धर्मांतरण के बाद कोई अपनी जाति साथ नहीं रख सकता: मद्रास हाईकोर्ट

ईसाई दलितों और मुस्लिम दलितों को भी अनुसूचित जाति की तरह ही आरक्षण समेत दूसरे लाभ देने की मांग सम्बन्धी याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे में केंद्र सरकार ने दलित मुस्लिमों और दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिए जाने का विरोध किया है। सरकार ने कहा है कि हिंदू दलित ईसाई या इस्लाम धर्म अपनाते ही इसलिए हैं ताकि उन्हें छुआछूत का सामना न करना पड़े, इसलिए उन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं दिया जा सकता। इस बीच मद्रास हाईकोर्ट ने कहा है कि एक व्यक्ति जो दूसरे धर्म में परिवर्तित हो गया है, वह धर्मांतरण से पहले अपने समुदाय के लाभों का दावा नहीं कर सकता है, जब तक कि राज्य द्वारा स्पष्ट रूप से इसकी अनुमति नहीं दी जाती है।

मदुरै पीठ के जस्टिस जीआर स्वामीनाथन तमिलनाडु लोक सेवा आयोग की कार्रवाई को चुनौती देने वाले एक उम्मीदवार की याचिका पर सुनवाई कर रहे थे, जिसमें उसे “पिछड़ा वर्ग (मुस्लिम)” नहीं माना गया था, लेकिन उसे संयुक्त सिविल सेवा परीक्षा-II में “सामान्य” श्रेणी के रूप में माना गया था। (समूह-द्वितीय सेवाएं)।

हाईकोर्ट ने आगे कहा कि क्या एक व्यक्ति जो दूसरे धर्म में परिवर्तित हो गया है, उसे सामुदायिक आरक्षण का लाभ दिया जा सकता है, यह मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित है। इस प्रकार, यह मामला हाईकोर्ट के लिए फैसला करने के लिए नहीं था। इस प्रकार, अदालत ने टीएनपीएसी के निर्णय में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया और कहा कि आयोग का निर्णय सही था।

याचिकाकर्ता अति पिछड़ा वर्ग से संबंधित एक हिंदू था। वह 2008 में इस्लाम में परिवर्तित हो गया। इसे गजट में भी अधिसूचित किया गया था और 2015 में जोनल डिप्टी तहसीलदार द्वारा एक सामुदायिक प्रमाण पत्र जारी किया गया था, जिसमें यह प्रमाणित किया गया था कि याचिकाकर्ता लबाईस समुदाय (मुस्लिम समुदाय के भीतर एक समूह जिसे पिछड़े वर्ग के रूप में अधिसूचित किया गया है) से संबंधित है।

याचिकाकर्ता ने संयुक्त सिविल सेवा परीक्षा – II (समूह- II सेवा) में प्रारंभिक लिखित परीक्षा उत्तीर्ण की। उसने 2019 में मुख्य परीक्षा भी दी थी। चूंकि उसे अंतिम चयन सूची में शामिल नहीं किया गया था, इसलिए उसने एक आरटीआई दायर की, जिसके माध्यम से पता चला कि उसे शामिल नहीं करने का कारण यह था कि उसके साथ बीसी (मुस्लिम) श्रेणी के तहत व्यवहार नहीं किया गया था। याचिकाकर्ता ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत, उसे अंतरात्मा की स्वतंत्रता और किसी भी धर्म को मानने का अधिकार था। उसने धर्मांतरण से पहले सबसे पिछड़े वर्ग का दर्जा प्राप्त किया था और तथ्य यह है कि मुसलमानों को राज्य में पिछड़े वर्ग के रूप में मान्यता दी गई थी, याचिकाकर्ता को पिछड़े वर्ग समुदाय से संबंधित माना जाना चाहिए। पूर्व के उदाहरणों, सरकारी पत्र और सुप्रीम कोर्ट के समक्ष इसी तरह के एक मामले के लंबित होने पर विचार करते हुए, अदालत ने आयोग के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं करना उचित समझा।

इस बीच धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम या ईसाई बनने वाले दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा क्यों नहीं दिया जा सकता? इस पर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कई तर्क रखे हैं। एक याचिका के जवाब में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर किया है ।

केंद्र ने तर्क दिया है कि दलित धर्म परिवर्तन कर इस्लाम या ईसाई में इसलिए जाते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि वहां छुआछूत का सामना नहीं करना पड़ेगा। ईसाई और इस्लाम, दोनों ही विदेशी धर्म हैं, इसलिए वहां छुआछूत नहीं होती।लिहाजा धर्म परिवर्तन कर इस्लाम या ईसाई बनने वाले दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं दिया जा सकता।

केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने ये हलफनामा दायर किया। ये हलफनामा उस याचिका के जवाब में दायर किया गया है जिसमें ईसाई दलितों और मुस्लिम दलितों को भी अनुसूचित जाति की तरह ही आरक्षण समेत दूसरे लाभ देने की मांग की गई थी।

सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (CPIL) नाम के एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। इस याचिका में मांग की गई थी कि धर्म परिवर्तन कर ईसाई या मुस्लिम बनने वाले दलितों को भी अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाए और आरक्षण समेत दूसरे लाभ दिए जाएं।

याचिका में दलील दी गई थी कि संविधान (अनुसूचित जाति) के आदेश 1950 भेदभावपूर्ण और संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन है, क्योंकि ये हिंदू, सिख और बौद्ध धर्मों के अलावा दूसरे धर्मों में परिवर्तित होने वाले दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं देता है।

सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने अपने हलफनामे में कहा कि अनुसूचित जातियों के आरक्षण और पहचान का मकसद सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन से परे है।अनुसूचित जातियों की पहचान एक विशिष्ट सामाजिक कलंक के आसपास केंद्रित है और संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश 1950 में पहचाने गए समुदायों तक सीमित है।

सरकार ने तर्क दिया कि यह आदेश ऐतिहासिक आंकड़ों पर आधारित था, जिसने साफ किया था कि ईसाई या इस्लामी समाज के लोगों को कभी भी इस तरह के पिछड़ेपन या उत्पीड़न का सामना नहीं करना पड़ा है। केंद्र सरकार ने कहा कि असल में अनुसूचित जाति के लोग ईसाई या इस्लाम धर्म में परिवर्तित ही इसलिए होते हैं, ताकि वो छुआछूत जैसी दमनकारी व्यवस्था से बाहर आ सकें, क्योंकि ईसाई या इस्लाम में ऐसा नहीं होता है।

हलफनामे में सरकार ने ये भी कहा कि ये आदेश किसी भी तरह से असंवैधानिक नहीं हैं, क्योंकि छुआछूत जैसी दमनकारी व्यवस्था कुछ हिंदू जातियों को पिछड़ेपन की ओर ले जाती है, जबकि ईसाई और इस्लामी समाज में ऐसी व्यवस्था नहीं है।यही कारण है कि ईसाई और इस्लामी समाज को इससे बाहर रखा गया है।

वहीं, बौद्ध और सिख धर्म को शामिल करने को सही ठहराते हुए केंद्र ने तर्क दिया कि बौद्ध धर्म में धर्मांतरण की प्रकृति ईसाई धर्म में धर्मांतरण से अलग रही है।

दरअसल जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सभी धर्मों में दलितों के लिए अनुसूचित जाति का दर्जा देने का समर्थन किया था। सरकार ने इसे खामी भरा बताया है। सरकार ने कहा कि ये रिपोर्ट बिना किसी क्षेत्रीय अध्ययन के बनाई गई थी, इसलिए जमीनी स्थिति पर इसकी पुष्टि नहीं होती। इतना ही नहीं, इस रिपोर्ट को बनाते समय ये भी ध्यान नहीं रखा गया कि पहले से सूचीबद्ध जातियों पर क्या असर होगा, इसलिए सरकार ने इस रिपोर्ट को नामंजूर कर दिया था।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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