राजस्थान में तीसरे मोर्चे का गठन; घनश्याम तिवाड़ी, सपा, लोकदल समेत कई दलों का मिला समर्थन

Estimated read time 1 min read

मदन कोथुनियां

(शिक्षा जगत में व्याप्त संकट और उसके हल के उपायों पर विचार करने के लिए ज्वाइंट फोरम फॉर मूवमेंट ऑन एजुकेशन (जेएफएमई) की ओर से “क्राइसिस इन एजुकेशन एंड पीपुल्स इनिशिएटिव” विषय पर दिल्ली के मावलंकर हाल में आज एक सेमिनार हो रहा है। इस कार्यक्रम में देश भर के शिक्षा जगत से जुड़े लोग हिस्सा ले रहे हैं। इस पूरे आयोजन और विषय पर वरिष्ठ पत्रकार विमल कुमार ने एक लेख लिखा है। पेश है उनका पूरा लेख- संपादक)

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बार-बार अपने भाषणों में कहते हैं कि सत्तर साल में यह नहीं हुआ, वह नहीं हुआ लेकिन जो कुछ हुआ उनकी सरकार की बदौलत ही हुआ। इस तरह उन्होंने गत चार सालों में लोगों को सब्ज़बाग़ अधिक दिखाए हैं जबकि हकीकत बिल्कुल उल्टी है। शिक्षा के क्षेत्र में भी उन्होंने व्यापक सुधार के दावे किये और ऐसी तस्वीर पेश करने की कोशिश की कि जो कुछ उल्लेखनीय हुआ वह  उनकी सरकार ने किया। लेकिन सच तो यह है कि उनके कार्यकाल में शिक्षा जगत में असंतोष बढ़ा है और शिक्षक एवं छात्र दोनों काफी परेशान एवं हताश हुए हैं।

परिसरों में काफी हिंसा, अराज़कता प्रतिशोध का माहौल व्याप्त हुआ है और अध्यापन कार्य प्रभावित हुआ है….और तो और एक ऐसे विश्वविद्यालय को अंतर राष्ट्रीय बनाने का प्रस्ताव किया जो वास्तव में अस्तित्व में ही नहीं था। उन्हें समझना चाहिए था कि दुनिया के सभी विश्यविद्यालय छात्रों को केवल डिग्री देने का ही काम नहीं करते बल्कि वे लोकतंत्र की पाठशाला भी रहे हैं। इस दृष्टि से वे बहस मुबाहिसे, चर्चा, विरोध-प्रतिरोध तथा अभिव्यक्ति की आज़ादी का भी मंच रहे हैं। डाक्टर इंजीनियर से लेकर शिक्षा शास्त्री समाजसेवी और राजनीतिज्ञ भी उन्ही संस्थानों से निकलते हैं।

अक्सर देखा यह जाता है कि राजनीतिज्ञों का राजनीतिक जीवन कालेजों विश्वविद्यालयों से शुरू होता है और वे भी चर्चा विमर्श में भाग लेते हैं तथा छात्र नेता के रूप में विश्वविद्यालयों के परिसरों में अपने अधिकारों एवं न्याय के लिए धरना-प्रदर्शन भी करते हैं। इस तरह वे लोकतांतत्रिक मूल्यों के हिमायती होते हैं लेकिन दुर्भाग्यवश आज के छात्र नेता जब सत्ता में आते हैं तब वे लोकतान्त्रिक मूल्यों का ही गला घोंटने लगते हैं।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी (जिनकी डिग्री खुद संदेहों के घेरे में रही) विश्वविद्यालयों में लोकतंत्र का गला घोंटने का काम किया। भाजपा नेता प्रकाश जावड़ेकर ने भी अपना राजनीतिक जीवन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् से शुरू किया है और उन्होंने अपने छात्र जीवन में लोकतान्त्रिक मूल्यों का समर्थन किया और यही कारण है कि उन्होंने आपातकाल का विरोध भी किया था। आज देश के मानव संसाधन विकास मंत्री के रूप में उन्होंने शिक्षा में सुधार के कार्यक्रमों को लागू करने के लिए अनेक कदम उठाने के दावे किये। लेकिन वास्तविकता यह है कि उनके कार्यकाल में देश के विश्वविद्यालयों में गहरा असंतोष, अशांति और अराजकता का माहौल भी बना है।

आजादी के बाद इतनी अशांति और हिंसा  कभी भी विश्विद्यालयों में नहीं रही। देश के विश्वविद्यालय भले ही स्वायत्त हों लेकिन एक मंत्री के रूप में वे अपने दायित्वों से बच  नहीं सकते। अगर किसी विश्वविद्यालय में लोकतान्त्रिक मूल्यों का गला घोंटा जा रहा हो तो वे मूक दर्शक भी बने नहीं रह सकते। इसलिए उनका यह परम कर्तव्य बनता है कि वे हस्तक्षेप कर परिसरों में शांति एवं अध्यापन का माहौल बनाने में मदद करें और कुलपतियों को निर्देश दें। लेकिन क्या वे ऐसा कर रहे हैं?

यह सवाल यहां इसलिए उठाया जा रहा है क्योंकि शिक्षकों की मांगों को स्वीकार करने, खाली पदों को तेजी से एवं न्याय संगत तरीके से भरने की जगह उल्टे उन्होंने एस्मा कानून लगाने की कोशिश की। इसी 4 अक्तूबर को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने एक कार्यदल गठित कर दिल्ली विश्विद्यालय कानून 1922 में बदलाव लाकर एस्मा के प्रावधानों को शामिल किये जाने की संभावनाएं तलाशने का काम किया।

यह अलग बात है कि शिक्षकों के भारी दबाव और विरोध के कारण उन्हें इस कदम को वापस लेना पड़ा। उच्च शिक्षा सचिव को भी तत्काल सफाई देनी पड़ी लेकिन इस से सरकार की नीयत का पता चलता है गत सत्तर सालों में ऐसी कोशिश कभी नहीं हुई। जावड़ेकर ने कहा है कि वे शिक्षकों की स्वतंत्रता पर कोई अंकुश नहीं लगाना चाहते हैं। यह पूरी दुनिया को पता है सरकार एस्मा कानून लगाकर सरकारी कर्मचारियों के हड़ताल करने के अधिकार को छीन लेती है और उनकी नौकरियां भी खा जाती है तथा जेल के अन्दर उन्हें बंद कर देती  है। उनके आन्दोलन को कुचलने का यह एक प्रमुख हथियार है। 

डोक्टरों, रेलवे कर्मचारियों और नर्सों की हड़तालों को रोकने के लिए सरकार ने कई बार एस्मा लगाया है और इसके जरिये उनकी हड़तालों को तोड़ा भी है लेकिन अब तो यह भी देखा गया है कि एस्मा लगने के बावजूद कर्मचारियों की हड़तालें जारी रहीं। यानी कर्मचारियों ने अपनी नौकरियों की परवाह न करते हुए भी अपने अधिकारों की लडाई लड़ना उचित समझा। इससे इस बात की गंभीरता को समझा जा सकता है कि वे न्याय से किस कदर वंचित किये जा रहे हैं। आज़ाद भारत में कभी भी उच्च शिक्षण संस्थानों में न तो एस्मा और न ही केन्द्रीय कर्मचारी नियमवाली लगाने की भी कोशिश हुई तब आज क्यों सरकार के मन में यह ख्याल आया? क्या विश्वविद्यालयों में हड़ताल और आन्दोलनों के कारण अध्यापन कार्य और परीक्षायें  प्रभावित हो रही हैं? उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन समय पर नहीं हो रहा है? छात्रों की क्लासें नहीं हो रही हैं ?

इस वज़ह से सरकार यह कानून लागू करना चाहती थी या फिर वह इसे एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर शिक्षकों के प्रतिरोध को दबाना चाहती थी? जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में जिस तरह प्रशासन का टकराव छात्रों और शिक्षकों के साथ चल रहा है क्या, वैसा ही टकराव अब दिल्ली विश्विद्यालय में भी शुरू करने का सरकार का इरादा था ? क्या सरकार देश में यह सन्देश देना चाहती थी कि शिक्षक समुदाय बहुत अराज़क हो गये हैं इसलिए उन पर अंकुश लगाया जाना अधिक जरुरी है। लेकिन क्या यह सही रास्ता था ?

सरकार का काम शिक्षक संगठनों से संवाद बना कर समस्यायों को सुलझाना है, न कि टकराव को बढ़ाना। लेकिन जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय के शिक्षकों के साथ सरकार ने कोई संवाद बनाने की कोशिश नहीं की। क्या इसलिए कि वहां छात्रो और शिक्षकों में वाम का वर्चस्व है? दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ में भी वाम और कांग्रेस का अधिक बोलबाला है। पिछले दिनों कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी देश के शिक्षक समुदाय को संबोधित किया है। क्या इन बातों से मोदी सरकार घबराई हुई है?

अगर सरकार को शिक्षक समुदाय से कोई असंतोष है तो वह अपनी शिकायतें तथा अपेक्षाएं शिक्षक संगठनों से कर सकती है और उन्हें अपनी बात कह सकती है, देश के विश्वविद्यालय, चाहे इलाहाबाद विश्वविद्यालय हो या अलीगढ़ विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय (बिहार) सभी जगह छात्रों शिक्षकों का प्रशासन से टकराव है। अलीगढ़ विश्वविद्यालय में तो 1200 कश्मीरी छात्रों ने अपनी डिग्रियां लौटाने की बात कही है।

देश के इतिहास में यह पहली घटना होगी जब इतनी संख्या में छात्र अपनी डिग्रियां लौटायेंगे लेकिन विश्वविद्यालयों में दक्षिण पंथी छात्र एवं शिक्षकों का आतंक दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है और मारपीट हिंसा की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं उसे रोकने के लिए सख्त कार्रवाई क्यों नहीं होती? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर क्यों चुप्पी साध लेते हैं?वे हस्तक्षेप नहीं करते। जेएनयू के कुलपति आखिर किस की शह पर अलोकतांत्रिक कदम उठा रहे हैं। अदालत भी उनके फैसलों को गैर कानूनी बता रही है लेकिन इस के बावजूद सरकार मूक दर्शक बनी हुई है।

दरअसल आज हमारे उच्च शिक्षण संस्थानों की दुर्गति के पीछे राजनीतिक दलों गुटों और संगठनों का भी हाथ है जिसने अध्यापन पठन-पाठन शोध कार्यों पर पूरा ध्यान न देकर हर चीज़ का अति राजनीतिकरण किया है। कांग्रेस और भाजपा की छात्र इकाईयां जिस तरह चुनाव में पैसे बहाती हैं उससे पता चलता है कि विश्वविद्यालयों में किस तरह की राजनीति चल रही है लेकिन कोई सरकार इस संस्कृति को दूर करने की जगह अंकुश लगाने और आन्दोलनों को कुचलने की नीति अपनाती है। मोदी सरकार इस दृष्टि  से कांग्रेस से अधिक दमनकारी है। यही कारण है कि एस्मा जैसे कानून को लगाने का ख्याल मौजूदा सरकार के मन में आया है जो लोकतंत्र के लिए ही नहीं बल्कि शिक्षा जगत के लिए अशुभकारी है। इससे समस्या सुलझने की बजाय स्थिति और विस्फोटक होगी।

सरकार ने एस्मा की बात भले ही वापस ले ली लेकिन केन्द्रीय कर्मचारी नियमावली पर वह अडिग है। इसके अलावा ग्रेडेड ऑटोनोमी को भी लागू करने पर आमादा है। दिल्ली विश्वविद्यालय के साथ एमओयू कर निजीकरण का मार्ग प्रशस्त कर रही है। दिल्ली विश्वविद्यालय ही नहीं बल्कि केन्द्रीय विश्वविद्यालय एवं राज्यों के विश्वविद्यालय के शिक्षकों ने अब एक संयुक्त मोर्चा बना कर अपनी लड़ाई लड़ने का आह्वान किया है और आज वे देश की राजधानी में  एक राष्ट्रीय सम्मेलन कर रहे हैं। लेकिन प्रश्न है कि अब चुनावी वर्ष में क्या शिक्षकों की लड़ाई रंग लायेगी और उन्हें न्याय मिल पायेगा? या उन्हें भाजपा सरकार के विदा होने तक इंतज़ार करना पड़ेगा?

(विमल कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

please wait...

You May Also Like

More From Author

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments