हाल ही में लखनऊ शहर की एक नई आबाद होती कालोनी में रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन (RWA ) का चुनाव सम्पन्न हुआ। इसका अनुभव बड़ा रोचक रहा। सर्वोपरि तो यही कि चुनाव चाहे जिस भी स्तर का हो, कमोबेश समान सामाजिक राजनीतिक शक्तियां और राजनीतिक प्रवृत्तियां क्रियाशील हैं, बड़े चुनावों के पैटर्न जैसी ही।
अब तक इस कॉलोनी में आम सहमति से RWA की कमेटी का चयन हो जाया करता था। लेकिन जब कॉलोनी में संघ भाजपा के तत्वों को यह लगा कि उनकी इच्छानुसार काम नहीं हो रहा है, तब उन्होंने RWA कमेटी को अस्थिर करने का अभियान शुरू किया। बात-बात पर कमेटी के ग्रुप में नकारात्मक संदेश आने लगे। अनावश्यक नेतृत्व की लगातार घेरेबंदी और हर चीज पर शिकवा शिकायत शुरू हुई। बहरहाल उस सबका माकूल जवाब मिलता रहा।
अंततः 22 जनवरी को जब अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा हो रही थी, तब जबरदस्त दबाव बनाया गया कि देश में जैसे हर जगह हो रहा है, यहां भी वैसे ही कार्यक्रम किया जाय। लेकिन अध्यक्ष ने जब बिल्कुल स्पष्ट निर्णय ले लिया कि यहां कॉलोनी में RWA की ओर से कोई कार्यक्रम नहीं होगा, व्यक्तिगत रूप से जिसकी जो इच्छा हो वह करने के लिए स्वतंत्र है। तब अध्यक्ष को हिंदू विरोधी और मुस्लिम परस्त घोषित किया गया। यह उस लंबी प्रक्रिया की चरम परिणति थी जो लंबे समय से चल रही थी।
दरअसल RWA की कार्यकारिणी ने यह तय किया था कि तीन पर्व त्यौहार साल भर में RWA की ओर से आयोजित किए जाएंगे, होली, ईद और नया साल। इसको भी अध्यक्ष की मुस्लिमपरस्ती घोषित किया गया कि कॉलोनी में मात्र चार मुसलमान रहते हैं और उनके लिए ईद मनाई जा रही है। 15 अगस्त, 26 जनवरी के अध्यक्षीय उद्बोधन में अध्यक्ष द्वारा आजादी की लड़ाई में मुस्लिम नायकों के योगदान की चर्चा की जाती या भारत में गणतंत्र के मूल्यों पर बात होती, डॉ. अंबेडकर के योगदान पर चर्चा होती तो एक खास विचारधारा से प्रेरित लोग बहुत बुरा मानते थे। उन्होंने एकतरफा अध्यक्ष के खिलाफ RWA के इन कदमों के कारण मिथ्या अभियान चलाना शुरू कर दिया। इसमें तमाम नकारात्मक तत्वों की एकता बनती चली गई। जातिवाद से लेकर सांप्रदायिक गोलबंदी तक के प्रयास किए गए।
नकारात्मक तत्वों की जबरदस्त एकता बनी, उनकी मांग थी कि हर बार की तरह आम सहमति से या हाथ उठाकर बहुमत से नहीं बल्कि गुप्त मतदान के द्वारा चुनाव होगा। लाख समझाने के बावजूद वे गुप्त मतदान से कम पर राजी नहीं हुआ।
चुनाव आ जाने पर एकदम से नए सदस्यों की भर्ती शुरू कर दी गई। बताया जाता है कि तमाम नए मेंबर बनाने के लिए प्रत्याशियों ने अपने पास से उनकी मेंबरशिप फीस जमा की। रातों रात करीब-करीब जितने पुराने मेंबर थे उतने ही नए भर लिए गए। यह कुछ कुछ वैसे ही था जैसे महाराष्ट्र में अंतिम दिनों में लाखों नाम मतदाता सूची में जोड़े गए। रात दिन लोगों ने धुंआधार प्रचार किया। इन ताकतों ने बदलाव का आकर्षक नारा दिया, उनका तर्क था कि सात साल से एक ही अध्यक्ष क्यों है, नए लोगों को मौका मिलना चाहिए। लेकिन अंदर अंदर वे अध्यक्ष के मुस्लिम परस्त और हिंदू विरोधी होने का प्रचार चलाते रहे, उनके दोनों कैंडिडेट जाति विशेष का होने के कारण वे जातिवादी गोलबंदी के लिए सारी हदें पार कर गए।
इस जातिवादी गोलबंदी के खिलाफ दूसरे जातियों समुदायों की भी गोलबंदी हुई। इसके अलावा सभी तबकों के तमाम उदार लोकतांत्रिक तत्व भी साथ आ गए। यही अंततः निर्णायक साबित हुआ। एक कालोनी में जहां रोज लोगों का एक दूसरे से मिलना जुलना है, वहां पड़ोसी भी एक दूसरे के खिलाफ खड़े हुए, आपस में तनाव भी पैदा हुआ।
अतिआत्मविश्वास में चूर अध्यक्ष बदलने में लगी टीम की ओर से जश्न मनाने की जबरदस्त तैयारी थी। बहरहाल कड़ी टक्कर में पुराने अध्यक्ष की ही जब जीत हो गई तो दूसरे पक्ष में मातम छा गया। खीझ और निराशा में कुछ लोगों ने RWA से इस्तीफा दे दिया तो कई ने RWA के व्हाट्सएप ग्रुप से अपने को अलग कर लिया।
सबके दुखद पहलू यह रहा कि कई जगह पड़ोसियों के बीच, एक साथ पार्क में टहलने वालों के बीच तनाव पैदा हो गया, कई बार तो उनमें आपस में बातचीत तक बंद होने की नौबत आ गई। चुनाव में पराजित होने के बाद वे शक्तियां शांत नहीं बैठी हैं बल्कि तरह तरह के मुद्दे उठाकर नवनिर्वाचित कमेटी के काम में बाधा डालने का प्रयास कर रही हैं।
चुनाव तो छोटे स्तर का था और मतदाताओं की संख्या कम थी लेकिन इसमें वे सारी प्रवृत्तियां और मुद्दे उभर कर आ गए जो राष्ट्रीय या प्रादेशिक चुनावों में घटित हो रहा है। दरअसल पिछले दस सालों में देश में जिस तरह की नफरती राजनीति का जाल बुना गया है, उसका समाज में निचले स्तर तक गहरा असर हुआ है, विशेषकर खाए पिए अघाये मध्यवर्गीय तबकों में उस राजनीति ने अपनी गहरी जड़े जमा ली हैं।
इस सबके बावजूद समाज में जमीनी स्तर पर विवेकवान शक्तियां और हाशिए की ताकतें बहुमत में हैं और सही दिशा में यदि प्रयास किया जाय तो वे प्रगतिशील, जनोन्मुखी दिशा के साथ खड़ी होती हैं। राजनीतिक स्तर पर संघ भाजपा को शिकस्त देना है तो आज के दौर में जमीनी स्तर पर, कालोनियों में समाज की तमाम संस्थाओं में उनकी ताकत से जगह जगह टकराना और उन्हें शिकस्त देना बेहद जरूरी है।
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)
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