ग्राउंड रिपोर्ट: आधुनिकता की आंधी में चौपट हो गई आत्मनिर्भरता की बुनियाद, अब पाई-पाई को मोहताज!

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चंदौली। बचपन में कमोबेश सभी ने “विज्ञान: वरदान या अभिशाप” विषय पर निबंध लिखे होंगे। समय की कूची ने कुछ कल्पनाओं में खूबसूरत रंग भी भरे होंगे तो वहीं कई जन सरोकारी जरूरतें व स्वरोजगार समय के कैनवास से फिसलकर बेनूर भी हो गए होंगे। ऐसी ही एक कहानी है पूर्वी उत्तर प्रदेश के चंदौली जनपद के मुसहर (वनवासी) समाज की। इनके द्वारा तकरीबन डेढ़ दशक पहले तक जंगल से पत्ती लाकर बुने जाने वाले पत्तल; बनारस, गोरखपुर, पटना, छपरा, गया, मिर्जापुर और गाजीपुर तक खूब मांग थी, लेकिन साल 2014 के बाद से बढ़ी प्लास्टिक के पत्तलों के इस्तेमाल से अचानक से पत्तियों के पत्तल की मांग एकदम से सिकुड़ गई। और वनवासी समाज का गृह उद्योग एक झटके में ताश के पत्ते की तरह बिखर गया। जिसकी शासन-प्रशासन द्वारा सुध नहीं लेने से हासिये पर पड़े वनवासी समाज के आत्मनिर्भरता की बुनियाद चौपट हो गई। कभी पत्तल बनाकर चार से पांच हजार रुपए प्रति महीने कमाने वाले हाथ आज पाई-पाई को मोहताज हैं। पेश है मुगलसराय से पवन कुमार मौर्य की रिपोर्ट:

मंजू वनवासी अपने घर से हरी साड़ी के एक टुकड़े में बड़े ही करीने से बांधकर रखे गए पत्तलों को लेकर आती हैं। पत्तियों से बने एक बंडल पत्तल को कैमरे के सामने फैला देती हैं। और “जनचौक” से बताती हैं “इधर तकरीबन डेढ़ दशक से हमलोगों के पास कोई काम नहीं है। पहले मेरे समाज में कम से कम 60 से 70 महिलाएं पत्तल बनाती थी, लेकिन अब नहीं बनाती हैं। साल 2014 से पहले हमलोगों को पत्तल बनाने के लिए बयाना-पेशगी मिलती थी। और समय पर माल तैयार कर देने पर पत्तल बनाने वाली महिलाओं को कम से कम प्रतिमाह 4000 से 5000 रुपए मिलते थे। ये पैसे घर चलाने, दवाई, कपड़े पर खर्च करने के बाद भी कुछ बचत भी हो जाती थी। जब से पत्तल बनाने का काम बंद हुआ है, तबसे हमलोग पाई-पाई को मोहताज हैं।”

जनचौक : आखिर कैसे बंद हो गया आपका गृह उद्योग या स्वरोजगार ?

जवाब में मंजू कहती हैं “पहले मुगलसराय, वाराणसी के दुकानदार, गया, गाजीपुर, छपरा, पटना, मिर्जापुर के थोक व्यापारी और स्थानीय नागरिक शादी के सीजन व अन्य कार्यक्रमों के लिए 10000-120000 पत्तल का ऑर्डर मिलता था। इसके लिए बंडल (एक बंडल में 100 पत्तल) का 50 से 60 रुपए बयाना एडवांस मिलता था। हमलोगों का काम होता था बढ़िया चुनकर पत्तल बनाना, व्यापारी लोग हमलोगों के घर से बना हुआ माल (पत्तल) ले जाते थे। और आसानी से हमलोगों के मजदूरी का भुगतान कर देते थे। चंदौली जनपद के कई गाँवों में सैकड़ों औरतों को घर बैठे रोजगार के साथ आमदनी भी हो जाती थी, लेकिन, 13-14 साल से बढ़ी फाइबर के पत्तलों की मांग ने पत्तियों के पत्तल की मांग कम कर दी, जो अब पूरी तरह से बंद हो चुकी है।”

जनचौक : इतना पत्तल बनाने के लिए पत्तियां कहां से लाते थे ?

जवाब देते हुए रुक्मिणी देवी बताती हैं “पत्तल के थोक ऑर्डर मिलने के साथ हमलोगों के गुट को 10 से 15 हजार रुपए बयाना मिलते थे। जिसे खर्च कर 10 महिलाएं और 10 पुरुषों का दल मुगलसराय स्टेशन (अब पीडीडीयू नगर स्टेशन) से सवारी गाड़ी (पैसेंजर ट्रेन) पकड़कर गया (बिहार) में जाते थे। यहां से साइकिल से जंगलों में जाते थे और यहां जंगलों के किनारे पांच से सात दिन ठहरकर पेड़ों से स्वस्थ्य पत्तियां इकठ्ठा करते थे। जिन्हें बोरे में भरकर साइकिल से स्टेशन तक लाते थे। फिर पैसेंजर पर ट्रेन लादकर गांव आ जाते थे। यहां से महिलाएं अपनी क्षमता के अनुसार पत्तल बनाने के लिए पत्तियां ले जाती थी। पत्तल बनाकर पहुंचा देती थी, जिसे समय पर व्यापारी को दे दिया जाता था। पैसे मिलने पर हिसाब लगाकर आपस में बाँट लेते थे। उन दिनों बहुत अच्छे से गुजरा हो जाता था। अचानक से यह काम भी बंद हो गया। ऐसे में पति भी बीमार पड़ गए। रुपए के अभाव में उनका बढ़िया से इलाज न हो सका, वे चल बसे। यही हमलोगों की किस्मत है साहब ! समाज के कुछ लोग हमें इंसान नहीं समझते। जातिवाद और अपमान करते हैं। बाजार हमलोगों की सम्मान  जीने का सहारा पत्तल बनाने का काम (रोजी-रोटी) ही छीन लिया। किसी को ? हुकुम-हाकिम को फर्क पड़ा ? नहीं। बुढ़ापे में कोई परिश्रम का काम नहीं होता है। अब मुगलसराय स्टेशन पर दातून बेचती हूं।”       

इलाज के अभाव में हीरावती देवी की बहू मर गई और अपने पीछे एक बेटी छोड़ गई। वृद्ध हीरावती जैसे-तैसे मेहनत-मजूर कर बच्ची का पालन-पोषण कर रही हैं। वह कहती हैं “पत्तल का काम बंद होने से रोजगार ख़त्म हो गया। पत्तल बनाने का काम होने से हमलोगों को किसी के यहां जाना नहीं होता था। ठाठ से जंगल से पत्तियां लाते और बनाकर रखते। दूर-दराज के व्यापारी और स्थानीय दूकानदार हमलोगों के दरवाजे तक आते थे और ऑर्डर दिया हुआ पत्तल पैसे देकर लेकर जाते थे। अब उन दिनों की बहुत याद आती है। पत्तल बनाने वाले 10-12 साल, जीवन के बहुत अच्छे दिन थे।”

 कपड़े और परिवार भर के लिए भोजन  

पत्तल बनाने वाली महिलाओं ने बताया कि जब किसी मांगलिक कार्यक्रम (शादी, तिलक, गृह प्रवेश, जन्मोत्सव व अन्य शुभ मौके) के लिए लिए स्थानीय नागरिक पत्तलों के ऑर्डर देते थे तो वे कार्यक्रम में भी शामिल होने के लिए निमंत्रण देते थे। लिहाजा, आत्मनिर्भरता के दम पर अपनी पहचान रखने वाली महिलाएं बतौर परजुनिया (जजमानी व्यवस्था का एक अंग) कार्यक्रम में शामिल होती थी। चूंकि यह समाज हासिये पर पड़ा हुआ है। ऐसे में इनके परिवार के लिए अच्छे वस्त्र और भरपेट भोजन मिलना आज भी चिंता का राष्ट्रीय विषय है।

बहरहाल, कार्यक्रम में शामिल होने पर परजुनिया के तौर पर साड़ी, धोती, मिठाई, अनाज, नगदी और परिवार भर के लिए भरपेट खाना मिलता था। अब पत्तल बनाने का काम बंद होने से पुन: गरीबी और बेरोजगारी के चक्र में वनवासी महिलाएं उलझ गई हैं। इनको मुख्यधारा से जोड़ने का कोई टिकाऊ विकल्प शासन-प्रशासन को तलाशने होंगे। 

मंजू का कहना है कि “प्लास्टिक-फाइबर के इस्तेमाल से लोगों को कितनी बीमारी हो रही है। हमलोग तो पेड़ के पत्ते से पत्तल बनाते थे। इसका कोई नुकसान नहीं था, न इंसान पर और न ही जानवरों पर। इस्तेमाल के बाद पत्ती के पत्तल को जला दीजिये तो भी कोई जहरीली गैस नहीं बनेगी या फिर कहीं गड्ढे में डाल दीजिये। दो-तीन दिन में पत्तियां खुद ही सड़-गलकर खाद बन जाएँगी। वहीं, फाइबर या प्लास्टिक के पत्तल इस्तेमाल के बाद जहां-तहां हवा से बिखर जाते हैं और नाले में फंसकर इन्हें चोक कर देते हैं। जलाने पर कई जहरीली गैस वातावरण में मिलती है।” 

“आप, जब हर मानक का विश्लेषण करंगे तो पाएंगे कि, वनवासियों द्वारा बनाया गया पत्तल इंसान के इस्तेमाल और पर्यावरण के लिहाज से शुद्ध व हानि पहुंचाने वाला नहीं है। सरकार यदि हमलोगों को सहयोग करेगी तो पुन: पत्तल बनाने का काम शुरू कर सकते हैं। लेकिन, जैसा दौर चल रहा है, बहुत कम उम्मीद है कि शासन-सत्ता, व्यापारी या नागरिक हमारी मदद करेंगे?”    

प्लास्टिक के बर्तन में खाना खाना क्यों है खतरनाक

कैंसर विशेषज्ञ की माने तो थर्मोकोल को बनाने में केमिकल इस्तेमाल होते हैं। गर्म खाद्य पदार्थों के संपर्क में आने से थर्मोकोल बनाने में इस्तेमाल की गई आर्टिफिशियल सिंथेटिक चीजें अप्राकृतिक तरीके से शरीर में प्रवेश करती हैं और कैंसर का कारण बन सकती हैं। थर्मोकोल डिस्पोजेबल कप-प्लेट्स के अधिक प्रयोग से गैस, एलर्जी और पेट के कई रोग पनप रहे हैं। बाद में ये रोग कैंसर का रूप धारण कर लेते हैं। प्लास्टिक को रिसाइकल कर प्रयोग में लाना खतरे से खाली नहीं है। 

डिस्पोजेबल कप-प्लेट्स से हो सकता है कैंसर

कई मेडिकल रिपोट्स में प्लास्टिक-फाइबर से बने कप-प्लेट के इस्तेमाल से मानव स्वास्थ्य को होने वाले नुकसान की पुष्टि हो चुकी है। मसलन, थर्मोकोल से बने डिस्पोजेबल कप-प्लेट्स का इस्तेमाल कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी को दावत दे रहे हैं। डिस्पोजल थर्माकोल में खाना खाने से उसमे उपिस्थ्त रसायन पदार्थ खाने में मिलकर पाचन क्रिया पर प्रभाव डालता, जिससे कैंसर होता है एंव डिस्पोजल के गिलास में बिस्फिनोल नामक कैमिकल होता है जिसका असर छोटी आंत पर पड़ता है। 

पत्तियों के पत्तल इस्तेमाल से ये मिलेगी राहत

1. दाम में किफायती और इस्तेमाल में मजबूत।

2. पत्तल की मांग से स्वरोजगार के बढ़ेंगे मौके।

    3. सबसे पहले तो उसे धोना नहीं पड़ेगा, इसको हम सीधा मिट्टी में दबा सकते हैं।

    4. न पानी नष्ट होगा, न ही कामवाली रखनी पड़ेगी, मासिक खर्च भी बचेगा।

    5. न केमिकल उपयोग करने पड़ेंगे, न केमिकल द्वारा शरीर को आंतरिक हानि पहुंचेगी।

    6. अधिक से अधिक वृक्ष उगाये जायेंगे, जिससे कि अधिक शुद्ध हवा भी मिलेगी।

    बढ़ेगा रोजगार, प्रदूषण पर लगेगी लगाम 

    सबसे महत्त्व की बात यह है कि पत्ते से बने पत्तलों को इस्तेमाल के बाद निस्तारण बहुत सरल और किसी भी स्तर पर हानिकारक नहीं है. जूठे पत्तलों को एक जगह दबाने पर, खाद का निर्माण किया जा सकता है, एवं मिट्टी की उपजाऊ क्षमता को भी बढ़ाया जा सकता है। पत्तल की मांग बढ़ने से पत्तल बनाने वाली महिलाओं या लोगों को भी पर्याप्त रोजगार के अवसर प्राप्त हो सकेंगे। साथ ही आप प्रकृति प्रदत्त हवा, पानी, मिट्टी और पर्यावरण को दूषित होने से बहुत बड़े स्तर पर बचा सकते हैं। 

    (पवन कुमार मौर्य स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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