पश्चिम बंगाल उप चुनाव: पहली बार सीपीआई (एमएल) उम्मीदवार को लेफ्ट फ्रंट का समर्थन 

जून 2024 के लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद जब सारे देश का ध्यान जम्मू-कश्मीर और हरियाणा विधानसभा चुनावों के बाद झारखंड और महाराष्ट्र के चुनावी नतीजों पर टिका हुआ है, पश्चिम बंगाल में एक नई परिघटना देखने को मिल रही है। यहाँ भी 6 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव हो रहे हैं, जो 13 नवंबर को होंगे।

पहली बार लेफ्ट फ्रंट के भीतर सीपीआई(एमएल) लिबरेशन की एंट्री का विशेष महत्व है। नॉर्थ 24 परगना की नैहाटी विधानसभा सीट को सीपीआई(एम) ने एमएल उम्मीदवार, देबज्योति मजूमदार के लिए छोड़ा है।

1969 से इस सीट पर सीपीआई (एम) की दावेदारी थी, जिसे 1972, 1987 और 1991 में कांग्रेस ने जीता था, जबकि बाकी समय यह सीट 7 बार सीपीआई(एम) के विभिन्न उम्मीदवारों ने जीती थी। लेकिन 2011 से तृणमूल कांग्रेस लगातार इस सीट पर काबिज रही है, और हर बार टीएमसी के पार्थ भौमिक यहां से जीतते आए हैं।

2024 लोकसभा चुनावों में बैरकपुर से पार्थ भौमिक की जीत के बाद खाली हुई इस सीट पर अब सीपीआई(एम) ने अपनी दावेदारी छोड़कर नई शुरुआत की है।

इस उपचुनाव में एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बार लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस के बीच सीटों को लेकर कोई समझौता नहीं हुआ है। संख्या बल के लिहाज से भी इन उपचुनावों से राज्य सरकार की स्थिरता पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि 294 सीटों वाली विधानसभा में तृणमूल के पास पहले से ही 215 सीटों का बहुमत है, जो आवश्यक से काफी अधिक है।

पिछले विधानसभा चुनाव में सीपीआई(एमएल) ने 24 सीटों पर लेफ्ट फ्रंट को समर्थन देने की घोषणा की थी, और समग्र रूप से “नो वोट फॉर बीजेपी” अभियान में स्वतंत्र वाम शक्तियों के साथ अभियान में हिस्सा लिया था।

तब लेफ्ट फ्रंट के प्रमुख दल सीपीआई(एम) ने इसे परोक्ष रूप से तृणमूल कांग्रेस के लिए प्रचार माना था, जिससे पहले से बनी दूरी में थोड़ी कडुवाहट ही बढ़ी थी।

लेकिन ऐसा लगता है कि बिहार विधानसभा में सीपीआई(एमएल) की 12 सीटों पर जीत और 2024 में 2 लोकसभा सीटों पर मिली सफलता ने वाम मोर्चे के नीति-निर्धारकों को पुनर्विचार करने पर मजबूर कर दिया है।

यदि 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव का विश्लेषण किया जाए, तो यह लेफ्ट फ्रंट का राज्य में इतिहास का सबसे खराब प्रदर्शन था।

उस चुनाव में लेफ्ट फ्रंट एक भी विधानसभा सीट नहीं जीत सका था और मत प्रतिशत भी केवल 4.73% था, जो विशेष रूप से सीपीएम के लिए शर्मनाक स्थिति थी। 34 वर्षों तक लगातार सत्ता में रहने वाली पार्टी के लिए यह वास्तव में शोचनीय स्थिति थी।

इस स्थिति को देखते हुए नैहाटी की सीट को सीपीआई(एमएल) के लिए खाली करना किसी रणनीतिक पहल के बजाय एक चुनावी कार्यनीति का हिस्सा ही प्रतीत होता है। 2019 में बीजेपी की अप्रत्याशित जीत और त्रिपुरा में वाम मोर्चे के किले को ध्वस्त कर देने के बाद संघ और भाजपा ने 2021 में पश्चिम बंगाल को जीतने का निश्चय कर लिया था।

इस खतरे को पहचानते हुए बंगाल की स्वतंत्र वाम और लोकतांत्रिक शक्तियों ने जो अनूठा अभियान चलाया, उसमें लगभग सारा पश्चिम बंगाल मोदी विरोध या समर्थन में ध्रुवीकृत हो चुका था। उस समय पश्चिम बंगाल में भाजपा के रथ को रोकना कितना जरूरी था, इसका आकलन आज पूरी तरह नहीं किया जा सकता।

2019 में भाजपा ने ओडिशा में भी यही प्रयास किया था, लेकिन यह सफलता उसे 5 साल बाद 2024 में मिली। हालांकि, इस जीत का जश्न बड़े पैमाने पर नहीं मनाया जा सका, क्योंकि भाजपा और मोदी की लोकप्रियता उनके ही मजबूत गढ़ उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और हरियाणा में काफी हद तक घट चुकी थी।

लिबरेशन के उम्मीदवार, देबज्योति मजूमदार, एक सेवानिवृत्त बैंक कर्मचारी हैं जिनकी जूट मजदूरों के बीच में अच्छी लोकप्रियता है। वैसे सीपीआई(एमएल) ने पिछले कुछ चुनावों में इस सीट पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं।

2011 में पार्टी को 1,547 वोट हासिल हुए थे, जबकि 2016 में यह संख्या घटकर 1,191 हो गई थी। 2021 में सीपीआई(एमएल) ने इस सीट पर ‘भाजपा हराओ’ अभियान के तहत अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था।

पिछले चुनाव परिणामों पर गौर करें तो तृणमूल को करीब 50% वोट हासिल हुए थे, जबकि भाजपा की फाल्गुनी पात्रा को करीब 38% मत मिले थे। सीपीआई(एम) का मत प्रतिशत 2016 के अपने 31% से घटकर केवल 10% रह गया था।

इस वाम एकता के निहितार्थ

राज्य में वाम दलों की विधानसभा और लोकसभा में उपस्थिति शून्य हो चुकी है। ऐसे में यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि सीपीआई(एमएल) एक सीट पर संयुक्त उम्मीदवार खड़ा करके इस स्थिति को पूरी तरह से बदल देगी।

हां, 2021 के विधानसभा चुनाव में हालात कुछ ऐसे बने थे कि भाजपा के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को विफल बनाने के लिए आम मतदाता ने अनिच्छा से तृणमूल पार्टी के पक्ष में माहौल बनाया था।

लेकिन जीत के बाद और हाल के दिनों में आरजी कर मेडिकल कॉलेज कांड ने पश्चिम बंगाल के जनमानस को एक बार फिर से पुनर्विचार करने के लिए मजबूर कर दिया है।

वाम मोर्चे के सबसे बड़े साझीदार सीपीआई(एम) को महसूस हो रहा है कि शायद यह पहला मौका है जब आम मध्य वर्ग तृणमूल और भाजपा की रस्साकशी से उभरने की सोच सकता है।

संभवतः इसी कारण इस बार जिन 5 सीटों पर चुनाव हो रहा है, उनमें वाम मोर्चे के प्रत्येक दल को प्रतिनिधित्व करने का मौका दिया गया है।

मजूमदार के अलावा, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक के अरुण कुमार बर्मा सिताई से, आरएसपी के पदम ओरांव मदारीहाट से, सीपीआई के मणि कुंतल खामुरई मेदनीपुर से और सीपीआई(एम) के देबकांति मोहंती तालडंगरा से चुनावी मैदान में हैं।

हालांकि, वाम दलों की इस चुनावी एकता से शायद ही कोई बड़ा बदलाव संभव हो सके। पश्चिम बंगाल के अनुभव से यह स्पष्ट है कि राज्य में आज भी व्यापक स्तर पर वाम-जनवादी शक्तियों के लिए स्थान है, लेकिन मौजूदा राजनीतिक विकल्प शायद अपनी भूमिका को प्रभावी ढंग से निभाने में बार-बार विफल हो रहे हैं।

वाम दलों के कार्यकर्ता बड़ी संख्या में उस विकल्प की ओर आकर्षित होते हैं, जो फासीवादी ताकतों को चुनावी शिकस्त देने के लिए एक औपचारिक रणनीति के साथ सामने आता है।

राष्ट्रीय स्तर पर वामपंथ की सिमटती भूमिका और राज्यों में मुकम्मल विकल्प खड़ा करने के अभाव में, केवल चुनावी समीकरण साधने की इच्छा से आज वाम दलों को अधिक ठोस रणनीति अपनाने की आवश्यकता है।

अगर वामपंथी दल जनता की अपेक्षाओं को सही मायने में समझते हैं और अपनी भूमिका को पुनः परिभाषित करते हैं, तो वे बड़ा जनाधार हासिल कर सकते हैं। देखना यह है कि संसदीय वाम नेतृत्व कब इसके लिए अपने भीतर जगह तैयार करता है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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