Thursday, April 25, 2024

संसद उद्धाटन में भागीदारी के फैसले के पीछे क्या हैं बीएसपी, टीडीपी और जेडीएस की मजबूरियां

नई दिल्ली। नयी संसद के उद्घाटन मामले में विपक्ष के हमले से परेशान मोदी सरकार ने बाकी दलों का समर्थन हासिल करने के लिए अपनी एड़ी चोटी का जोर लगा दिया है। इस कड़ी में उसने साम-दाम दंड और भेद सभी चीजों का सहारा लेना शुरू कर दिया है। कांग्रेस ने तो बाकायदा इसका उस पर आरोप ही लगाया है। लेकिन मामला केवल यहीं तक सीमित नहीं है इसके पीछे समर्थन देने वाले दलों के अपने हित और उनका अपना राजनीतिक गुणा-गणित भी शामिल है। बीजेडी और वाईएसआरसीपी के बाद अब टीडीपी, जनता दल (एस) और बीएसपी ने भी उद्घाटन कार्यक्रम में हिस्सा लेने का ऐलान किया है। लेकिन इन समर्थनों के साथ ही अपनी दूरियां दिखाने की कोशिश भी सामने आ रही हैं जो उनके कार्यक्रम में भागीदारी के तरीके के तौर पर देखने को मिल रहा है।

शुरुआत सामने आए नये समर्थकों से अगर की जाए तो उसमें बीएसपी सबसे प्रमुख पार्टी हो जाती है। यह बात अब किसी से छुपी नहीं है कि बीजेपी के सत्ता में आने के साथ ही बीएसपी और उसकी नेता मायावती सत्ता के दबाव में हैं। और यह दबाव गाहे-ब-गाहे अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग रूप में दिखता रहा है। वह चाहे किसी चुनाव का मौका हो या फिर किसी नीति और विधेयक के मसले पर संसद के भीतर सत्ता पक्ष के समर्थन का। जरूरत पड़ने पर बीएसपी और उसकी मुखिया प्रत्यक्ष या फिर परोक्ष तौर पर सरकार के साथ खड़ी हो जाती रही हैं। सरकार के विरोध में न जाने का यह पुरस्कार उन्हें इस रूप में ज़रूर मिलता रहा कि ईडी और सीबीआई ने उनका दरवाजा नहीं खटखटाया। अब एक बार फिर जब सरकार को समर्थन की जरूरत पड़ी तो वह उसके साथ खड़ी हो गयी हैं और इतना ही नहीं उन्होंने विपक्ष की कड़ी आलोचना की है और इसे राष्ट्र का कार्यक्रम बताते हुए उसके समर्थन की बात कही है।

जबकि इस कार्यक्रम के जरिये न केवल संविधान, संसदीय प्रणाली और राष्ट्रपति का अपमान किया जा रहा है बल्कि प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में संविधान निर्माता डॉ. भीम राव अंबेडकर को भी धता बताने की कोशिश की जा रही है। ऐसे में उनके विचारों और संदेशों पर चलने वाली किसी भी पार्टी के लिए इसका विरोध पहला कर्तव्य बन जाता है। मामला केवल संविधान और मौजूदा संस्थाओं तक सीमित होता तो भी कोई बात थी। संसद के इस उद्घाटन के जरिये बीजेपी-संघ ने देश में ब्राह्मणवादी सत्ता की पु्र्नप्रतिष्ठा की भी कोशिश शुरू कर दी है। पीएम मोदी को चोल वंश के राजदंड द्वारा सत्ता स्थानांतरण के बाद संसद के भीतर स्पीकर की कुर्सी के बगल में उसकी स्थापना इसका सबसे बड़ा प्रतीक बनने जा रहा है। इतिहास में चोल वंश को एक ब्राह्मणवादी शासन व्यवस्था के तौर पर जाना जाता है। जिसमें ब्राह्मण समुदाय सर्वोपरि था। और वह किस हद तक था इसकी नज़ीर एक ऐतिहासिक घटना में देखी जा सकती है।

एक घटना के मुताबिक उस शासन के दौरान ब्राह्मण जाति के एक शख्स ने एक राजा की हत्या कर दी जिसके बाद तत्कालीन राजा के गुरुओं ने यह व्यवस्था दी कि ब्राह्मण होने के नाते उसको मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता है। बाद में एक बीच का रास्ता निकाला गया जिसके तहत उस ब्राह्मण की संपत्ति जब्त कर ली गयी और उसे काशी भेज दिया गया। इतना ही नहीं चोल वंश के तमाम शिलापट्टों और स्तंभों पर भी वेद की सूक्तियां और श्लोक अंकित किए गए थे। इतिहास बताता है कि इसी वंश के एक राजा ने श्रीलंका पर हमला कर उस पर अपनी सत्ता स्थापित किया था। लिहाजा बीजेपी-संघ ने अपने मौजूदा दौर के लिए इसे एक आदर्श सत्ता के तौर पर पेश किया है। और उसके प्रतीकों को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने के जरिये एक बार फिर से देश में ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था की पुनर्वापसी का संदेश दे रही है।

बहुजन समाज पार्टी और उसके नेता कांशीराम ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था को उखाड़कर बहुजनों के राज की स्थापना का लक्ष्य रखा था और इस मामले में उन्होंने बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर को अपने आदर्श के तौर पर पेश किया था। आज उसी पार्टी की मुखिया मायावती एक ऐसी सत्ता और सरकार के उन कार्यों का समर्थन कर रही हैं जो देश की मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था की कब्र पर ब्राह्मणवादी राज को स्थापित करना चाहती है।

बहरहाल यह वैचारिक पक्ष अपनी जगह है। लेकिन कुछ जानकारों का यह भी कहना है कि इससे मायावती और उनकी पार्टी को बहुत नुकसान नहीं होने जा रहा है। राष्ट्रपति चूंकि आदिवासी समाज से हैं और बीएसपी का अभी कोई उस तबके में आधार नहीं है जिससे उसका कुछ नुकसान होने जा रहा है। इसके साथ ही मायावती को अपने दलित आधार पर इतना भरोसा है कि वह कम से कम इस फैसले से अपना कोई रुख नहीं बदलेगा। और अब जबकि वह बहुजन के रास्ते को छोड़कर सर्वजन के रास्ते पर चल पड़ी हैं तो इस तरह के किसी नुकसान की उन्हें कोई आशंका भी नहीं है। हालांकि उन्होंने खुद को व्यक्तिगत तौर पर इस कार्यक्रम से अलग रखा है। और किसी व्यस्तता का हवाला देकर कार्यक्रम में हिस्सा लेने से इंकार किया है। शायद इसके जरिये वह अपने समर्थक आधार को भी एक संदेश देने की कोशिश कर रही हैं।
दूसरी पार्टी जनता दल (एस) है जिसने कार्यक्रम में भाग लेने का ऐलान किया है।

पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने संसद को देश और जनता की संपत्ति तथा कार्यक्रम को राष्ट्रीय कार्यक्रम करार देते हुए उसमें हिस्सा लेने की बात कही है। वैसे तो जनता दल (एस) अपने को सेकुलर पार्टी कहती है। और बीजेपी-कांग्रेस दोनों के खिलाफ हाल के कर्नाटक में उसने चुनाव लड़ा है। बावजूद इसके अगर जनता दल (एस) इस कार्यक्रम में हिस्सा ले रहा है तो इसके गहरे निहितार्थ हैं। दरअसल कर्नाटक में कांग्रेस अपने पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है। सेकुलर राजनीति तथा दोनों का एक ही आधार होने के चलते लगता है पार्टी अब कांग्रेस के साथ एक निश्चित दूरी बनाए रखने का संदेश देना चाहती है। चुनाव में उसका 18 फीसदी से वोट घटकर 13 फीसदी आना और इन सारे वोटों का कांग्रेस के खाते में जाने का संदेश बिल्कुल साफ है। कांग्रेस की बढ़त का मतलब जेडीएस का नुकसान। मुस्लिम मतदाताओं ने जिस तरह से जेडीएस के मुकाबले कांग्रेस को प्राथमिकता दी है उससे पार्टी के सामने एक नया संकट खड़ा हो गया है।

इतना ही नहीं अभी तक वोक्कालिगा समुदाय पर देवगौड़ा का एकछत्र अधिकार था और अपने समुदाय और मुस्लिम मतों के सहयोग से पार्टी वहां खड़ी थी। लेकिन उस वोक्कालिगा समुदाय में भी डीके शिवकुमार के जरिये कांग्रेस ने सेंधमारी शुरू कर दी है। उससे पार्टी के सामने अपने अस्तित्व को लेकर ही संकट खड़ा होने की आशंका पैदा हो गयी है। बीजेपी कम से कम तत्काल इस तरह का उसके सामने कोई खतरा पैदा करती नहीं दिख रही है। शायद यही कुछ वजहें हों जिनके चलते देवगौड़ा और उनकी जेडीएस ने बीजेपी का रुख किया हो। इसके साथ ही एजेंसियों का डर तो स्थाई है और वह देवगौड़ा और उनके बेटे एडी कुमारस्वामी अच्छे से समझते हैं।

अब रही टीडीपी की बात तो उसका बीजेपी के साथ पुराना याराना है। जब तमाम सेकुलर पार्टियां बीजेपी से दूरी बना कर चलती थीं तब उस समय टीडीपी उसके साथ हुआ करती थी। लिहाजा दोनों का एक साथ आना और एक दूसरे को समर्थन करना कोई चकित करने वाली बात नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि आंध्र प्रदेश की प्रमुख पार्टियां यानी वाईएसआरसीपी और टीडीपी दोनों सरकार के इस कार्यक्रम का समर्थन कर रही हैं। इसमें एक वजह यह हो सकती है कि बीजेपी के समर्थन और विरोध से उनके सामाजिक आधार पर तो कोई असर नहीं पड़ेगा। लेकिन इसका लाभ और हानि दूसरे रूपों में ज़रूर है। मसलन भ्रष्टाचार के कई मामलों में कभी जेल जा चुके जगनमोहन रेड्डी अपनी सत्ता के दौरान अपने लिए कोई नई मुसीबत नहीं पालना चाहते। लिहाजा वह समर्थन कर अपनी इस तरह की सभी चिंताओं से मुक्ति पा लेना चाहते हैं। टीडीपी अब जबकि सत्ता से बाहर है तो उसे केंद्र में मौजूद एक सत्ता का साथ उसके लिए कई रूपों में फायदेमंद है। मसलन किसी दौर में सूबे की सत्ता का उसके खिलाफ जाने पर केंद्र से मदद का विकल्प उसके पास हमेशा मौजूद होगा।

इस मामले में बीजेडी का सरकारी कार्यक्रम के समर्थन में आना सबसे ज्यादा चकित करने वाला है। आम तौर पर इस तरह की गतिविधियों के प्रति उदासीन रहने वाले दल ने कार्यक्रम ने खुल कर भाग लेने का ऐलान किया है। और ऐसी स्थिति में जबकि उड़ीसा में आदिवासियों की संख्या बहुत ज्यादा है। और खुद मौजूदा राष्ट्रपति भी वहीं से आती हैं। ऐसे में बीजेडी के वोट के बिगड़ने की पूरी आशंका है। इन खतरों के बावजूद पार्टी ने एक अलग रुख लिया है। इसके पीछे एक बात यह हो सकती है कि सामान्य तौर पर केंद्र में जो सामान्य संवैधानिक प्रक्रिया है उसके साथ रहने की हर पार्टी की स्वाभाविक रणनीति हो सकती है। और उसमें किसी तरह के विवाद की स्थिति में सामान्य प्रोटोकाल का हवाला देकर उससे बचा जा सकता है। लेकिन मामला सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं लगता है।

विधानसभा चुनावों में भले ही बीजेपी को उस तरह से वोट नहीं मिलता हो लेकिन लोकसभा चुनावों में वहां से उसकी अच्छी खासी सीटें आती हैं। और इसके जरिये यह बात साबित होती है कि जनता का एक हिस्सा दोनों पार्टियों का समर्थन करता है। विधानसभा चुनाव में वह बीजेडी के साथ खड़ा हो जाता है और जब लोकसभा का मौका आता है तो वह बीजेपी के साथ होता है। और अगर ऐसा है तो नवीन पटनायक कभी भी उस हिस्से को नाराज नहीं करना चाहेंगे क्योंकि आने वाले चुनाव में उसका उन्हें बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। इसके साथ ही भले ही बीजेडी कांग्रेस और बीजेपी से बराबर दूरी रखती हो लेकिन एक सेकुलर दल होने के चलते उसको बड़ा खतरा कांग्रेस से ही है। लिहाजा अगर कोई ऐसा मौका आया जिसमें दोनों के बीच उसे चुनने का फैसला लेना पड़ा तो वह स्वाभाविक तौर पर बीजेपी की तरफ जाएगी। और एक ऐसे दौर में जबकि कांग्रेस लगातार देश के पैमाने पर बढ़त हासिल कर रही हो तो क्षेत्रीय दलों के लिए यह किसी खतरे की घंटी से कम नहीं है। शायद नवीन पटनायक को भी इस घंटी की आवाज सुनायी पड़ रही है।

(जनचौक ब्यूरो की रिपोर्ट।)

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