जम्मू एवं कश्मीर पुलिस के डीएसपी, देविंदर सिंह को दिल्ली पुलिस के द्वारा सीआरपीसी की तय की गयी अवधि के भीतर आरोपपत्र (चार्जशीट) अदालत में दाखिल न करने के कारण, जमानत पर छोड़ दिया गया है। अदालत ने अभियुक्त देविंदर सिंह की ज्यूडिशियल कस्टडी रिमांड, 16 जून 2020 तक के लिए बढ़ा दी थी। उसे श्रीनगर जम्मू राजमार्ग पर एक वाहन में हिज्बुल मुजाहिदीन के दो आतंकवादियों को ले जाते हुए डीआईजी द्वारा अचानक तलाशी के दौरान गिरफ्तार किया गया था।
दर्ज एफआईआर में यह उल्लेख था कि उसके द्वारा जम्मू कश्मीर के युवकों को आतंकी गतिविधियों के लिए ट्रेनिंग दी जा रही है। एफआईआर में डी कंपनी और छोटा शकील के भी उल्लेख हैं। खालिस्तान समर्थक आतंकी गतिविधियों की भी फंडिंग का उल्लेख एफआईआर में किया गया है। पुलिस के अनुसार, इन सब देश विरोधी गतिविधियों में देविंदर की संलिप्तता है। देविंदर सिंह की गिरफ्तारी के बाद उसके घर से हथियार मिले और उसी की निशानदेही पर अन्य जगहों से भी हथियार मिले थे। इस मामले की जांच एनआईए ने की थी।
सबसे हैरानी की बात यह है कि सामान्य मामलों में भी यूएपीए का प्रावधान लगाने वाली पुलिस ने इस मुल्जिम पर यह गम्भीर कानून क्यों नहीं लगाया। साथ ही 90 दिन में आरोप पत्र क्यों नहीं दे पायी ? इस गम्भीर मामले पर दिल्ली पुलिस को अपने विवेचक के कंडक्ट के बारे में जांच करनी चाहिए। देविंदर सिंह को उस वक्त गिरफ्तार किया गया था, जब वह 13 जनवरी को तीन आतंकियों को अपनी गाड़ी से जम्मू लेकर जा रहा था।
देविंदर सिंह पर संसद हमले के मास्टरमाइंड अफजल गुरु के साथ भी संबंध होने के आरोप लगे थे। पुलिस के मुताबिक वो जम्मू-कश्मीर के अलावा आतंकियों को पंजाब और दिल्ली में भी अलग-अलग तरह से मदद पहुंचाता था। पूछताछ में खुलासा हुआ था कि वह लंबे समय से आतंकियों की मदद करता था।
देविंदर सिंह की जमानत एक बड़ी चूक है। 90 दिन में आरोप पत्र दाखिल न करना और जमानत की एक राह खोल देना, यह मुल्ज़िम की पोशीदा मदद है। अपने अनुभव से बता रहा हूँ, ऐसी विवेचनाओं पर विवेचक के विरुद्ध न केवल विभागीय जांच बैठती है बल्कि उसे निलंबित भी किया जाता है। मुल्जिम देविंदर सिंह मामला सामान्य आरोप का नहीं है।
हालांकि देविंदर का एक मामला एनआईए के पास भी है, जिसका गठन 2008 में आतंकवाद से जुड़े मामलों की जांच और विवेचना करने के लिये ही गठन किया गया था। उसके पास न केवल ऐसे मामलों में, विवेचना, पूछताछ, आदि के लिये दक्ष और कुशल पुलिस अफसर हैं बल्कि वैज्ञानिक रीति से अनुसंधान के नए और आधुनिक उपकरण भी हैं। विवेचना के दौरान अगर कहीं कानूनी सवाल फंसता है तो उसके निदान और समाधान के लिये कानूनी सलाहकार भी हैं। अदालतों में पैरवी के लिये सरकारी वकीलों के अतिरिक्त अगर एनआईए चाहे तो वह फौजदारी के बड़े वकीलों की भी सेवा ले सकती है, जिनकी फीस के लिये इस संस्था के पास पर्याप्त बजट भी होता है। लिहाजा उम्मीद की जानी चाहिए कि वह दिल्ली पुलिस जैसी चूक नहीं करेगी।
( विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं। )
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