कर्नाटक में कांग्रेस ने अंततः भावी मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में सिद्धारमैया को ही चुन लिया है। वे कर्नाटक की जनता, कांग्रेस विधायक दल और कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की मुख्यमंत्री पद के लिए पहली पसंद बने। डीके शिवकुमार और सिद्धारमैया के साथ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की तस्वीर आज की सबसे प्रमुख सुर्खी बनी हुई है। इस तस्वीर में सिद्धारमैया से अधिक डीके शिवकुमार खुश नजर आ रहे हैं। दरअसल उन्होंने उप-मुख्यमंत्री पद के लिए हामी भर दी है। डीके वोक्कालिगा समुदाय से आते हैं, और कर्नाटक राज्य में लिंगायत के बाद वोक्कालिगा समुदाय का दबदबा है। ऐसे में कांग्रेस और निर्वाचित विधायकों ने अपेक्षाकृत युवा और सांगठनिक मामलों में बेहद मजबूत वोक्कालिगा नेता डीके के स्थान पर 75 वर्षीय सिद्धारमैया पर ही दांव क्यों खेला है, इसे जानने के लिए सिद्धारमैया के राजनीतिक जीवन की एक पड़ताल करनी जरूरी है।
कौन हैं सिद्धारमैया?
3 अगस्त, 1947 को जन्मे सिद्धारमैया (उपनाम सिद्दू) इससे पहले भी 2013 में कर्नाटक के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। जनता पार्टी से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाले सिद्धारमैया ने अपने राजनीतिक जीवन का लंबा सफर जेडीएस में बिताया है, और एक समय वे एचडी देवगौड़ा के दाहिना हाथ हुआ करते थे। लेकिन 2006 में देवगौड़ा द्वारा पार्टी से निष्कासित किए जाने के बाद उन्होंने कांग्रेस का दामन थामा और 2013 में विधानसभा की 224 में से 122 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत की सरकार चलाकर दिखाई। इससे पहले सिर्फ एक बार यह कारनामा दुहराया जा सका था।
कुरुबा (गड़ेरिया समुदाय) से आने वाले सिद्धारमैया का जन्म मैसूरू के एक गांव में एक गरीब किसान परिवार में हुआ था। मैसूर विश्वविद्यालय से बीएससी और बाद में एलएलबी की पढ़ाई के बाद कुछ समय के लिए उन्होंने प्रैक्टिस भी की। कुरुबा समुदाय की मध्य एवं उत्तर कर्नाटक के हिस्से में ठीक-ठाक उपस्थिति है। उनके दो बेटे हैं, जिनमें से बड़े बेटे की 2016 में बेल्जियम में बीमारी से मृत्यु हो गई थी, जबकि छोटे बेटे यथीन्द्र मेडिकल डॉक्टर हैं।
राजनीतिक सफर
वकालत के पेशे में रहते हुए सिद्धारमैया ने मैसूर क्षेत्र के किसानों की समस्याओं पर काम करना शुरू कर दिया था। यहां तक कि उन्हें “किसानों के वकील” के रूप में ख्याति मिल गई थी और 1978 से वो मैसूर तालुका बोर्ड के सदस्य के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे थे। 1983 में सिद्धारमैया की सक्रिय राजनीति में उतरने की चाहत तब सार्वजनिक हुई, जब उन्होंने 83 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जनता पार्टी के टिकट पर उम्मीदवारी की इच्छा जाहिर की। जनता पार्टी के सर्किल में उन्हें तब “दक्षिणपंथ” के प्रति झुकाव रखने वाले कार्यकर्ता के रूप में जाना जाता था।
इसलिए तत्कालीन जनता पार्टी अध्यक्ष, एचडी देवगौड़ा ने उनकी उम्मीदवारी पर नकारात्मक रुख अपनाया, नतीजतन पार्टी से उन्हें नाउम्मीदी हासिल हुई। निराश सिद्धारमैया ने तत्कालीन ग्रामीण विकास, पंचायती राज और वक्फ मंत्री अब्दुल नज़ीर साब का मार्गदर्शन लेना बेहतर समझा, जो कर्नाटक में पंचायती राज और गांवों में पीने का पानी लाने वाले अगुआ के बतौर मशहूर थे। अपने राजनीतिक गुरु की सलाह पर सिद्धारमैया ने मैसूर की चामुंडेश्वरी सीट से निर्दलीय के बतौर पर्चा दाखिल किया, और चुनाव जीतकर राम कृष्ण हेगड़े की जनता पार्टी सरकार के पक्ष में समर्थन की घोषणा की। बदले में हेगड़े ने उन्हें कन्नड़ भाषा को आधिकारिक भाषा बनाने के लिए गठित कमेटी का अध्यक्ष बनाकर उनकी राजनीतिक पारी की शुरुआत में मदद की।
भाषा कमेटी के अध्यक्ष के तौर पर काम के प्रति उनकी लगन और निष्ठा ने देवगौड़ा को प्रभावित किया। लेकिन सिद्धारमैया की एक और खूबी भी थी जिसने उन्हें देवगौड़ा का करीबी बनाने में मदद की। सिद्धारमैया कुरुबा समुदाय से आते हैं, जिनका मुख्य पेशा पशु चराना और इसके जरिये अपनी आजीविका चलाना था। इस समुदाय का किसानों के साथ घनिष्ठ नाता था, जिसके चलते सिद्धारमैया मैसूर क्षेत्र में लोगों के बीच में लोकप्रिय हो गये थे।
इसके साथ ही वोक्कालिगा समुदाय के बीच भी सिद्धारमैया की अच्छी पैठ थी, जिससे स्वयं देवगौड़ा आते थे। 1985 में हेगड़े ने सिद्धारमैया को अपने मन्त्रिमंडल में शामिल करते हुए राज्य मंत्री का दर्जा दे दिया, जो कि कर्नाटक की राजनीति में सिद्धारमैया के बढ़ते कद को मान्यता देना था। देवगौड़ा ने उनकी खूबियों को पहचान लिया था, और सिद्धारमैया के साथ मिलकर मैसूर क्षेत्र में अपने आधार को विस्तार देने का काम किया। 1989 में जनता पार्टी में दो फाड़ हो गया, और जनता दल एवं समाजवादी जनता पार्टी बनी। सिद्धारमैया ने देवगौड़ा वाले जनता दल के साथ रहने का फैसला किया, लेकिन 89 के विधानसभा चुनाव में वे चामुंडेश्वरी की सीट से हार गये।
1994 के विधानसभा चुनाव में जीत हासिल कर सिद्धारमैया ने देवगौड़ा सरकार में वित्त मंत्री का पदभार ग्रहण किया, और वे कर्नाटक मंत्रिमंडल में दूसरे सबसे ताकतवर मंत्री के रूप में उभरे। सिद्धारमैया के नाम के साथ वित्त मंत्री का पद इस कदर जुड़ गया है कि उन्हें देश में सबसे अधिक बार वित्त मंत्री बनने का ख़िताब दिया जाता है। हालांकि उनकी पढ़ाई-लिखाई देर से शुरू हुई थी, लेकिन गणित पर उनकी अच्छी पकड़ थी।
वित्तीय मामलों पर उनकी इतनी गहरी समझ थी और आंकड़े उनकी जुबान पर रहते थे कि कई बार मंत्रालय के अधिकारी तक उनका सामना करने से हिचकिचाते थे। 1996 में जब देवगौड़ा देश के प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए, तब सिद्धारमैया को जेएच पटेल सरकार में उप-मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला। लेकिन 1999 के कर्नाटक चुनाव तक जनता दल टूटकर कई छोटी-छोटी पार्टियों में तब्दील हो चुका था, और कर्नाटक इकाई देवगौड़ा के तहत जेडी (एस) में तब्दील हो चुकी थी। सिद्धारमैया को जेडीएस राज्य इकाई का मुखिया बनाया गया। हालांकि इस बार उन्हें फिर से एक बार चामुंडेश्वरी से हार का सामना करना पड़ा, जिसे उन्होंने 2004 में जीतकर एक बार फिर से कांग्रेस के साथ जेडीएस की गठबंधन सरकार में उप-मुख्यमंत्री का पदभार ग्रहण किया। लेकिन 2004 के कर्नाटक राज्य चुनाव के बाद अचानक से देवगौड़ा ने अपने बेटे एचडी कुमारस्वामी के प्रति झुकाव दिखाना शुरू कर दिया था।
सिद्धारमैया के सामने अब उत्तरोत्तर स्पष्ट होता जा रहा था कि यदि देवगौड़ा के साथ बने रहते हैं तो उनके लिए मुख्यमंत्री बनने का सपना सिर्फ ख्वाब ही रह जाने वाला है। यही वह समय था जब कर्नाटक में पूर्व दिग्गज कांग्रेसी मुख्यमंत्री, देवराज उर्स के निकटतम साथी और बड़े नेता आरएल जलप्पा ने राज्य की राजनीति में नए सिरे से सोशल इंजीनियरिंग तैयार करने के प्रयास शुरू कर दिए थे। यह देवराज उर्स ही थे, जिन्होंने 70 के दशक में कर्नाटक के इतिहास में पहली बार लिंगायत और वोक्कालिगा के राजनैतिक प्रभुत्व को तोड़कर पिछड़े वर्गों के लिए बड़ा आधार बनाने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। आरएल जलप्पा ने इस अधूरे सोशल इंजीनियरिंग के कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए सिद्धारमैया के साथ काम करना शुरू कर दिया। उन्होंने कर्नाटक की राजनीति में अहिंदा (अल्पसंख्यक, दलित एवं पिछड़े वर्गों) वर्ग को एकजुट करने के फार्मूले पर काम करना शुरू किया।
जबकि उसी दौरान कुमारस्वामी ने भाजपा से हाथ मिलाकर कर्नाटक में धरम सिंह सरकार गिरा दी। 2005 आते-आते एचडी देवगौड़ा के साथ सिद्धारमैया का मतैक्य इतना बढ़ गया कि उन्हें जेडीएस से बाहर कर दिया गया। 2006 में उन्होंने ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव जनता दल नामक अपनी अलग पार्टी गठित की, लेकिन जल्द ही उन्होंने समूची पार्टी को कांग्रेस में समाहित कर दिया। विलय के इस मौके पर बैंगलोर में सोनिया गांधी स्वयं मंच पर उपस्थित थीं।
दिसंबर 2006 को हुए उपचुनाव में चामुंडेश्वरी विधानसभा क्षेत्र से उन्होंने बेहद कड़े मुकाबले में 257 मतों के अंतर से जीत दर्ज की। इस चुनाव में उनका मुकाबला जेडीएस उम्मीदवार एम शिवपादसप्पा के साथ था, लेकिन उन्हें हराने के लिए देवगौड़ा, मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी और उपमुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने पूरा जोर लगाया हुआ था। 2008 में वरुणा सीट से एक बार फिर उन्होंने जीत हासिल कर पांचवीं बार विधानसभा में प्रवेश किया।
2013 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को 122 सीटों पर जीत हासिल हुई और 1999 के बाद किसी दल को राज्य में पूर्ण बहुमत हासिल हुआ। सिद्धारमैया मुख्यमंत्री बनाये गये और उन्होंने अहिंदा समूह को अपना मजबूत गढ़ बनाने के लिए एक के बाद एक कई घोषणाएं की। 2013 में मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के लिए गुप्त मतदान का सहारा लिया गया था, जिसमें सिद्धारमैया के पक्ष में विधायकों ने अपना बहुमत दिया। 2023 में भी यही कहानी दुहराई गई जो राज्य के लोगों के साथ-साथ पार्टी के भीतर भी उनकी लोकप्रियता को साबित करता है।
2018 विधानसभा चुनावों में कांग्रेस अपनी सफलता को नहीं दुहरा सकी, और राज्य में 104 सीटों के साथ भाजपा सबसे बड़ा दल बनकर सामने आ गई थी। भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए कांग्रेस (80) ने 37 सीट हासिल करने वाली पार्टी जेडीएस को राज्य की कमान सौंप दी। लेकिन 18 महीने के भीतर ही यह सरकार गिर गई, और जेडीएस और कांग्रेस से टूटकर राज्य में भाजपा की सरकार बना दी गई।
10 मई 2023 को हुए कर्नाटक राज्य चुनावों में कांग्रेस ने 2013 के अपने प्रदर्शन को और भी बड़े अंतर से जीतकर देश में कांग्रेस की लगातार कमजोर होती स्थिति को बड़ा उछाल देने का काम किया है। इसमें तमाम कारकों के साथ-साथ सिद्धारमैया की गरीबों, पिछड़े वर्गों, दलितों सहित अल्पसंख्यकों के बीच में उनके बीच का आदमी होने की छवि ने बड़ा असर डाला है। सिद्धारमैया को कांग्रेस का लालू यादव भी कहा जाता है।
वे बड़ी सहजता से ग्रामीण आबादी के साथ खुद को कनेक्ट कर लेते हैं। हाल ही में उन्होंने कहा है कि वे नास्तिक नहीं हैं, लेकिन अंधश्रद्धा और रुढ़िवादी परंपराओं के खिलाफ हैं। 75 वर्षीय सिद्धारमैया का सफर एक बेहद साधारण परिवेश से हुआ, लेकिन देवराज उर्स की परंपरा को आगे बढ़ाने और दक्षिण भारत में हिंदुत्व की विचारधारा की मुकम्मल काट पेश करने के लिए उनके अहिंदा फार्मूले को देशभर में लागू करने और आत्मसात करने की जरूरत संभवतः कांग्रेस के उच्च पदस्थ नेतृत्व ने समझा है।
यही वजह है कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पिछड़े वर्गों की जनगणना के मुद्दे को कर्नाटक विधानसभा चुनावों में जगह देकर विभिन्न (ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व) करने वाली क्षेत्रीय पार्टियों के लिए पार्टी के साथ बेहतर सामंजस्य बैठाने के विकल्प के दरवाजे खोल दिए हैं। भाजपा के लिए 2024 की वैतरणी को पार लगाने के लिए ओबीसी समुदाय को साधना एक दुष्कर चुनौती होगी, कर्नाटक के प्रयोग ने इसे साबित कर दिया है।
सिद्धारमैया ने चुनाव पूर्व ही सार्वजनिक तौर पर घोषणा कर दी है कि यह उनका आखिरी चुनाव है। कर्नाटक में कमजोर और पिछड़े वर्गों की 80% आबादी पर अपना प्रभाव रखने वाले सिद्धारमैया यदि अहिंदा फार्मूले को जमीन पर उतारते हैं, तो अगले वर्ष 2024 के आम चुनावों में कोई बड़ा उलटफेर हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। फिलहाल तो जेडीएस जिसके पास 2004 में एक प्रमुख क्षेत्रीय दल बनकर उभरने और कर्नाटक को अपने कब्जे में ले लेने का मौका था, उसने वोक्कालिगा समुदाय पर अपनी अतिशय निर्भरता के चलते खुद को नेपथ्य में धकेल दिया है, वहीं भाजपा अब लिंगायत से पीछा छुड़ाने की चाह रखकर भी न तो इससे पार पा रही है, और न ही नई जमीन ही तलाश पाई है।
देश के बहुसंख्यक गरीब और निम्न मध्यवर्गीय तबकों, ऐतिहासिक तौर पर वंचित सामाजिक समूहों, धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों और प्रगतिशील तबकों को केंद्र में रख कांग्रेस अपनी नई राजनीतिक जमीन और जनाधार खड़ा कर सकती है और करने की कोशिश कर रही है। कर्नाटक में कांग्रेस की जीत इसी जमीन और जनाधार पर हुई है। इस राजनीतिक जमीन और जनाधार का चेहरा आज की तारीख में सिद्धारमैया ही बन सकते थे। यही उनके मुख्यमंत्री बनने की मुख्य वजह बनी।
पिछले 6 विधान सभा चुनावों के नतीजे बहुत कुछ कहते हैं:
जेडी (एस)
वर्ष सीट
1999 10
2004 58
2008 28
2013 40
2018 37
2023 19
कांग्रेस
वर्ष सीट
1999 132
2004 65
2008 80
2013 122
2018 80
2023 135
भाजपा
वर्ष सीट
1999 44
2004 79
2008 110
2013 40
2018 104
2023 66
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)
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