आरएसएस चीफ मोहन भागवत ने आखिर किसे ट्रोल किया?

Estimated read time 1 min read

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कल गुरुवार, 18 जुलाई को झारखंड में संघ के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कुछ ऐसी बात कह डाली, जिसको लेकर कल शाम से ही पूरे देश में चर्चा का बाजार गर्म है। उन्होंने कहा कि एक व्यक्ति ‘देवता’ बनने की आकांक्षा रख सकता है, लेकिन इस बात पर अनिश्चितता बनी रहती है कि वह इसमें सफल होगा या नहीं।

वायरल वीडियो क्लिप में साफ़ देखा जा सकता है कि मोहन भागवत की भाषा में व्यंग्य का पुट है, जिसे वे यथासंभव कम करने की कोशिश का रहे हैं। लेकिन वे अपनी बात को आधे रास्ते पर नहीं रखना चाहते। मोहन भागवत के शब्दों में, “लेकिन मनुष्य से कोई होते अतिमानव, जिसे सुपरमैन कहते हैं। कोई व्यक्ति खुद को सुपर मैन बनाने की कोशिश करने लगता है, जैसा फिल्मों में दिखाते हैं। कि अलौकिक शक्तियां होती हैं जिनके पास में। तो फिर मनुष्य अलौकिक बनना चाहता है, सुपरमैन बनना चाहता है, अति मानव बनना चाहता है। लेकिन वह वहां रुकता नहीं, उसको लगता है कि देव बनना चाहिए। तो वह देवता बनना चाहता है। लेकिन देवता कहते हैं कि हमसे तो बड़ा तो भगवान है। तो वह भगवान बनना चाहता है। भगवान कहता है कि मैं तो विश्व रूप हूं। अभी तो आपको मैं एक रूप में दिख रहा है, मेरा तो सारे विश्व में व्याप्त निराकार रूप है। वो मेरा असली स्वरूप है। तो वहां भी कुछ है रुकने की जगह या वहां से भी आगे है कुछ है, ये कोई जानता नहीं है…।”

कल के इस वीडियो ने पूरे देश को एकबारगी चौंका दिया। यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये आरएसएस के सर संघचालक स्वंय बोल रहे हैं। झारखंड में संघ के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने जो भी कहा, वह काम तो प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी कल तक कर रहे थे। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर दस साल बाद यह स्थिति कैसे आ गई, कि जिस राजनीतिक संगठन को एक समय खुद पालपोसकर आगे बढ़ाया था, उसके ही मौजूदा मुखिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही खिलाफ संघ के कार्यकर्ताओं के सामने खिल्ली उड़ाने की नौबत आन पड़ी?

लव-हेट रिलेशनशिप

बता दें कि इससे पहले भी, लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीटों में 60 से अधिक की गिरावट के बाद आरएसएस सरसंघचालक भागवत ने कहा था कि एक ‘सच्चा सेवक’ अहंकारी नहीं होता। तब भी माना जा रहा था कि उनकी यह टिप्पणी व्यापक रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लक्षित करके की गई थी। हाल के दिनों में, भाजपा और उसके मूल संगठन आरएसएस के बीच संबंधों में दरारें उभर कर सामने आने लगी थीं, जब लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने द इंडियन एक्सप्रेस को दिए गये एक साक्षात्कार में स्पष्ट कहा था कि पहले भाजपा को आरएसएस की जरूरत थी, लेकिन अब पार्टी खुद में इतनी बड़ी हो चुकी है कि वह अपना संचालन करने में स्वंय समर्थ है। इसके साथ ही उन्होंने स्पष्ट किया था कि आरएसएस असल में एक सांस्कृतिक मोर्चा है।

कथित तौर पर कहा जा सकता है कि ये टिप्पणियां संघ के शीर्ष नेतृत्व को नागवार गुजरी हैं, जो चुनाव परिणामों के बाद से ही मुखर रूप से सामने आने लगी हैं। लोकसभा चुनाव में भाजपा अपने दम पर बहुमत हासिल करने में विफल रही है, इसने भी आरएसएस के हौसले को बुलंद करने का काम किया है। संघ को उम्मीद थी कि बहुमत से पीछे रहने की स्थिति में इस बार उसके पास सरकार का मुखिया चुनने से लेकर नीतियों को तय करने का मौका आ गया है, लेकिन हद तो तब हो गई जब 4 जून की शाम नरेंद्र मोदी ने अल्पमत में होने के बावजूद खुद को तीसरी बार बहुमत हासिल करने का हकदार बता दिया और शपथ ग्रहण की तैयारियां शुरू कर दी थीं।

सरकार बनाने की कवायद के लिए जरुरी औपचारिकताओं की भी जरूरत नहीं समझी गई। विपक्ष तो माने बैठा था कि यदि वह बहुमत के नजदीक भी आ जाती है, तो भी राजसत्ता के लिए काफी उठापटक हो सकती है, और धन बल एवं कॉर्पोरेट की ताकत के बल पर सत्ता पक्ष इंडिया गठबंधन में तोड़फोड़ कर सकता है। लेकिन उसकी नौबत ही नहीं आई, और विपक्ष के साथ-साथ आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व के हाथ में भी करने को कुछ खास नहीं रहा।

लेकिन पिछले कुछ अर्से से आरएसएस को गहराई से महसूस हो रहा है कि अब उसे मोदी-शाह की जोड़ी से लाभ की बजाय नुकसान ज्यादा हो रहा है। इसे वह अपने संगठन में भी देख रहा है, भाजपा के भीतर तो संगठनात्मक ठांचा पूरी तरह से चरमरा चुका है। चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान देश ने देखा कि किस प्रकार से सारा चुनाव ही मोदी के चेहरे पर लड़ा गया। नरेंद्र मोदी की ब्रांडिंग पर भाजपा को कुर्बान किया जा चुका है। किसी राज्य में विधानसभा चुनाव के लिए भी मतदाताओं के सामने मोदी के चेहरे को आगे किया जाता है। आरएसएस के लिए शिक्षा के क्षेत्र में ही गुंजाईश है, इसके अलावा उसकी कोई उपयोगिता नहीं है। ऐसे में, कमजोर संगठन और शक्तिहीन कार्यकर्ता कल मोदी के बगैर स्वतः ध्वस्त होने के लिए अभिशप्त हैं।

आरएसएस इस खतरे को भांप रहा है। भारत को हिन्दुत्ववादी एजेंडे पर चलाकर हिंदू राष्ट्र, अखंड भारत, समान नागरिक संहिता इत्यादि अनेकों ऐसे मुद्दे हैं, जिसे संघ साकार होते देखना चाहता है। ऐसा भी नहीं है कि उसे मोदी राज में धन-वैभव की कोई कमी हो। उसके पास अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के एजेंडे को आगे बढ़ाने पर भी कोई रोकटोक नहीं है। लेकिन एक व्यक्ति के भीतर सारी शक्तियों के समुच्चय और पार्टी संगठन को पूरी तरह से दरकिनार कर देने की स्थिति ने आरएसएस को पूरी तरह से असहज कर रखा था।

सत्ता की चाह में भाजपा का शीर्ष नेतृत्व विपक्ष के दागी नेताओं को गले लगाने से भी परहेज नहीं करता। पूरे देश में पहले विपक्ष के नेताओं विशेषकर जिनके ऊपर कथित भ्रष्टाचार का शक हो, को पहले निशाने पर लिया जाता है। फिर राज्य सरकारें तोड़कर इन नेताओं को मंत्री, सांसद और यहां तक कि उप-मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री तक बना दिया जाता है। संघ के कार्यकर्ताओं के बीच में काफी अर्से से इस बात को लेकर गहरा क्षोभ व्याप्त है। कल तक जिस विपक्षी नेता के खिलाफ सडकों पर नारे लगाये जाते थे, आज उन्हीं को बचाने के लिए जुबान टेढ़ी करनी पड़ती है।

कुलमिलाकर देखें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बने रहने की स्थिति में संघ और उसके लाखों कार्यकर्ताओं की स्थिति देखने में तो अच्छीखासी लग सकती है, लेकिन उन्हें लगता है कि हिंदुत्व की विचारधारा को बड़े पैमाने पर दूषित किया जा चुका है। कल तक संघ के बारे में प्रचलित था कि उसके पूर्णकालिक कार्यकर्ता त्याग और बलिदान की मिसाल हैं, लेकिन आज वे आधुनिकतम सुख-सुविधाओं का लुत्फ़ उठा रहे हैं। निश्चित तौर पर संघ को महसूस हो रहा है कि अगर यही स्थिति रही तो उसका नैतिक आधार समाज के भीतर से पूरी तरह से खत्म हो सकता है।

सर्वकालिक बने रहने की लालसा

वैसे भी आरएसएस से निकले तमाम आनुषांगिक संगठनों में से एक भाजपा से खुद को ऊपर मानना, आरएसएस का स्वाभाविक अधिकार है। लेकिन वह यह भी मानकर चलता है कि भारत में उसकी स्वीकार्यता हमेशा बनी रहे। उसने भले ही देश की आजादी में कोई योगदान न दिया हो, उसके बावजूद उसने धीरे-धीरे हिंदू समाज के भीतर अपनी स्वीकार्यता बढ़ाई, और आज वह आधुनिक मध्यवर्गीय समाज के भीतर भी इतनी मजबूती के साथ जडें जमा चुका है कि उसे अपदस्थ करने के लिए समाज में एक बड़े सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत पड़ेगी, जिसे निकट भविष्य में कोई भी सामजिक शक्ति करती नहीं दिखती।

इन 100 वर्षों में आरएसएस ने भारतीय समाज के भीतर खुद को धीरे-धीरे अनुकूलित किया है। आज दक्षिणपंथी विचारधारा भारतीय समाज की मुख्यधारा बन चुकी है, जिसे समाज और व्यवस्था के सभी अंगों में साफ़-साफ़ महसूस किया जा सकता है। संघ सनातन और आधुनिक पूंजीवाद के अंतर्विरोध को भी उसी तरह साधने की चाह रखता है, जैसे वह मनुस्मृति और साथ ही दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को भी हिंदुत्व के फोल्ड में अधिकाधिक समेटने में सफल रहा है। मुख्यधारा में बने रहते हुए भी वह हिन्दुत्वादी दक्षिणपंथी विचारधारा को प्रभुत्वकारी बनाने का पक्षधर है, लेकिन यह कुछ इस प्रकार से हो कि रस्सी भी जल जाये और बल भी न पड़े।

सबकुछ इतना सहनीय स्तर पर बना रहे कि शोषितों को महसूस ही न हो कि उनका शोषण भी हो रहा है। हिदुत्ववादी प्रयोगशाला से पिछले तीन-चार दशकों से एकाधिकार पूंजी की अच्छी सेवा हो सकी है, लेकिन कोविड महामारी के बाद तो इसमें भयंकर उछाल आ चुका है। स्थिति इतनी विस्फोटक हो चुकी है कि क्या मुस्लिम, सिख, दलित, आदिवासी या गरीब और मध्य वर्गीय हिंदू, लगभग सभी वर्गों में बेरोजगारी और महंगाई की मार ने उसे बेदम कर डाला है। मोदी राज के पहले कार्यकाल में भले ही भीड़ की हिंसा के जरिये मुस्लिमों को ही मुख्य निशाने पर लिया गया हो, लेकिन इसके बाद के हालातों में हिंदू बहुसंख्यक आबादी भी इससे अछूती नहीं रह सकी है।

अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के भव्य आयोजन के बावजूद करारी हार ने आरएसएस के कान खड़े कर दिए हैं। उसे पता है कि ऐसे सभी धार्मिक कॉरिडोर में गरीब आम जन के साथ क्या हुआ है। वह अच्छी तरह से समझ रही है कि एक बार राजनीतिक पराभव की जो शुरुआत हुई तो उसके बाद उसे दोबारा उठने के लिए कई दशक लग सकते हैं। इन दस वर्षों के दौरान देश के लोकतांत्रिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्तर पर जो अधोपतन हुआ है, उसकी भरपाई में ही लंबा अरसा गुजरने वाला है। अपनी स्वीकार्यता को बनाये रखने के लिए आरएसएस के लिए आवश्यक है कि वह अभी से सार्वजनिक जीवन में मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा से अपनी दूरी दिखाए। उसके लिए अपना अस्तित्व बचाए रखना सर्वोपरि है, राजनीतिक मोर्चा तो वह जनसंघ के बाद भाजपा को बनाकर पहले ही जान चुका है कि तीसरा या चौथा भी बनाया जा सकता है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author