हमास और हेजबुल्लाह सऊदी अरब समेत दूसरे देशों के इजरायल के साथ रिश्तों के ‘नॉर्मलाइजेशन’ से थे खफा

शनिवार (7 अक्टूबर) को फिलिस्तीन के लड़ाकू संगठन हमास के इजरायल पर हमलों में कम से कम 400 लोग मारे गए और उसके बाद इजरायल के जवाबी हमलों में रविवार तक गाजा पट्टी में 300 लोगों की मौत हुई है।

शनिवार का दिन इजरायल में 1973 के योम किप्पुर युद्ध के बाद अब तक के भयावह हिंसक दिनों में से एक था। इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्यूह ने ‘लंबे और मुश्किल’ युद्ध की चेतावनी देते हुए कहा है कि ‘दुश्मन को अभूतपूर्व कीमत चुकानी होगी’। उसके लंबे समय से सहयोगी अमेरिका ने भी समर्थन का आश्वासन दिया है।

यह स्पष्ट नहीं है कि हमलों का तात्कालिक कारण क्या था, लेकिन कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि हालिया हमले हमास का इजरायल और अन्य पश्चिम एशियाई देशों के बीच ‘नॉर्मलाइजेशन’, जो क्षेत्र के आधुनिक इतिहास में लंबी अवधि तक नहीं हुआ था, के प्रयासों की प्रतिक्रिया है। यहां बता रहे हैं क्यों?

पश्चिम एशिया में ‘इजरायल के साथ रिश्तों के नॉर्मलाइजेशन’ का इतिहास

हमास नेता इस्माइल हनीयह ने अल जज़ीरा टीवी से कहा, “नॉर्मलाइजेशन के सभी करार जो आपने (अरब देशों ने) इजरायल के साथ किए हैं, इस संघर्ष (इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष) को समाप्त नहीं कर पाएंगे।” ईरान समर्थित लेबनानी समूह हिजबुलाह, जो इजरायली सेनाओं पर हमले में शामिल है, ने कहा कि “कार्रवाई इजरायल के जारी कब्जे पर ‘निर्णायक प्रतिसाद’ थी और उनके लिए संदेश, जो इजरायल के साथ नॉर्मलाइजेशन चाहते हैं।”

मुद्दा इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष और इसने क्षेत्रीय राजनीति को कैसे प्रभावित किया है, तक जाता है। एक महत्वपूर्ण कारक यहां यह है कि जेरूसलम शहर और इसके आसपास के क्षेत्र तीन प्रमुख अब्राहमी धर्मों- ईसाइयत, इस्लाम और यहूदी- के लिए धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व रखते हैं। इसलिए, जमीन पर दावे कई समूहों के लिए महत्वपूर्ण हैं।

आधुनिक इतिहास में, दूसरे विश्व युद्ध और यूरोप में यहूदियों पर अत्याचार के बाद पश्चिम एशिया और फिलिस्तीन की तरफ पलायन हुआ। यूनाइटेड किंगडम और फ़्रांस जिन्होंने इस क्षेत्र के हिस्सों का औपनिवेशीकरण किया था, ने भी क्षेत्र की किस्मत तय करने में भूमिका निभाई थी। 1947 में संयुक्त राष्ट्र ने एक विभाजन योजना स्वीकार की और क्षेत्र को अरब और यहूदी हिस्सों में बांटने को स्वीकृति दी लेकिन अरब देशों ने उसे अस्वीकार कर दिया। उसी समय द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद, यहूदियों के लिए ‘वादा की गई जमीन’ का विचार जोर पकड़ रहा था और 1948 में इजरायल राष्ट्र बना।

इससे अरब देशों ने 1948 में इजरायल पर हमला किया जिसे नकबा अथवा तबाही की संज्ञा दी गई। संयुक्त राष्ट्र की विदेशी रिश्तों पर परिषद (सीएफआर) के अनुमान के अनुसार अमेरिका के समर्थन से इजरायल की जीत से 750,000 फिलिस्तीनी विस्थापित हुए। फिलिस्तीनी भू-मध्य सागर और वेस्ट बैंक की सीमा पर गाजा पट्टी में चले गए।

अरब देश और इजरायल को मान्यता से इनकार

क्षेत्र को बांटकर दो देश इजरायल और फिलिस्तीन बनाने के कई प्रयास हुए लेकिन कोई भी प्रयास सभी पक्षों को स्वीकार नहीं हुआ। इस दौरान इजरायल और अरब देशों के बीच कई बार संघर्ष हुआ, जैसे इजरायल ने जब सीरिया से गोलन हाइट्स को लेने का प्रयास किया या सिनई पेनिनसुला कब्जाने का प्रयास किया जो मिस्र को वापस कर दिया गया।

अरब देशों ने इजरायल को मान्यता देने से मना कर दिया और अनौपचारिक रिश्ते ही बनाए रखे। यह स्थिति बदली 1979 में जब अमेरिका ने मिस्र और इजरायल के नेताओं के बीच कैम्प डेविड अकॉर्ड पर वार्ता की और कुछ पारस्परिक रियायतों और करारों पर सहमति बनी लेकिन इसका मतलब क्षेत्र के अन्य कई देशों के बीच तुरंत कूटनीतिक रिश्तों की स्थापना नहीं था।

अब्राहमी अकॉर्ड क्या थे, हाल में नॉर्मलाइजेशन के मामले कैसे हुए? 

ब्रूकिंग्स इंस्टिट्यूट की रिपोर्ट ‘द इमरजेंस ऑफ जीसीसी-इजरायल रिलेशन्स इन अ चेन्जिंग मिडल ईस्ट’ के अनुसार 2002 में सऊदी अरब के नेतृत्व में अरब शांति पहल हुई। इसने 1967 में कब्ज़ाए गोलन हाइट्स समेत क्षेत्रों से इजरायल के पीछे हटने, फिलिस्तीनी शरणार्थी प्रश्न के हल और पूर्वी जेरूसलम को स्वतंत्र फिलिस्तीनी देश की राजधानी स्वीकारने जैसी बातें रेखांकित कीं।

इसके अनुसार केवल तभी अरब जगत और इजरायल के बीच सामान्य रिश्ते हो सकते थे। लेकिन आज उन उद्देश्यों की प्राप्ति के बिना नॉर्मलाइजेशन की बात हो रही है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि 2010 में पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका में कई सरकारों और राजशाहियों का तख्ता पलटने की कोशिशें हुईं, उनके लिए क्षेत्रीय समर्थन जुटाना आवश्यक हो गया।

इजरायल-फिलिस्तीन मुद्दे की दीर्घकालिक प्रकृति और अलग-अलग देशों की बदलती आर्थिक और सामरिक जरूरतों ने भी नॉर्मलाइजेशन को बढ़ावा दिया। सऊदी अरब में क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान अपनी सल्तनत के पारंपरिक आर्थिक हितों के क्षेत्र में विस्तार चाहते हैं। नेतान्याहूं ने भी कुछ सप्ताह पहले कहा कि क्षेत्र में एक ऐतिहाससिक प्रतिद्वंद्वी से करार पर काम हो रहा है और अमेरिका उसे करवाएगा।

इजरायल और संयुक्त अरब एमीरत (यूएई) ने 2020 में एक नॉर्मलाइजेशन करार किया जो अगले वर्ष लागू हुआ। इसमें भी बिचौलिये की भूमिका अमेरिका ने निभाई थी, इस “अब्राहमी समझौते” से यूएई, मिस्र (1979 में) और जॉर्डन (1994 में) के बाद तीसरा अरब देश बन गया जिसने इजरायल से रिश्ते को सामान्य किया। दोनों ने 2022 में कारोबारी करार भी किया।

अब्राहमी समझौतों में पहले यूएई और बहरीन और बाद में सूडान और मोरक्को को शामिल किया गया। जैसा कि इंडियन एक्सप्रेस ने तब रिपोर्ट किया था कि “समझौता इजरायल के वेस्ट बैंक को हड़पने की योजनाओं के निलंबन पर आधारित था, हालांकि उन्होंने ‘समाप्त करने’ की जगह ‘निलंबित करने’ शब्द का इस्तेमाल किया था।

ब्रूकिंग्स रिपोर्ट यह भी कहती है कि अबू धाबी के क्राउन प्रिंस शेख मोहम्मद बिन जाएद अल नहयन के अनुसार, “यूएई और इसके सहयोगियों को मुख्य खतरा बढ़ते ईरान और अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक इस्लामवादियों से है। इजरायल इन्हीं विचारों को साझा करने वाली एक मजबूत क्षेत्रीय ताकत के रूप में देखा जा रहा है इसलिए उसके साथ बेहतर संबंध सामरिक दृष्टि से उचित हैं। इसके अलावा ‘अमरीकी सामरिक क्षेत्र’ के करीब रहने का वायदा भी महत्वपूर्ण कारक है।

पर दूसरा कारक है चीन, जिसने इसी साल सऊदी अरब और ईरान के बीच रिश्तों को सामान्य करने की कोशिश की। हालांकि इन रिश्तों की दीर्घावधि में मजबूती पर सवाल किया जा सकता है लेकिन यह क्षेत्र में एक दूसरे जटिल राजनीतिक मुद्दे पर प्रगति पर ध्यान खींचता है। यह दर्शाता है कि चीन अपने आर्थिक वज़न का इस्तेमाल क्षेत्र में एक हस्ती के रूप में उभरने के लिए कर रहा है। इस क्षेत्र में अब तक अमेरिका की दिलचस्पी ही रही है।

फिलिस्तीन का क्या?

इस संदर्भ में, फिलिस्तीन का मुद्दा पीछे छूट गया था, जबकि लगातार संघर्ष और हिंसा थमी नहीं थी। फिलिस्तीन सरकार ने इनमें से कई करारों की आलोचना की है।

2020 में कार्नेगी एंडोमेन्ट फॉर इंटरनेशनल पीस थिंक टैंक के लिए लेख “विदाऊट फिलिस्तीन इजरायल नॉर्मलाइजेशन इज स्टिल बियोंड रीच” में तर्क दिया गया था कि सही मायने में रिश्ते सामान्य होना तब तक नहीं हो सकता जब तक पिछले कब्ज़ों और चिंता के अन्य बिंदुओं को हल नहीं किया जाता। यह सरकारों के लिए ही नहीं, क्षेत्र के लोगों के लिए भी महत्वपूर्ण है।

लेख के अनुसार “नॉर्मलाइजेशन केवल शीर्ष स्तर पर अधिकारियों के बीच संवाद नहीं है, यह लोगों के बीच संवाद का सवाल है। मिस्र के साथ शांति समझौतों के दशकों बाद, लोगों के बीच नॉर्मलाइजेशन नहीं हो पाया है और सांस्कृतिक स्तर पर संबंध ठंडे ही रहे हैं। अरब देशों के साथ आंशिक या पूर्ण कूटनीतिक संबंधों की घोषणाओं को अरब आबादी की स्वीकार्यता में परिणिति नहीं होती, बशर्ते इसके साथ जमीनी स्तर पर स्वीकायर्ता न जुड़ी हो, जो फिलिस्तीन के सवाल से गुंथी हुई है।

(इंडियन एक्सप्रेस से साभार, अनुवाद- महेश राजपूत।)

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