उत्तराखण्ड चुनाव: बहुमत आने पर भी सत्ता की गारंटी नहीं

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उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव की मतगणना से पहले पार्टियों की जीत हार के बजाय अगली सरकार को लेकर चर्चा तेज हो गयी है। चर्चा यह भी है कि वोटों की गिनती में चाहे जो भी आगे हो मगर सरकार उसी की बनेगी जिसकी जेब भारी हो और जोड़तोड़ में माहिर हो। इसलिये सिंगल लार्जेस्ट पार्टी होने मात्र से सत्ता की कोई गारंटी नहीं है। इसके लिये गोवा और मणिपुर में पिछले विधानसभा चुनावों के उदाहरण देने के साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि यह बाजपेयी-आडवाणी का युग न हो कर मोदी-शाह का युग है। इस राजनीतिक युग में मोहब्बत और जंग के साथ ही राजनीति में भी सब कुछ जायज हो गया है। माना तो यह भी जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी बहुमत का जादुई आंकड़ा छू भी लेती है तो उसके बहुमत  को भी तोड़ा जा सकता है। भाजपा के रणनीतिकार विजय वर्गीय को देहरादून तैनात किये जाने से भी कांग्रेसी खेमे में बेचैनी देखी जा रही है। क्योंकि यह वही शख्स हैं जिन्होंने मार्च 2016 में हरीश रावत की बहुमत वाली सरकार गिराने की व्यूह रचना की थी।

कांटे की टक्कर के कारण त्रिशंकु विधानसभा की आशंका

मतदान से कुछ दिन पहले तक प्रदेश में कांग्रेस का रुझान साफ नजर आ रहा था। उन दिनों महंगाई, बेरोजगारी, मुख्यमंत्रियों का बार-बार बदला जाना, भूमि कानून से छेड़छाड़, पलायन और लोकायुक्त कानून पर चर्चाएं सुनाई दे रहीं थीं। लेकिन मतदान से ठीक कुछ दिन पहले इन चर्चाओं को मुस्लिम यूनिवर्सिटी, यूनिफाॅर्म सिविल कोड, धारा 370 और राम मंदिर की चर्चाओं ने कुछ हद तक दबा दिया था। इसलिये मतदान की तिथि तक भाजपा और कांग्रेस में बराबर की टक्कर नजर आने लगी। मतदान से ठीक पहले प्रधानमंत्री मोदी की चुनावी सभाओं ने भी 2017 की मोदी लहर को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया। ऊपर से आप चाहे कितना भी ‘‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’’ की बात करें मगर इस हिन्दू बहुल राज्य में हिन्दू जनमानस को झकझोरने के साथ ही साम्प्रदायिक ईर्ष्या पैदा करने का भी प्रयास किया गया। जिस भूमि कानून के साथ 2017 से निरन्तर छेड़छाड़ कर गरीबों की जमीनें लुटवाने का प्रयास किया गया उस कानून से ध्यान हटाने के लिये पहाड़ों में मस्जिदों की बाढ़ आने का प्रचार किया गया। इस तरह के धार्मिक ध्रुवीकरण से भाजपा ने अपनी स्थिति में सुधार तो किया ही साथ ही फौजियों के 90 हजार से अधिक पोस्टल वोटों ने भी भाजपा की मरती हुयी संभावनाओं को जीवित रखा। इन तमाम परिस्थितियों के कारण कांग्रेस और भाजपा के बीच मुकाबला कांटे का होता गया। इन तमाम परिस्थितियों के चलते कांग्रेस की संभावनाएं पूरी तरह मरी नहीं हैं। सरकारी कर्मचारी तथा पुलिसकर्मियों ने सपरिवार कांग्रेस का साथ दिया। प्रदेश की आबादी में अनुसूचित जातियां 19 प्रतिशत और अल्प संख्यक 14 प्रतिशत हैं और यह वोट इस बार कांग्रेस की ओर झुका हुआ था। इसलिये कांग्रेस ने अगर 36 का आंकड़ा पार नहीं भी किया तो भी वह सिंगल लार्जेस्ट पार्टी अवश्य बन सकती है। लेकिन जरूरी नहीं कि सीटों में आगे रहने के बावजूद कांग्रेस को भाजपा सरकार बनाने दे देगी। 

कांग्रेस भाजपा के बीच 62-63 सीटों का बंटवारा

चूंकि केन्द्र और राज्य की खुफिया ऐजेंसियां भी भाजपा के हाथ में हैं इसलिये उम्मीद की जा रही है कि भाजपा नेतृत्व को चुनावी संभावनाओं की पूरी जानकारी हो चुकी होगी। वैसे भी भाजपा और आरएसएस के तंत्र को जमीनी हकीकत का पता चल चुका होगा। मतगणना से पहले भाजपा नेतृत्व द्वारा जिस तरह रमेश पोखरियाल निशंक जैसे दिग्गजों को तलब किया जा रहा है, उससे भी संकेत मिल रहा है कि पार्टी द्वारा जोड़तोड़ की पूरी तैयारियां की जा रही हैं। ऐसा अनुमान है कि बहुजन समाज पार्टी हरिद्वार और उधमसिंहनगर जिले में तीन सीटें तक प्राप्त कर सकती है। इसी प्रकार एक या दो सीट उक्रांद को भी मिलने की संभावना व्यक्त की जा रही है। इस बार भी दो या तीन निर्दलियों के चुने जाने की भी संभावना है। इस तरह देखा जाय तो कांग्रेस और भाजपा को बंटवारे के लिये 62 या 63 सीटें ही बचती हैं। भले ही कांग्रेस को 40 का आंकड़ा पार होने की उम्मीद है, लेकिन हालात बताते हैं कि अगर कांग्रेस कुछ ज्यादा सीटें जीत कर 36 या उसके आसपास भी पहुंचती है तो भी भाजपा आसानी से कांग्रेस के हाथ सत्ता नहीं जाने देगी।

विजय वर्गीय को यूं ही नहीं भेजा गया उत्तराखण्ड

गोवा और मणिपुर के अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि अगर कांग्रेस अन्य दलों से अधिक 34 सीटें लेकर सबसे बड़ा दल बन भी गयी, तो भाजपा 29 सीटें जीत कर भी सरकार बना सकती है। वह इसलिये कि बसपा प्रमुख मायावती का झुकाव भाजपा की ओर है। अगर बसपा के तीन विधायक भी आये तो भाजपा पक्ष की संख्या 32 हो जायेगी। उक्रांद के जिस नेता की जीत की संभावना प्रकट की जा रही है उसका इतिहास भाजपा की नजदीकियों से भरा पड़ा है। निर्दर्लियों को जो ऊंचे दाम देगा वे उसी का साथ देंगे और समझा जा सकता है कि हाॅर्स ट्रेडिंग की स्थिति में कौन मालदार हाथ मार सकता है। विजय वर्गीय को यूं ही उत्तराखण्ड नहीं भेजा गया। कुछ कांग्रेसी यहां तक आशंकित हैं कि बहुमत आने के बाद भी उसके विधायकों को 2016 की तरह तोड़ा जा सकता है और इसके लिये सेंधमारी शुरू हो गयी है। इसीलिये नव निर्वाचित कांग्रेस विधायकों को सीधे राजस्थान या अन्य कांग्रेस शासित राज्यों में भेजा जा सकता है।

इस बार भी त्रिशंकु विधानसभा की संभावना

उत्तराखण्ड में सन् 2002 में हुये पहले विधानसभा चुनाव से लेकर 2017 तक कुल 4 चुनाव हुये हैं और जनता ने 2017 के अलावा किसी भी अन्य चुनाव में किसी दल को खुल कर समर्थन नहीं दिया। पहले चुनाव में उत्तराखण्ड की जनता ने भाजपा की अंतरिम सरकार को दंडित अवश्य किया और उसे 70 में से केवल 19 सीटों पर समेट दिया था। जबकि कांग्रेस को कामचलाऊ 36 सीटें ही मिलीं थीं। 2007 के चुनाव में भाजपा ने भले ही सरकार बनायी हो मगर उसे बहुमत से दो कम 34 सीटें ही मिलीं थी। इसी प्रकार तीसरे विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला, मगर कांग्रेस ने सिंगल लार्जेस्ट पार्टी होने के नाते सरकार बना ली। उस समय कांग्रेस को 32 और भाजपा को 31 सीटें मिली थीं। लेकिन वह दौर कुछ और था और 2014 के बाद का दौर कुछ और ही है। सन् 2017 के मणिपुर चुनाव में कांग्रेस को 28 और भाजपा को मात्र 21 सीटें मिली थीं, फिर भी भाजपा ने सरकार बना ली। इसी प्रकार 2017 के ही चुनाव में गोवा में कांग्रेस को 17 और भाजपा को 13 सीटें ही मिली थीं फिर भी सरकार भाजपा की ही बनी। इसलिये सिंगल लार्जेस्ट पार्टी होना सत्ता की गारंटी नहीं रह गयी है। महाराष्ट्र में तो भाजपा भी सिंगल लार्जेस्ट पाटी थी लेकिन सरकार किसी और ने बना ली। वैसे आज के युग में बहुमत हासिल करना भी सत्ता की गारंटी नहीं रह गयी।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल देहरादून में रहते हैं।)

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