भाजपा अंततः वक्फ़ बिल 2024 संसद की दोनों सदनों में पारित कराने में कामयाब रही। भाजपा का समर्थक वर्ग काफी अर्से बाद एक बार फिर गर्मी में ठंडक का अहसास कर रहा है। कई दशकों से आरएसएस और उसके शाखा संगठनों द्वारा चलाए गये अभियान में मुस्लिम समुदाय की वक्फ़ संपत्ति जो आँखों में खटक रही थी, उसमें सेंधमारी की गुंजाइश पैदा हो गई है। लेकिन यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि संघ के लोग जैसा अंजाम देखना चाहते हैं, वैसा ही ठीक-ठीक भविष्य में देखने को मिले।
पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश सहित विभिन्न राज्यों में अल्पसंख्यक समुदाय सड़कों पर विरोध प्रदर्शन के लिए निकल चुका है। धारा 370 को निरस्त करते समय तो जम्मू-कश्मीर की राज्य सरकार पहले ही बर्खास्त की जा चुकी थी, और राज्यपाल के माध्यम से केंद्र सरकार और सशस्त्र बलों को बड़े पैमाने पर राज्य में तैनात कर किसी भी प्रकार के विरोध की गुंजाइश ही खत्म कर दी गई थी। लेकिन पूरे देश को कैसे आपातकाल लगाकर बंद किया जा सकता है?
बीजेपी की ओर से लगातार दावा किया जा रहा है कि इस बिल के अमल में आ जाने से गरीब मुसलमान और महिलाओं का भला हो जायेगा, सच्चर आयोग की सिफारिशों को अब भाजपा सरकार गरीब मुस्लिमों के हक़ में लागू कर सकेगी। लेकिन किसी अल्पसंख्यक समुदाय के लिए, उसी समुदाय के पुरखों द्वारा दान की गई संपत्ति की देखरेख और विवादित मामलों का निपटान दूसरे धर्म का व्यक्ति, अधिकारी कैसे कर सकता है? यह सवाल न सिर्फ मुस्लिम समुदाय को हैरान-परेशान कर रहा है, बल्कि अन्य अल्पसंख्यक समुदायों सहित अमन पसंद, धर्मनिरपेक्ष हिंदुओं के भी गले नहीं उतर रहा।
एक बात जिस पर लोग अब ध्यान देने के लिए मजबूर हो रहे, कि आखिर भाजपा वक्फ़ बिल 2025 में ही क्यों पारित कराने के लिए दोनों सदन में लाई, जब 2014-2024 तक पूरे 10 वर्ष उसके पास लोकसभा में अपने दम पर पूर्ण बहुमत था? मोदी सरकार चाहती तो 2024 में ही वक्फ़ बिल 2024 को जेपीसी में भेजने के बजाय अपने संख्या बल के आधार पर लोकसभा में पारित करा सकती थी, और राज्य सभा में भी वह जैसे अन्य बिलों को मैनेज कर लिया करती थी, करा सकती थी?
यहीं पर वह राज छिपा है, जिसके बारे में सूत्र वाक्य बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा लोकसभा चुनाव की तैयारियों के दौरान छोड़ गये थे। नड्डा का साफ़ कहना था कि देश में आने वाले समय में क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व खत्म होने जा रहा है, और केवल राष्ट्रीय दल ही बचेंगे।
बजट सत्र के दौरान, 2 अप्रैल के दिन को ही वक्फ़ संशोधन बिल को पारित कराने की सरकार की मंशा भी अब देश को समझ आने लगी है। देर रात जब लोकसभा में बिल पर वोटिंग हो रही थी, ठीक उसी दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति, डोनाल्ड ट्रंप दुनिया को अपने टैरिफ टेररिज्म के ऐलान से उनकी अर्थव्यवस्था में भूकंप ला रहे थे। अब मोदी समर्थकों को तो यही बताया गया है कि ट्रंप-मोदी की दोस्ती कितनी पक्की है, इसीलिए तो अमेरिका से भी अधिक भारत में डोनाल्ड ट्रंप की जीत को लेकर सोशल मीडिया और यहां तक कि पूजा, अर्चना की गई थी। भारत पर अमेरिका ने 26% टैरिफ लगा दिया है, यह खबर बीजेपी आम समर्थक तक होमियोपैथी की मीठी गोली की तरह लगे, इसके लिए उन्हें कोई ऐसी डोज देनी अति आवश्यक थी। उसी का नाम है वक्फ़ संशोधन 2024।
लेकिन इस तीर से दो-दो निशाने साधे गये हैं, जिसके लिए भाजपा-आरएसएस की कूटनीतिक दृष्टि की सराहना किये बिना नहीं रहा जा सकता। इस बिल ने देश के अल्पसंख्यकों के सामने कई कथित धर्मनिरपेक्ष दलों की कलई पूरी तरह से खोलकर रख दी है। इसका नतीजा सबसे पहले जनता दल (यूनाइटेड) को बिहार में देखने को मिल रहा है, जिसके नेता नितीश कुमार कल तक मुस्लिम समुदाय के लिए एक बड़ा सेक्युलर चेहरा बने हुए थे।
लेकिन वक्फ़ मुस्लिम समुदाय के लिए उनके दिलों के इतने करीब है कि उस समुदाय के एक-एक व्यक्ति तक यह बात बखूबी जा रही है कि तथाकथित सेक्युलर दलों ने यदि संसद में बिल का विरोध किया होता तो बीजेपी की मंशा किसी हाल में पूरी नहीं हो सकती थी। जेडीयू के 12 सांसद, टीडीपी के 16, राष्ट्रीय लोकदल के 2 और लोक जनशक्ति पार्टी के ही 5 सदस्यों की कुल संख्या 35 होती है. लोकसभा में बिल के पक्ष में कुल 288 वोट पड़े, जिसमें से यदि इन 35 वोटों को निकाल दें तो बिल के समर्थन में मात्र 253 वोट पड़ते, जो बिल पारित कराने के लिए जरुरी 272 वोट से 19 कम रह जाते।
जबकि दूसरी ओर, इंडिया गठबंधन बिल के विरोध में पूरी तरह से एकजुट दिखा, और बिल के विरोध में 232 वोट पड़े. इसके लिए शिवसेना (ठाकरे) गुट को भाजपा और शिंदे गुट निशाने पर भी ले रही है, कि उद्धव ठाकरे ने अपने पिता बाल ठाकरे के हिंदुत्व के साथ धोखा किया। लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि उद्धव ठाकरे ने भाजपा के हिंदुत्ववादी राजनीति का स्वाद चख लिया है, वर्ना अपने हिंदू आधार को खोने का भय ठाकरे सहित कई अन्य साझीदार दलों को इस तरह मजबूती से खड़े होने से रोकता। इंडिया गठबंधन के लिए यह अग्नि परीक्षा देखें तो लाभदायक सिद्ध हुई है।
जेडीयू से मुस्लिम समुदाय के नेताओं और कार्यकर्ताओं का पलायन फिलहाल ब्रेकिंग न्यूज़ बनी हुई है, जिसका सीधा फायदा राजद को होता दिख रहा है। जिस बिहार को पिछले 3 दशक से भी अधिक समय तक लालूप्रसाद यादव और नितीश कुमार की समाजवादी राजनीति ने अपने जादू में समेट रखा था, उसके दिन लद चुके। इसके साथ ही चिराग पासवान के पंख भी अपनेआप कतरे जा चुके हैं, जिनके पास अपने समुदाय के वोटों के अलावा मुस्लिम मतदाताओं पर भी पकड़ थी। अब लोक जनशक्ति पार्टी को जीत के लिए पूरी तरह से बीजेपी पर आश्रित रहना पड़ेगा।
ऐसा ही और शायद इससे भी बुरा हाल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल का भी है। राजनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि वक्फ़ बिल पर बीजेपी के आगे झुकने से प्रदेश में आरएलडी के पास सिर्फ जाट वोट का ही सहारा रहेगा, जबकि एक विधानसभा सीट जीतने के लिए किसी भी दल को विभिन्न समाजों का समर्थन आवश्यक होता है।
यह हाराकिरी इन क्षेत्रीय दलों को आखिर क्यों करनी पड़ी? क्या सरकार में बने रहने के लाभ उन्हें अपने वोट बैंक से दूर ले जाने में मददगार बने, या निकट भविष्य में इन दलों के मुखियाओं को लगता है कि बीजेपी में विलय ही उनके लिए सबसे बेहतर निवेश होगा?
भाजपा ने एक बिल से जीतन राम मांझी, अजित पवार, जेडीएस सहित बीजद और टीडीपी यानि अपने सभी गठबंधन के साझीदारों और तटस्थ दलों की मध्यमार्गी राजनीति का नकाब नोच फेंका है, जिसका तात्कालिक लाभ पार्टी को हो सकता है। लेकिन क्या भाजपा कहीं कोई बड़ी रणनीतिक चूक नहीं कर गई?
2014 से पहले जब भी बीजेपी केंद्र की सत्ता तक पहुंची थी, उसके लिए व्यापक पहुंच बनाने और स्वीकार्य बनाने में पंजाब में अकाली दल से लेकर तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक या ओडिसा में बीजू जनता दल ने अहम भूमिका निभाई थी। 2014 लोकसभा चुनाव में भले ही पहली बार भाजपा अपने दम पर पूर्ण बहुमत पाने में सफल रही, लेकिन इसके लिए सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही पार्टी ने छोटे-छोटे दलों के साथ गठजोड़ कर बड़ा सोशल इंजीनियरिंग तैयार किया था। यही काम बिहार में उसके लिए नितीश सहित अन्य छोटे दल किया करते थे। ये वे दल हैं जो अति पिछड़ा, महादलित, महिला और मुस्लिम वोटों का एक हिस्सा अपने साथ लाया करते थे।
इसलिए, आज भले ही केंद्र की भाजपा सरकार अपने ही मतदाताओं को खुश करने के लिए वक्फ़ संशोधन बिल की सौगात-ए-मोदी का आनंद दिलाने में गर्व कर रही हो, लेकिन इससे उसके मतदाता आधार में कोई बढ़ोत्तरी नहीं होने जा रही। पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार, ओडिसा, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक जैसे राज्यों में कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के साझीदार दल मुस्लिमों और दलितों के बीच अपने आधार को पहले से ज्यादा पुख्ता करते दिखेंगे, जबकि भाजपा के पास लिबरल हिंदू से कट्टर हिंदू वोटबैंक तक सिमट जाने की पूरी-पूरी संभावना उसके आर्थिक नीतियों के चलते खुद-ब-खुद बनती जा रही है।
आज नितीश कुमार की अवसरवादी धर्मनिरपेक्षतावाद का पटाक्षेप हुआ है, और उनके दल का सिराजा जल्द ही बिखरकर भाजपा और राजद/कांग्रेस में समा जाने वाला है। लेकिन अंत में भारतीय समाज की विविधता ही भारतीय लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए काम आने वाली है, जिसे अंत में भारत का लिबरल बुद्धिजीवी भारत में लिबरल डेमोक्रेसी की गहरी नींव बताकर ढांप देता है।
अंत में, कांग्रेस को संभवतः आखिरकार समझ आ गया है कि वह पिछले कई दशकों से किस मिसिंग लिंक की वजह से या तो लगातार हारती जा रही थी, या बैसाखियों के सहारे केंद्र की सत्ता में रहकर बिग कॉर्पोरेट और हिंदुत्ववादी शक्तियों की आक्रामकता से खुद को बचाने की नाकाम कोशिश करते हुए अपनी भद्द पिटवा रही थी। कांग्रेस दलित, अल्पसंख्यक वर्ग के अपने कोर वोट को हासिल करने की जीतोड़ कोशिश में जुटने के साथ-साथ अब जिला स्तर पर पार्टी के संगठन को मजबूत करने और इसमें इन तबकों को नेतृत्वकारी भूमिका में रख नए सिरे से पार्टी निर्माण के अभियान में जुट गई है, जिसे वह कभी का भुला चुकी थी।
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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