भारत में विवाह उद्यम का आकार अमेरिका से भी दोगुना बड़ा है। इस रिपोर्ट की कतरनें मीडिया में खूब छपीं हैं। इसके अनुसार इस उद्यम का आकार 10 लाख करोड़ रूपये तक पहुंच गया है। अमेरिकी डालर में यह लगभग 130 अरब डालर है। इसने अनुमान लगाया है कि भारत में प्रति शादी औसतन 12 लाख रूपये से अधिक ही खर्च होते हैं। यह भारत की प्रति व्यक्ति आय का पांच गुना और परिवार की आय से तीन गुना है। दुनिया की हर चौथी शादी इस समय भारत में हो रही है। इसकी संख्या लगभग 80 लाख से 1 करोड़ के आसपास है।

इस रिपोर्ट के अनुसार कुल उपभोक्ता खर्चों में शादी पर हुआ खर्चा परिवार द्वारा भोजन व इससे जुड़े खर्चों के बाद दूसरे नम्बर पर है। लेकिन, हम जानते हैं आम परिवारों में शादियों पर हुए खर्चे इतनी आसानी से नहीं जुटते। इसके लिए ऋण लेना आम बात है। यह रिपोर्ट बताती है कि इससे जुडे़ ऋण की ब्याज दर प्रतिवर्ष 36 प्रतिशत तक है। यह रिपोर्ट बताती है कि 2018-19 में 20-30 वर्ष के युवाओं द्वारा लिये गये ऋण का लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा विवाह के संदर्भ में था। भारत में एक युवा की प्री-प्राइमरी से लेकर स्नातक बनने तक का कुल खर्च 6 लाख से थोड़ा अधिक पड़ता है। इस संदर्भ में विवाह का कुल औसतन खर्च शिक्षा पर हुए कुल खर्च का दोगुना होता है। अमेरीका में शिक्षा के अनुपात में विवाह का खर्च आधा के करीब है।

विवाहों के लिए लिए गये ऋण आमतौर पर सांस्थानिक और गैर-सांस्थानिक वित्तीय संस्थानों द्वारा लिए जाते हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि अधिकांश मामलों में दुल्हा और दुल्हन के परिवारों द्वारा ही इन ऋणों को चुकता किया जाता है। इसका सीधा दबाव परिवार पर पड़ता है। खर्च का यह दबाव निश्चित खर्च के अन्य हिस्सों को सिकोड़ने में बदल जाता है। कई मामलों में यह परिवारों को तबाही की ओर ले जाती है।

भारत में शादियों के कुल खर्चों में एक स्थाई खर्च आभूषणों का है। इसके अलावा परिधान, उपहार और भोजन पर किया जाने वाला खर्चा है। पिछले 20 सालों में शादियों में कुछ नये खर्चें जुड़ गये हैं। खासकर, डीजिटाईजेशन ने फोटोग्राफी के आकार को एक फिल्म की शूटिंग और उसकी तैयारियों के साथ बराबरी करने लगा है। इसी के साथ ही वेडिंग प्लेस, हनीमून टूर और अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपभोक्ता वस्तुओं ने शादियों के खर्च को कई गुना बढ़ा दिया है। डेस्टिनेशन वेटिंग अब एक प्रचलित शब्दावली है, जिसे लेकर पिछले दिनों प्रधानमंत्री बयान दिया। प्रधानमंत्री की चिंता डेस्टिनेशन वेटिंग के तहत देश के युवाओं द्वारा विवाह के लिए विदेशी स्थलों का चुनाव करने से देश का धन बाहर जाने को लेकर था। उनके इस बयान का क्या असर हुआ, बताना मुश्किल है। लेकिन यह प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है और यह शब्द कथित तौर पर आम जबान का हिस्सा बनती जा रही है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में आभूषणों व्यापार में शादियों का हिस्सा 50 से 55 प्रतिशत तक है। इसके बाद दूसरा नम्बर परिधानों का है।


बिजिनेस स्टैंडर्ड की 16 जून, 2023 के रिपोर्ट के अनुसार 2022 से 2023 के बीच विवाह से जुड़ी अर्थव्यवस्था में 26.40 प्रतिशत की वृद्धि दर देखी गई। उस समय यह माना गया था कि कोविड के बाद राहत की स्थिति में लोग इस तरह के खर्च की ओर बढ़ सकने की संभावनाएं हैं। लेकिन, यदि हम पिछले 30 सालों के आर्थिक हालातों पर नजर डालें तब इस क्षेत्र में लगातार होती बढ़ोत्तरी को देखा जा सकता है।

भारत में विवाह को एक ऐसी पवित्र संस्था के तौर पर देखा जाता है, जिसको पूरा करना एक पुण्य कर्म है। भारत और पूरे दक्षिण एशियाई देशों में विवाह जितना पुण्य कर्म माना जाता है उतना ही यह एक जटिल सामाजिक संस्थानों, परम्पराओं, मूल्यों और उसकी आर्थिक संरचानाओं का भी पुनुरूत्पादन का भी हिस्सा है। जाति, गोत्र, धर्म, क्षेत्र और आर्थिक श्रेणियां विवाह में केंद्रीय भूमिका निभाती हैं और समाज को इन्हीं श्रेणीयों में और भी कसकर बांधती जाती हैं। यह सिर्फ जाति, धर्म की श्रेणीयों को ही रूढ़ नहीं बनाती हैं, ये आर्थिक श्रेणियों को उसी स्तर पर आगे ले जाती हैं। 1980 के दशक में शहरीकरण के बढ़ने के साथ विवाह में आर्थिक लोभ महिलाओं को दहेज हत्याओं का शिकार बना दिया। वहीं, 1990 के बाद विवाह शहरी समाज के मध्यवर्ग के महोत्सव में बदलता गया।

यदि हम पिछले दस साल के अखबारों के पन्नों की कतरनों से गुजरें, तब हमें हर साल एक भव्य और चर्चित शादियों के चर्चों से जरूर गुजरेंगे। हम पिछले एक साल से अंबानी परिवार के लड़के की शादी की तैयारियों में हो रहे जश्न की खबरों को पढ़ते जा रहे हैं। उससे जुड़े विडियों अनायास ही मोबाईल पर दिखते हैं। आप किसी और कार्यक्रम को देख रहे हों, उसमें भी इस शादी से जुड़ी खबर आपका पीछा नहीं छोड़ेगी। यह शादी भारत के राजनीतिज्ञों, अर्थव्यवस्था के खिलाड़ीयों, सिनेमा की हस्तियों से लेकर पत्रकार और समाज के अन्य हिस्सों को अपने में समेटते हुए आगे बढ़ रही है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था का एक मॉडल है। यह कौटिल्य के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का नया अवतार है। आज के उपभोक्तावादी दौर में मोक्ष के बारे में बात करना संदर्भ से कट जाना होगा।

हम एक पूरे भारतीय समाज के बतौर बात करें, जिसमें हम अमीरी और गरीबी के विभाजन से बाहर आ जायें और एकत्व की भावना से इस समाज के खर्चों के बारे में बात करें, तब भी नतीजे काफी भयावह हैं। हम कुल भारतीय समाज के औसत खर्च के आधार पर इसका मूल्यांकन करें, तब भी यह बेहद चिंताजनक स्थिति है। जो समाज, रीजर्व बैंक ऑफ इंडिया के 2023 के रिपोर्ट के मुताबिक अपनी कुल बचत में गिरावट की स्थिति में गया है, वह विवाह पर रिकार्ड स्तर पर खर्च करने की ओर बढ़ रहा है। जो समाज शिक्षा और स्वास्थ्य पर कम खर्च करता हो, एक शादी पर इन खर्चों का दोगुना से लेकर तीन गुना तक खर्च करने पर आमादा हो, उसकी सामाजिक और शैक्षिक चेतना का हम अनुमान लगा सकते हैं।

यहां हम भारत के लोगों की आय के स्रोतों और खर्चों के बीच की तुलना करें, तब स्थिति और भी भयावह हो उठती है। भारत बहुत तेजी से एक उपभोक्ता समाज में बदल रहा है जिसके आगे आगे ‘विकास’ का एक गाजर लटका हुआ है और पीठ पर ‘विश्वगुरू’ होने का भ्रम पालथी मारकर बैठ गया है। बाकी काम सांस्कृतिक परम्पराओं के पुनरूद्धार के साथ चल निकला है। पिछले दस सालों से हम खुद प्रधानमंत्री की उत्सवधर्मिता को देख रहे हैं। समाज का एक बड़ा हिस्सा इस उत्सवधर्मिता पर गर्वित है और उस रास्ते पर चल निकला है। विवाह इसके लिए उपयुक्त अवसर की तरह है। इस पर होने वाले खर्च पर चौंकने से अधिक चिंतित होने की जरूरत है। सामाजिक बदलाव की जरूरत भारत के किसी समय से आज सबसे अधिक बड़ा विषय बन चुका है। इसे हमें विवाह के हो रहे आयोजनों के आईने में जरूर झांककर देखना चाहिए।

(अंजनी कुमार लेखक व पत्रकार है।)

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