बहराइच। उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले के महराजगंज कस्बे में प्रवेश करते ही एपीजे अब्दुल कलाम स्मृति द्वार आपका स्वागत करता है, और कुछ ही दूरी पर “राम-रहीम इंटर कॉलेज” की इमारत दिखाई देती है।
ये दोनों जगहें यहां के भाईचारे और इंसानियत की प्रतीक हुआ करती थीं, लेकिन 13 अक्टूबर की सांप्रदायिक हिंसा ने इस कस्बे में बसने वाले भाईचारे और विश्वास को बुरी तरह से बिखेर दिया।
अब महराजगंज की सड़कों पर पसरा सन्नाटा यहां की टूट चुकी तहजीब की गहरी आहट है। हर घर में एक अनकहा डर और दिलों में एक छुपा हुआ दर्द आज भी जिंदा है।
महराजगंज, जो कभी गंगा-जमुनी तहजीब का एक जीता-जागता उदाहरण था, अब खौफ और उदासी में लिपटा नजर आता है।13 अक्टूबर की उस काली शाम ने यहां के हर कोने में एक घाव छोड़ा है। दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के दौरान राम गोपाल मिश्रा की हत्या ने पूरे कस्बे को गहरे शोक में डाल दिया।
अगले दिन, 14 अक्टूबर को गुस्से की आग ने ऐसा रूप ले लिया कि एक बाइक शोरूम और अस्पताल को आग के हवाले कर दिया गया, और कई गाड़ियां जला दी गईं। खास बात यह थी कि ये सभी प्रतिष्ठान मुस्लिम समुदाय के लोगों के थे, जिससे दोनों समुदायों के बीच एक अजीब सी दीवार खड़ी हो गई है।
महराजगंज की गलियों में आज सिर्फ सन्नाटा पसरा है। हर चेहरा खौफजदा है, और हर घर जैसे किसी अदृश्य डर की गिरफ्त में है। लोगों का कहना है कि अगर पुलिस ने समय पर कड़े इंतजाम किए होते, तो शायद इस हिंसा को रोका जा सकता था।

विसर्जन के दौरान जब डीजे पर गानों को लेकर विवाद भड़का, तब भी पुलिस वहां मौजूद थी, लेकिन उन्होंने मूकदर्शक बनकर सब देखा और भीड़ को शांत करने की कोई कोशिश नहीं की। स्थानीय लोगों के अनुसार, यदि पुलिस ने विवाद की गंभीरता को समझा होता और पहले से सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए होते, तो शायद यह हादसा टल सकता था।
लापरवाही ने खाक कर दिया भाईचारा
महराजगंज का बाजार और गलियां अब वीरान हो गई हैं। दुकानों पर ताले लटके हुए हैं, कुछ लोग बगैर ताला लगाए ही अपना घर छोड़कर चले गए हैं। पुलिस की भारी तैनाती के बावजूद लोगों में सुरक्षा का कोई अहसास नहीं है, बल्कि एक गहरे डर का साया हर जगह महसूस होता है। कुछ दुकानें खोली गईं, लेकिन उन दुकानों में भी ग्राहकों का साया तक नहीं था। हर ओर सिर्फ खामोशी का राज है, मानो पूरा कस्बा अपनी गहरी घुटन में कैद हो।
पुलिस ने सोशल मीडिया पर फैल रही अफवाहों को रोकने के लिए भी कड़ी नजर रखी है। पुलिस अधीक्षक वृंदा शुक्ला ने चेतावनी दी है कि अफवाहें फैलाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी।
उन्होंने यह स्पष्ट किया कि राम गोपाल मिश्रा की मौत गोली लगने से हुई है और अन्य किसी अफवाह पर ध्यान न दिया जाए। मगर लोगों के दिलों में उठ रहे सवाल अब भी कायम हैं, क्या सच्चाई इतनी ही सीधी है, या इसके पीछे कोई और दर्दनाक कहानी है?
महराजगंज के इस टूटे हुए भाईचारे को जोड़ने के लिए पुलिस और प्रशासन ने शांति बैठकें की हैं। मुस्लिम धर्मगुरुओं ने भी लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की, लेकिन दिलों में बैठी हुई आशंकाएं और भय इतना गहरा है कि लोग अपनी दुकानों को खोलने से भी डर रहे हैं। यहां तक कि जुमे की नमाज के दिन भी मस्जिदों में सन्नाटा पसरा रहा।

महराजगंज के मुख्य मार्गों और गलियों में पुलिस के जवान तैनात हैं। हर आने-जाने वाले की सख्ती से जांच हो रही है। पुलिस, पीएसी, एटीएस, और एसटीएफ के जवान लगातार मुस्लिम बहुल इलाकों में डटे हुए हैं। लेकिन लोगों के चेहरे पर असुरक्षा का साया आज भी उतरा हुआ है। यह स्थिति केवल डर को गहरा कर रही है, मानो यह कस्बा अब अपनी खोई हुई तहजीब को खोजने की बजाय किसी अदृश्य खाई में डूबता जा रहा हो।
तंत्र की सोई हुई सजगता पर सवाल
महराजगंज में भड़की हिंसा ने कई जख्म छोड़े हैं, और उस दौरान प्रशासनिक लापरवाही के कई सवाल खड़े किए हैं। उस दिन न तो मौके पर कोई एंबुलेंस थी, न ही फायर ब्रिगेड। प्रोटोकॉल के अनुसार, धार्मिक जुलूसों में आपातकालीन सुविधाओं का होना अनिवार्य होता है, लेकिन महराजगंज में ऐसी कोई तैयारी नहीं थी।
राम गोपाल मिश्रा के पड़ोसी विष्णु मिश्रा बताते हैं कि “विसर्जन यात्रा पर चारों ओर से पत्थर बरस रहे थे। जुलूस में शामिल लोग ट्रॉली पर बैठे-बैठे खुद को बचाने की कोशिश कर रहे थे। उसी बीच कुछ पुलिसवाले अब्दुल हमीद के घर में गए और राम गोपाल को गंभीर हालत में बाहर निकाला।”
विष्णु के अनुसार, राम गोपाल की हालत बेहद नाजुक थी, लेकिन एंबुलेंस न होने की वजह से उसे ई-रिक्शा में ले जाना पड़ा। बहुत खून बह गया था। किसी तरह आधे घंटे में उसे अस्पताल पहुंचाया गया, पर तब तक उसकी जान जा चुकी थी। विष्णु कहते हैं, “अगर मौके पर एंबुलेंस होती, तो शायद राम गोपाल की जान बच सकती थी।” स्थानीय लोगों ने इस बात की पुष्टि की कि हिंसा स्थल से महज तीन किलोमीटर दूर सरकारी अस्पताल होने के बावजूद एंबुलेंस नहीं पहुंची।
महराजगंज बाजार के रहने वाले वीरेंद्र कुमार की आवाज में गहरी टीस है। वे कहते हैं, “हर साल 30 से अधिक गांवों की मूर्तियां विसर्जन के लिए यहां आती हैं। मुहर्रम और ताजिया के जुलूस भी निकलते हैं, और हर बार पीएसी का भारी बंदोबस्त होता है। पर इस बार, 13 अक्टूबर की उस काली शाम को, जब पूरा कस्बा उम्मीद और उत्साह के रंग में डूबा था, वहां पुलिस का नामोनिशान नहीं था।”

आज हालात ये हैं कि महराजगंज में सैकड़ों लोगों को हिरासत में लिया गया है, और कई मुकदमे दर्ज हो चुके हैं। परंतु सवाल वही है, क्या यह हादसा रोका जा सकता था? क्या प्रशासन की थोड़ी सतर्कता से राम गोपाल मिश्रा की जान बच सकती थी?
हमने प्रत्यक्षदर्शियों और बहराइच पुलिस के कई अधिकारियों से बातचीत कर इस मामले की गहराई में झांकने की कोशिश की। सामने आया कि प्रशासन को विसर्जन के दौरान उमड़ने वाली भीड़ का सही अनुमान ही नहीं था। जब हिंसा भड़की, तब वहां महज 10-15 पुलिसकर्मी मौजूद थे। इस भारी भीड़ को रोकने के लिए ये संख्या पर्याप्त नहीं थी, और घायलों के लिए कोई एंबुलेंस तक नहीं थी।
जब नवरात्रि की शुरुआत हुई, तो देवी प्रतिमाओं की स्थापना आसपास के गांवों में बड़े धूमधाम से हुई। पुलिस को पता था कि दशहरे के अगले दिन महराजगंज से होकर गुजरने वाले जुलूस में बड़ी संख्या में लोग शामिल होंगे। इसके बावजूद, जब वो दिन आया, तो पुलिस का कोई ठोस इंतजाम नहीं था।
महराजगंज महसी तहसील के अंतर्गत आता है। महसी के तहसीलदार रविकांत द्विवेदी बताते हैं, “विसर्जन के दिन 15 ट्रैक्टर-ट्रॉलियों को गौरिया घाट ले जाने की योजना थी, और महराजगंज का बाजार ही मुख्य मार्ग था।” लेकिन उस शाम, रविवार होने के कारण बाजार में लोगों की भीड़ सामान्य से भी ज्यादा थी।
राम गोपाल मिश्रा के भाई कृष्णा मिश्रा की आवाज में गहरी नाराजगी है। वे कहते हैं, “अगर पुलिस ने पहले से सुरक्षा का इंतजाम किया होता, तो यह सब नहीं होता। उस भगदड़ में राम गोपाल फंस गया था। अगर चौकी इंचार्ज और पुलिस फोर्स सतर्क होते, तो यह हालात नहीं बनते।”
कृष्णा मिश्रा आगे बताते हैं कि उपद्रवियों ने राम गोपाल को खींचकर एक घर में बंद कर दिया था। “हम अंदर जाने की कोशिश कर रहे थे, पर पुलिस अफसरों ने हमें रोक दिया। अगर हम दबाव बनाकर अंदर न जाते, तो शायद उसकी बॉडी भी नहीं मिलती। हर साल यही जुलूस निकलता है, पर पुलिस की संख्या इतनी कम कभी नहीं होती। इस बार, बस कुछ ही पुलिसकर्मी थे, और वे सैकड़ों की भीड़ को कैसे संभालते?”
तहसीलदार रविकांत द्विवेदी भी मानते हैं कि पुलिस की तैयारी अधूरी थी। उन्होंने बताया, “हमें महसी चौकी से खबर मिली कि बाजार में बवाल हो गया है। मैं और एसडीएम अखिलेश सिंह तुरंत मौके पर पहुंचे, लेकिन वहां बस 10-15 पुलिसकर्मी ही थे। हमने हालात देखकर तुरंत विसर्जन को रुकवाया। इसी बीच राम गोपाल अब्दुल हमीद की छत पर चढ़ गया, जहां से पुलिस ने उसे घायल हालत में निकाला।”
बहराइच जिले में कुल 22 थाने हैं, और महसी चौकी घटना स्थल से मात्र 500 मीटर की दूरी पर है। इस चौकी में 150 से 200 पुलिसकर्मी तैनात हैं, जबकि अन्य थानों में औसतन 250 पुलिसकर्मी हैं। फिर भी सवाल ये उठता है कि अगर इस दिन महसी के सभी पुलिसकर्मी घटनास्थल पर होते, तो शायद हिंसा को रोका जा सकता था।
पुलिस की मौजूदगी के बावजूद राम गोपाल मिश्रा को क्यों नहीं बचाया जा सका? क्या यह सब प्रशासन की लापरवाही का नतीजा था? स्थानीय लोगों का मानना है कि शायद पुलिस को इस बार की भीड़ का अंदाजा नहीं था। अगर उन्होंने सही अनुमान लगाया होता और पर्याप्त फोर्स तैनात की होती, तो शायद महराजगंज के इस दर्दनाक हादसे को टाला जा सकता था, और राम गोपाल की जान बचाई जा सकती थी।
महराजगंज में हार गई इंसानियत
महराजगंज में 13 अक्टूबर की वह भयावह शाम लोगों की जिंदगी में एक ऐसा काला अध्याय बनकर उभरी है, जिसे शायद कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। सांप्रदायिक हिंसा के दौरान पुलिस की नाकामी ने सिर्फ खून-खराबा ही नहीं, बल्कि विश्वास और इंसानियत का भी खून किया।
प्रोटोकॉल के मुताबिक, किसी भी धार्मिक जुलूस के दौरान एंबुलेंस और फायर ब्रिगेड का होना अनिवार्य होता है, खासकर तब जब इलाके में संवेदनशीलता का पुराना इतिहास हो। लेकिन उस दिन, न कोई एंबुलेंस थी और न ही आग बुझाने के लिए कोई फायर ब्रिगेड। मानो पूरा तंत्र उस भीड़ के गुस्से और पत्थरों की बारिश के सामने खुद को असहाय मान चुका था।
रामगोपाल मिश्रा के पड़ोसी विष्णु मिश्रा, जो उस दिन जुलूस का हिस्सा थे, बताते हैं, “विसर्जन यात्रा पर हर तरफ से पत्थर बरस रहे थे। लोग ट्रॉली पर जैसे-तैसे खुद को बचाने की कोशिश में लगे थे। इसी बीच पुलिस के कुछ जवान अब्दुल हमीद के घर में दाखिल हुए और रामगोपाल को बुरी तरह घायल हालत में बाहर निकाला।”
विष्णु के शब्दों में एक बेबसी और दर्द झलकता है, “रामगोपाल की हालत इतनी गंभीर थी कि हमें उसे ई-रिक्शा में ही अस्पताल ले जाना पड़ा। खून लगातार बह रहा था, लेकिन एंबुलेंस की गैरमौजूदगी में हमें आधे घंटे तक इंतजार करना पड़ा। हमने एक बाइक मंगवाई, ताकि जल्दी से उसे अस्पताल पहुंचाया जा सके, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अगर एंबुलेंस वहां होती, तो शायद रामगोपाल की जान बचाई जा सकती थी।”
हर कोई इस बात पर हैरान था कि महराजगंज जैसी संवेदनशील जगह, जहां हर साल कई धार्मिक आयोजन होते हैं, वहां प्रशासन इतनी बड़ी चूक कैसे कर सकता है। लोगों का कहना है कि सरकारी अस्पताल सिर्फ तीन किलोमीटर की दूरी पर था, फिर भी एंबुलेंस वहां समय पर नहीं पहुंच सकी। क्या प्रशासन ने पहले से ही अपने कर्तव्यों को दरकिनार कर दिया था?
पुलिस की कार्यशैली पर कैसे-कैसे सवाल?
लखनऊ से आए वरिष्ठ पत्रकार कुमार सौवीर इस घटना को कवर करने बहराइच पहुंचे। उन्होंने पुलिस और प्रशासन की कार्यशैली पर सवाल उठाए। वे कहते हैं, “बहराइच में सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास कोई नया नहीं है। दुर्गा प्रतिमा के जुलूस के लिए पुलिस प्रशासन से अनुमति ली जाती है।
अगर अनुमति दी गई थी, तो फिर सुरक्षा इंतजाम क्यों नहीं किए गए? महराजगंज जैसे क्षेत्र में, जहां मुस्लिम समुदाय की आबादी लगभग 85 प्रतिशत है और सांप्रदायिक दंगों का पुराना इतिहास है, वहां सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम होना चाहिए था।”
कुमार सौवीर के अनुसार, मुस्लिम बहुल इलाकों से गुजरने वाले ऐसे संवेदनशील जुलूस के दौरान पर्याप्त पुलिस फोर्स का होना जरूरी था। उन्होंने अफसोस जताते हुए कहा कि प्रशासन ने इस मामले में केवल छोटे अफसरों पर कार्रवाई की, जबकि वरिष्ठ अधिकारियों को भी इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए था।
उनका मानना है कि यदि पुलिस ने संवेदनशील इलाकों का सही आकलन किया होता और समय रहते पर्याप्त बल मंगा लिया होता, तो हिंसा की संभावना को टाला जा सकता था।
कुमार सौवीर का कहना है कि इस बार महराजगंज में बड़े पैमाने पर भगवा झंडे और झंडियों से पूरे इलाके को सजाया गया था। पूरे बाजार ने गेरुए रंग में डूबे माहौल में तनाव का संकेत दिया।

कुछ दिन पहले गणेश पूजा के दौरान डीजे बजाने पर भी झड़प हो चुकी थी, और इस बार दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के दौरान भी माहौल काफी गर्म था। उनका मानना है कि इस हिंसा की पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी थी और सब कुछ पुलिस के सामने और उनकी जानकारी में हो रहा था। इसके बावजूद कम फोर्स की तैनाती प्रशासन की गंभीर लापरवाही को दर्शाती है।
“सुनियोजित थी सांप्रदायिक हिंसा”
कुमार सौवीर ने इस घटना को सुनियोजित बताया और कहा कि इसमें ब्राह्मण समुदाय और बीजेपी की भूमिका स्पष्ट नजर आती है। उनके अनुसार, “यह ब्राह्मणों के एक वर्ग द्वारा जानबूझ कर भड़काई गई हिंसा थी, और दुखद बात यह है कि प्रशासन ने इन्हें रोकने के बजाय हिंसा करने की छूट दे दी।”
राम गोपाल मिश्रा की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट भी इस हिंसा की निर्ममता को उजागर करती है। रिपोर्ट में बताया गया है कि राम गोपाल को गोली मारने से पहले बेरहमी से पीटा गया, और उस पर नुकीले हथियारों से वार किया गया। उसके चेहरे, गले और सीने में 25 से 30 छर्रों के निशान मिले हैं, जो उसकी दर्दनाक मौत का सबूत हैं।
कुमार सौवीर सवाल उठाते हैं कि जब राम गोपाल मिश्रा सरफराज के घर की छत पर चढ़े और पुलिस मौके पर थी, तो क्या पुलिस ने स्थिति का सही आकलन किया था? अगर पुलिस ने समय पर कार्रवाई की होती, तो शायद राम गोपाल की जान बचाई जा सकती थी। इस हिंसा के बाद कस्बे में भारी संख्या में पुलिस बल तैनात किया गया है, और मीडिया कवरेज पर भी अंकुश लगाने की कोशिश की जा रही है।
सौवीर आगे कहते हैं कि यह सवाल भी उठता है कि इतनी कड़ी सुरक्षा पहले क्यों नहीं दी गई? दंगाइयों को बाजार में प्रवेश से रोकने के लिए पुलिस ने क्यों ढिलाई बरती? प्रशासन का मीडिया पर नियंत्रण जनता तक सही जानकारी पहुंचाने में बाधा बना, और अफवाहों ने भय का माहौल बना दिया।

यह घटना पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था की गंभीर खामियों को उजागर करती है। लोगों में गुस्सा और असुरक्षा का भाव है, और वे उम्मीद करते हैं कि इस घटना के दोषियों को जल्द से जल्द न्याय के कटघरे में खड़ा किया जाएगा। यह सवाल अब हर शख्स के मन में गूंज रहा है, क्यों इतने आवश्यक संसाधनों को नजरअंदाज कर दिया गया? रामगोपाल की मौत, केवल एक जान का खोना नहीं था; यह पुलिस और प्रशासन की उस लापरवाही की कीमत थी, जो शायद थोड़ी सी सतर्कता से टल सकती थी।
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं। बहराइच के ग्राउंड जीरो से रिपोर्ट)
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