अब यह पोस्ट कोरोना इफ़ेक्ट है या कोई और वजह कई लोगों ने नींद न आने की शिकायत की है। देश के एक नामी टीवी पत्रकार ने मुझे बताया, कि वे अक्सर सुबह अपनी पत्नी से पूछते हैं, कि क्या तुमने मुझे सोते हुए देखा? सच बात तो यह है, कि आजकल हर पाँचवां आदमी अनिद्रा रोग से पीड़ित है। ऊपर से वह एकदम स्वस्थ है, कहीं कोई बीमारी नहीं, किंतु रात करवटें लेते बीतती है। डॉक्टर अधिक से अधिक उसे नींद की गोली लिख देते हैं। पर यह कोई स्थायी इलाज़ नहीं है, क्योंकि अनिद्रा का मरीज़ धीरे-धीरे उन गोलियों का आदी होता जाता है और फिर एक ऐसी स्थिति आती है कि उसकी डोज़ बढ़ानी पड़ती रहती है। फिर भी नींद आँखों से दूर रहती है। वह खूब मेहनत भी करता है और ऊपरी तौर पर उसे कोई बीमारी नहीं होती, लेकिन यह अनिद्रा उसके स्वभाव में चिड़चिड़ापन ला देती है।
नतीज़न सुबह से ही उसको लगता है कि नींद पूरी न होने से वह बीमार है। और यह बात उसे और भी सालती है कि नींद की गोली लेने के बाद भी उसे नींद नहीं आई। अतः जरूर उसे कोई न कोई गंभीर बीमारी है। इसीलिए अच्छे और विशेषज्ञ चिकित्सक कहते हैं कि भले नींद रात भर नहीं आए मगर नींद की गोलियों से दूर रहो। पर चाहे जितना समझाया जाए, कोई भी व्यक्ति रात को कम से कम छह घंटे सोए बगैर एक तरह के मानसिक तनाव में रहता है। और धीरे-धीरे यह तनाव उसके लिए मानसिक अवसाद का कारण बनता जाता है। नतीज़न वह कभी किसी मानसिक रोग विशेषज्ञ के पास जाता है तो कभी किसी न्यूरोलाजिस्ट के पास, लेकिन कोई भी छू-मंतर कर उसे सुला नहीं पाता। उसे बस अवसाद या मानसिक तनाव दूर करने की गोलियां देता रहता है।
लेकिन ऐसा क्यों है, इस पर कोई भी मनन नहीं करता। क्या नींद न आना कोई मानसिक बीमारी है, या आधुनिक जीवन-शैली के अनिवार्य परिणाम अथवा व्यक्ति का वहम आदि सब कुछ अव्यक्त-सा है। आज तक किसी भी मेडिकल जनरल या मेडिकल काउन्सिल ने इस पर विचार नहीं किया। किसी भी मेडिकल एसोसियेशन ने भी इस गंभीर समस्या पर नहीं सोचा। अलबत्ता कुछ चिकित्सक यह सलाह जरूर देते हैं कि आप प्राणायाम करो अथवा किसी योग पद्धति को अपनाओ। यह सच है कि कुछ योग पद्धतियाँ व्यक्ति को फौरन सुला देती हैं और दस मिनट की यह निद्रा उसे सात घंटे की नींद से कहीं ज्यादा आराम देती है।
कानपुर में, जब मैं एक अख़बार का संपादक था, तब अक्सर कभी बिजली चले जाने से या आधी रात को अखबार में कोई बड़ी खबर आ जाने या किसी अन्य तकनीकी अड़चन के अचानक सामने आ जाने से मैं रात भर बेचैन रहता और फिर सुबह उसकी खुमारी दिलो-दिमाग में रहती और पूरा दिन मैं कोई काम शांति से नहीं निपटा पाता। ऐसे में मैं दोपहर को एक योग विशेषज्ञ के पास चला जाता और वे मुझे एक ज़मीन पर एक मैट बिछा कर उस पर लिटा देते, फिर बड़े सधे अंदाज़ में दिमाग के सारे तनाव को रिलीज़ करने को कहते जाते और मैं कब सो जाता, पता ही नहीं चलता। यह निद्रा कुल दस मिनट की होती, लेकिन मैं एकदम रिलैक्स होता। इसके बाद दिल्ली में मुझे ऐसा कोई योग चिकित्सक नहीं मिला। हार कर मैंने भी वही तरीका अपनाया और डॉक्टरों से विनती कर अपने लिए नींद की गोलियां लिखवा लीं। चूंकि नींद की कोई भी गोली नारकोटिक्स एक्ट के तहत प्रतिबंधित होती है, इसलिए बहुत अनिवार्य होने पर ही डॉक्टर इन्हें लेने की सलाह देते हैं। खुले बाज़ार में आप बिना डॉक्टर के निर्धारित पर्चे के इन्हें नहीं खरीद सकते।
पर दिक्कत यह है कि पॉइंट टू फाइव (.25) से शुरू हुई ये गोलियां कब बढ़ती जाएंगी, आपको पता नहीं चलेगा। इसलिए बेहतर तो यही है कि इन पर निर्भर रहने की बजाय जीवन-शैली को ही बदला जाए। आजकल बड़े शहरों और बड़ी नौकरियों ने आदमी को आराम तो खूब दिया है, मगर उतनी ही असुरक्षा भी दी है। किसी चीज़ की कोई गारंटी नहीं है। न ऊँची पगार की न ऊँची पॉवर के अनवरत बनी रहने की। जैसे-जैसे ये दोनों चीज़ें बढ़ती हैं, वैसे-वैसे इनके गिरते रहने का अंदेशा सदैव बना रहता है। और यह खतरा मनुष्य से उसका सुख-चैन छीन लेता है, तो नींद तो उड़ेगी ही। फिर नींद की दवाओं का डोज़ बढ़ता है, जो एक फौरी हल तो है, लेकिन स्थायी निदान नहीं।
कुछ लोग नींद की गोलियां नहीं लेते तो किसी न किसी अन्य नशे के शिकार हो जाते हैं। बड़े शहरों में ऐसे अनगिनत लोग मिल जाएंगे जिनकी दिनचर्या में शराब या कोई अन्य नशा अनिवार्य रूप से शामिल है। ज्यादा नशा मदहोश जरूर कर दे लेकिन नींद से जो राहत मिलती है, वह न शराब दे सकती है न कोई अन्य नशा। मुझे कुछ आयुर्वेदिक डॉक्टरों ने नींद लाने के लिए जिस बटी को लेने की सलाह दी, उसमें भाँग मिली हुई थी, इसलिए मैंने उसमें कोई रूचि नहीं दिखाई। क्योंकि भाँग का सेवन भी वैसा ही है जैसा शराब का। इसलिए मुझे लगा कि अंततः योग-निद्रा इसका अकेला हल है, और अधिक से अधिक अपने को चिंतामुक्त रखना भी।
मेरे एक पत्रकार दोस्त हैं, और देश के कई नामी अख़बारों के संपादक रहे हैं। उन्होंने मेरी समस्या का एक बड़ा मजेदार हल बताया। उन्होंने कहा कि देखो भाई शुक्ला जी, यह दुनिया हमारी और तुम्हारी ताकत से नहीं चल रही है। वह एक प्राकृतिक गति से घूमती है। आस्तिक उसे राम की माया कहते हैं और नास्तिक ब्रह्माण्ड की गति। इसलिए मान ही लो कि “जाही विधि राखे राम, ताही विधि रहना है!” उनके नज़रिए को भाग्यवादी कहा जा सकता है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि यह चिंता मुक्त होने का एक प्राकृतिक नुस्खा है। हमें नींद इसलिए नहीं आती, क्योंकि हम मान कर चलते हैं कि हम प्रकृति की भवतव्यिता को रोक लेंगे।
पर यह हमारा भ्रम है। हम सिर्फ काम कर सकते हैं, उसका नतीजा हमारी मर्जी के अनुकूल होगा ही, यह सोचना एक धोखा है। यही गीता का कर्मयोग है। हमारी आज़ादी की लड़ाई के रणबांकुरों ने इसीलिए गीता के कर्मयोग को अपनाया था, क्योंकि वे मानते थे कि हमारा काम है संघर्ष करना, किन्तु फल हमारी मर्जी के अनुकूल मिलेगा, इसकी गारंटी हम नहीं ले सकते। यह ज्ञान हमें प्रेरणा देता है, निरंतर संघर्ष करने का, सदैव आगे बढ़ने का और आने वाली पीढ़ी के लिए मार्ग प्रशस्त करने का। परन्तु आज के वैज्ञानिक और भौतिकवादी युग में ऐसा सोचने वाले लोग कहाँ हैं!
इसलिए नींद के लिए दिन भर परेशान रहने और नींद की गोली के निरंतर सेवन से बेहतर है यह मान कर चलना कि हम सिर्फ काम कर सकते हैं, कोशिश कर सकते हैं लेकिन प्रकृति की गति को और कार्य-कारण सम्बन्ध को हम नियंत्रित नहीं कर सकते। हम जिस दिन ऐसा सोच लेंगे, उस दिन नींद भी पूरी आएगी और निरर्थक गोलियों से मुक्ति भी मिलेगी। हमारी जरूरत इतनी है कि हम बस प्रयास करें, काम करें फल पाने की उम्मीद न करें। यही कर्मयोग है। मनुष्य जिस दिन अपनी लिप्सा और हथेली में सरसों उगाने की काल्पनिक उड़ानों से मुक्ति पा लेगा, वह अवश्य उस दिन पूरी नींद सोएगा। इसलिए भी सोने से ज्यादा जरूरी है जागते हुए सोना।
घोड़ा बेच कर सोने से नींद नहीं आती। नींद वही अच्छी, जो हमें उस रास्ते पर ले जाए, जो ज्ञान का रास्ता है, कर्म का रास्ता है। तब हमें अपनी चिंताओं से मुक्ति पाने के लिए मनो चिकित्सक और न्यूरोलाजिस्ट की जरूरत नहीं पड़ेगी। इसलिए बीमारी की जड़ को पकड़ें। नींद जरूर आएगी और भरपूर भी। आधुनिक जीवन की जटिलताओं के बीच चैन से सोने का यही एक रास्ता है। यही एक विकल्प है। इसे ही ज्ञानियों ने योग-क्षेम कहा है। जिस दिन हमने योग-क्षेम को प्राप्त कर लिया, तब हम काम करेंगे, प्रयास करेंगे समस्त समाज के लिए। उस समय हमारी प्राथमिकता में समाज होगा व्यक्ति नहीं। यही जीवन का संपूर्ण योग है।
(शंभूनाथ शुक्ला वरिष्ठ पत्रकार हैं और कई अखबारों में संपादक के पद पर रह चुके हैं। आजकल आप दिल्ली में रहते हैं।)
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