Friday, April 19, 2024

इमरजेंसी के साथ तानाशाही पर भी बहस कीजिए

हर बार की तरह इस बार भी भारतीय जनता पार्टी ने 25 जून का इस्तेमाल यह साबित करने के लिए किया कि कांग्रेस एक लोकतंत्र विरोधी पार्टी है और इसी वजह से उसने इमरजेंसी लगाई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया और गृह मंत्री अमित शाह का लेख देश के प्रमुख अखबारों ने छापा। यह और बात है कि गृह मंत्री का लेख झूठ तथा आधे सचों से भरा था। आखिर इनके इस दावे को कौन स्वीकार करेगा कि उनकी सरकार में न्यायपालिका, मीडिया आजाद हैं और केंद्र राज्यों के साथ मिल कर फैसले लेता है? विडंबना यह है कि उन्होंने नागरिकता संशोधन विधेयक तथा धारा 370 को खत्म करने के फैसलों का नागरिक अधिकारों को मजबूत करने वाला कदम बताया है। आपातकाल की आड़ में जवाहरलाल नेहरू समेत आजाद भारत में कांग्रेस परंपरा को निशाना बनाने वाले इस लेख में उन समाजवादी और वामपंथी नेताओं-कार्यकर्ताओं का उल्लेख तक नहीं है जिन्होंने इमरजेंसी के खिलाफ लड़ाई लड़ी। किसे नहीं मालूम है कि आरएसएस प्रमुख बाला साहेब देवरस ने इस दौरान इंदिरा गांधी की सराहना के पत्र लिखे थे और उनके कार्यक्रमों को समर्थन किया था।

दूसरी ओर, कांग्रेस ने लोकतंत्र में अपनी आस्था को दोहराने के लिए राहुल गांधी के कथन को ट्वीट किया है जिसमें कहा गया है कि लोकतंत्र का मतलब है कि मनमाने ढंग से फैसले नहीं लिए जाएं। इसमें संस्थाएं ही सराकर को लोगों के प्रति जिम्मेदार बनाती हैं। एक दिन बाद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का ट्वीट भी आया जिसमें कहा गया है कि तानाशाही को पराजित किया जाएगा। जाहिर है कि इमरजेंसी का बिना नाम लिए कांग्रेस ने इसके गलत होने की बात दोहरा दी।  

आपातकाल की 21 महीने (26 जून 1975 से मार्च 1977) की अवधि और उसके ठीक पहले भारतीय लोकतंत्र की स्थिति सदैव बहस का विषय रहेगी। इसने भारतीय लोकतंत्र को बहुत सारे अनुभव दिए हैं जो आपस में विरोधाभासी हैं। यह इतिहास की बहुत बड़ी विडंबना है कि देश की गंगा-जमुनी तहजीब को कायम रखने और भारतीय लोकतंत्र की नींव रखने में अहम भूमिका निभाने वाली कांग्रेस ने आपातकाल का सहारा लिया और तानाशाही तथा हिंदुत्व में विश्वास करने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा उसका राजनीतिक दल भारतीय जनसंघ (जिसने बाद में भारतीय जनता पार्टी का रूप धारण किया) इसके खिलाफ लड़ता दिखाई पड़ा। महत्वपूर्ण वामपंथी पार्टी सीपीआई कांग्रेस के पक्ष में खड़ी हो गई थी और लोकतंत्र की मजबूती दिलाने के आदर्श से प्रेरित 1974 के आंदोलन के नेता जयप्रकाश नारायण ने भारतीय संविधान में यकीन नहीं करने वाले तथा फासीवादी विचारों वाले आरएसएस को आंदालेन में शामिल होने से मना नहीं किया। इसके पहले गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर उनके साथ खड़े होने की गलती विपक्षी पार्टियां कर चुकी थीं। इससे मुख्यधारा की राजनीति में जगह बनाने का मौका संघ परिवार को मिल गया। अपने इस लक्ष्य को पाने के बाद आरएसएस ने कांग्रेस तथा दूसरी सेकुलर पार्टियों को किनारे कर केंद्र की सत्ता पर ही कब्जा कर लिया है।  

सच पूछिए तो आपातकाल का तार्किक विश्लेषण कभी हुआ ही नहीं। उन हालातों पर शायद ही खुल कर चर्चा हुई जिसने इंदिरा गाधी को आपातकाल की ओर बढ़ने में मदद की। इस बात पर लोगों ने शायद ही ध्यान दिया कि श्रीमती गांधी ने युद्ध में पाकिस्तान को बुरी तरह हराने और बांग्लादेश को आजाद कराने के बाद भी इस विजय का राजनीतिक इस्तेमाल नहीं किया। उन्होंने इस विजय को दिखा कर अपने को दूसरों से ज्यादा देशभक्त साबित करने की कोशिश नहीं की। इसके पहले उन्होंने 1971 के चुनाव गरीबी हटाओ के नारे पर जीता था और उस विपक्षी महागठबंधन को हरा कर 518 में से 352 सीटें जीती थीं जिसमें स्वतंत्र पार्टी तथा भारतीय जनसंघ जैसी पूंजीपतियों तथा जमींदारों के पक्ष वाले दलों के साथ सोशलिस्ट पार्टियां भी थीं। प्रगतिशील मुद्दों पर इंदिरा गांधी का चुनाव जीतना देश में जमींदारी तथा आर्थिक-सामाजिक गैर-बराबरी के खिलाफ चल रहे आंदोलनों का ही नतीजा था। इस आंदोलन में नक्सलबाड़ी समेत कम्युनिस्ट पार्टियों तथा समाजवादी पार्टियों का संघर्ष भी शामिल था। दलित-आदिवासियों का पूरा तबका इंदिरा गांधी के साथ था।

इसे सिर्फ भावुकता से जोड़ कर देखना गलत होगा। श्रीमती गांधी की राजनीतिक सूझबूझ को दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने भारतीय समाज में आ रहे परिवर्तनों की लहर को समझ लिया था। उन्होंने कांग्रेस में शामिल हुए कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों के साथ मिल कर कांग्रेस के पुराने नेताओं के साथ राजनीतिक युद्ध किया और मोरारजी देसाई समेत तमाम वरिष्ठ नेताओं को बाहर करने में सफलता पाई थी। यह सिर्फ व्यक्तिगत लड़ाई नहीं थी बल्कि एक वैचारिक संघर्ष भी था।

लेकिन क्या वह नीचे से ऊपर बैठे उन कांग्रेस नेताओं को लेकर बदलाव की राजनीति कर सकती थीं जो भ्रष्ट, जातिवादी और पुरातनपंथी थे? ये नेता अवसरवादी और चाटुकार थे। वे सामाजिक-आर्थिक बदलाव के पक्ष में नहीं थे। इन्हें वास्तव में बैंकों के राष्ट्रीयकरण या प्रिवी पर्स की समाप्ति से ज्यादा अपने स्वार्थों की फिक्र थी। मोरारजी देसाई, एसके पाटिल, निजलिंगप्पा जैसे कद्दावर नेताओं के होते हुए मनमाने ढंग से फैसला लेना संभव नहीं था। इसलिए जब ये नेता कांग्रेस से बाहर चले गए तथा कांग्रेस में उन्हीं नेताओं की फौज रह गई थी जो चुनाव जीतने के लिए श्रीमती गांधी पर निर्भर थी। ऐसे में, इंदिरा गांधी को खुद ही फैसले लेने से कौन रोक सकता था? पार्टी के भीतर कोई लोकतंत्र नहीं रहा।
 
परिवर्तन के लिए जान की बाजी लगाने वाले नौजवानों का एक बड़ा समूह नक्सलवाद या कम्युनिस्ट पार्टियों की विचारधारा का सहारा ले रहा था। दूसरे कई विनोबा तथा जयप्रकाश के साथ सर्वोदय और डॉ. लोहिया के साथ समाजवादी पार्टियों से जुड़े थे। विचारों के इसी टकराव के बीच कांग्रेस का विभाजन हो गया। कांग्रेस अगर सत्ता में रह कर फेल हुई थी तो बाकी लोग सत्ता से बाहर विफल थे। समाज में जैसा बदलाव होना चाहिए था, वैसा हो नहीं रहा था। ऐसे में, नेहरू की बेटी को देश का प्रधानमंत्री पद सौंप दिया गया था क्योंकि नेहरू की पीढ़ी का कोई ऐसा नेता नहीं बचा था जो राष्ट्रीय छवि रखता हो। एक दकियानूसी समाज में स़्त्री को सत्ता सौंपना एक प्रगतिशील कदम था। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह था कि वह नेहरू की बेटी थीं। अंत में, कांग्रेस के पुराने असरदार नेता उनसे अलग हो गए। यह खोज का विषय है कि पुराने नेताओं का उनको अस्वीकार करने के पीछे उनके स्त्री होने की कितनी भूमिका थी?

गरीबी हटाओ के नारे पर चुनाव जीतने तथा बैंकों तथा बीमा कंपनियों के राष्ट्रीयकरण जैसे कदमों के बाद भी देश में बेरोजगारी तथा महंगाई जैसे मुद्दों पर काबू नहीं पाया जा सका। गुजरात और बिहार के छात्र आंदोलन जेपी के नेतृत्व में एक राष्ट्रीय आंदोलन में तब्दील हो चुका था।
रायबरेली से लोक सभा के लिए श्रीमती गांधी के चुने जाने को समाजवादी नेता राजनारायण ने चुनौती दी थी और उनके चुनाव को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने रद्द कर दिया। चुनाव रद्द करने के जो कारण बताए गए, वे आज बहुत मामूली नजर आते हैं। उनके विशेष अधिकारी यशपाल कपूर पर यह आरोप था कि उन्होंने चुनाव प्रचार में हिस्सा लेना शुरू करने के एक सप्ताह बाद अपने पद से त्यागपत्र दिया। दूसरा कारण था चुनाव-प्रचार के लिए पंडाल बनाने में सरकारी अधिकारियों ने मदद की थी। आज चुनाव के समय ईडी और सीबीआई से लेकर सारे विभाग चुनाव में हिस्सा लेते नजर आते हैं। चुनाव आयोग प्रधानमंत्री मोदी तथा गृह मंत्री अमित शाह को प्रचार का पूरा मौका देने के लिए पश्चिम बंगाल में आठ चरणों में चुनाव कराता है।

विपक्षी आंदेालन तेज हो रहा था और ऐसे में उन्होंने इमरजेंसी लगाने का फैसला किया। वह लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे कर उपचुनाव के जरिए वापस आ सकती थीं। उनके पास बड़ा बहुमत था। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि उन्हें यह गलतफहमी थी कि भारत की गरीब जनता लोकतंत्र के लिए नहीं लड़ेगी।
कहा जाता है कि यह फैसला उन्होंने अपने बेटे संजय गांधी तथा पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय की सलाह से लिया था। संजय गांधी ने जबरन नसबंदी तथा इमरजेंसी के अत्याचारों के लिए काफी बदनामी हासिल की।

लोकसभा।

मुझे यह आरोप बढ़ा-चढ़ा दिखाई देता है कि श्रीमती गांधी ने न्यायपालिका या मीडिया को घुटनों के बल ला दिया। न्यायपालिका बीमा कपंनियों तथा बैंकों के राष्ट्रीयकरण से लेकर प्रिवीपर्स जैसे मामलों में रोड़े अटका रही थी। लेकिन इमरजेंसी आते-आते उसने घुटने टेक दिए। यह उसके चरित्र को बतलाता है। राफेल मामले में प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में फैसले करने वाले पूर्व चीफ जस्टिस राज्यसभा में मनोनीत हो गए। इंदिरा गांधी ने जस्टिस एएन रे को चीफ जस्टिस इसलिए बनाया कि उन्होंने बैंक राष्ट्रीयकरण के मामले में उनकी सरकार का पक्ष लिया था। दोनों मामलों में बहुत फर्क हैं। राफेल का मामला भ्रष्टाचार का मामला था और बैंक राष्ट्रीयकरण का मामला विचारों का। लेकिन दोनों न्यायपालिका की कमजोरी दिखाते हैं।
इमरजेंसी में यही हाल अखबारों का भी हुआ। सेंसरशिप के खिलाफ लड़ना तो दूर, उन्होंने खुद ही गुणगान शुरू कर दिया। अंग्रेजी की मशीनरी रहे प्रशासन से क्या उम्मीद की जा सकती थी?

आज बिना इमरजेंसी के ही न्यायपालिका और मीडिया का रवैया देख लीजिए। ऐसे में सवाल उठता है कि लोकतंत्र को खत्म करने के लिए इमरजेंसी जैसे किसी कदम की जरूरत है क्या? इमरजेंसी से तो लड़ा जा सकता है, लेकिन बिना इमरजेंसी की तानाशाही से लड़ना मुश्किल है। सरकार के खिलाफ बोलने वालों के राजद्रोह के मुकदमे ठोक देने का काम तो इमरजेंसी में भी नहीं हुआ था। संस्थाओं को ध्वस्त करने के लिए इमरजेंसी की जरूरत नहीं है। हम देख सकते हैं कि मरी हुई संस्थाएं मॉब लिचिंग जैसी भयावह घटनाओं को बिना किसी इमरजेंसी या बिगड़ैल संजय गांधी की उपस्थिति के ही बर्दाश्त कर सकती हैं। इसके लिए आपको सरकार के खिलाफ बोलने की जरूरत नहीं है। किसी मजहब को मानने या खास तरह के खानपान की वजह से आप दोषी हो जाते हैं और आपको सजा देने के लिए किसी अदालती या पुलिसिया कार्रवाई की जरूरत भी नहीं है।

इमरजेंसी के बाद कांग्रेस ने एक सबक जरूर सीखा कि उसने इसके बाद जनता की आवाज को नजरअंदाज करने से बचने की कोशिश की। इसका सबसे बड़ा उदाहरण अन्ना हजारे का आंदोलन है। सरकार ने न केवल वरिष्ठ मंत्रियों को बातचीत का जिम्मा सौंपा बल्कि संसद तक में इसकी चर्चा की। लेकिन आज दिल्ली की सीमा पर हजारों किसान महीनों से बैठे हैं, लेकिन कारपोरेट को फायदा पहुंचाने के लिए बने तीन कृषि कानूनों को सरकार वापस लेने को तैयार नहीं है। यह क्या किसी इमरजेंसी कम है क्या?
इमरजेंसी पर बात करते समय हमें तानाशाही के तत्वों को पहचानने की जरूरत है।  
(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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