सुयोग्य, कर्मठ, जुझारू हो गए ‘सींग’

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उत्तराखंड में अभी जुम्मा-जुम्मा चंद रोज ही बीते हैं, जब गांव-गांव, धार-धार, खाळ-खाळ सुयोग्य, कर्मठ, जुझारू और विकास के लिए प्रतिबद्धों की लाइन लगी हुई थी। दीवारें सुयोग्य, कर्मठ, जुझारुओं के पोस्टर-बैनरों से पटी हुई थी. त्रिस्त्रीय पंचायतों के चुनाव निपटे और पता चला कि सुयोग्य, कर्मठ, जुझारुओं की खेप की खेप तो लापता चल रही है। आए दिन अखबारों में खबरें आने लगीं कि फलां-फलां इलाके के इतने-इतने सुयोग्य, कर्मठ, जुझारू अता-पता-लापता हो गए हैं। वे ऐसे गायब हो गए हैं, जैसे गधे के सिर से सींग।

‘गधे के सिर से सींग की तरह गायब होना’, यह मुहावरा भी बड़ा रोचक है। किसी ने तो वह गधा देखा होगा, जिसके सिर पर सींग रहे होंगे। और फिर कब उसने देखा होगा कि उस गधे के सिर से वो सींग गायब हो गए हैं! पंचायत चुनाव जीते प्रतिनिधियों के गायब होने के संदर्भ में जब इसका प्रयोग होता है तो और भी गज़ब। पूरे इलाके ने इन प्रतिनिधियों को जिता कर सिर-माथे बिठाया और ये सिर से, सिरे से गायब हो गए। इस प्रकार इन्हें चुन कर सिर-माथे बिठाने वाला इलाका खुद ही ‘वैशाखनंदन’ बन गया!

जब ये गधे के सिर से सींग हुए तो पहले-पहल लोगों को लगा कि विकास करने का अवसर हासिल करने के लिए लाखों-लाख रुपये और शराब के नौले-गदेरे बहाने वाले, कहीं विकास का भारा लगा रहे होंगे। यानि विकास को पीठ पर लाद कर, ला रहे होंगे! पर कल अचानक खबर आई कि चमोली जिले के 31 सुयोग्य, कर्मठ, जुझारू तो नेपाल से लगे हुए नगर धारचुला में पाए गए। गधे के सिर से गायब सींगों के, सिर से अलग कहीं और प्राप्त होने की यह अनोखी मिसाल है!

कुछ खबरनवीस मित्रों ने बताया कि गधे के सिर से अलग प्राप्त हुए ये सुयोग्य, कर्मठ, जुझारू सींग तो धारचुला से भी नेपाल निकल लिए हैं। यह तो सबसे आसान है। धारचुला में काली नदी पर एक पुल है, जिसे पार करो तो आदमी दार्चुला पहुंच जाता है। दार्चुला बोले तो नेपाल। अब ये 31 सुयोग्य, कर्मठ, जुझारू कोई और उपलब्धि हासिल करें-न-करें पर फ़ॉरेन रिटर्ण्ड तो ये हो ही गए हैं। इलाके के गधे इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि उनके सिर पर जो सींग हैं, वे फ़ॉरेन रिटर्ण्ड हैं!

पर ये सुयोग्य, कर्मठ, जुझारू इतनी दूर धारचुला और फिर वहां से नेपाल क्यूं जा रहे होंगे? उच्च न्यायालय द्वारा पंचायत चुनावों में खरीद-फरोख्त रोकने के मामले में दिए गए फैसले में इस बात का उल्लेख है कि ऐसे सुयोग्य, कर्मठ, जुझारुओं को नेपाल, गोवा और यहां तक कि बैंकॉक ले जाने की भी परंपरा है। चुनाव जीतने के बाद इतनी दूर क्यूं ले जाए जाते होंगे, ये सुयोग्य, कर्मठ, जुझारू? क्या जिस विकास के गाड़-गदेरे बहाने के वायदे के साथ चुनाव के दौरान इन्होंने पैसे और शराब के गाड़-गदेरे बहाये, क्या वो विकास गोवा, नेपाल, थाईलैंड में है? लोग अपने लिए जनप्रतिनिधि चुन रहे हैं! नेतृत्व करने वाला नेता चुन रहे हैं! सुयोग्य, कर्मठ, जुझारू के झांसे में आ कर चुन रहे हैं! लेकिन चुने जाते ही वह भेड़-बकरी हो जा रहे हैं, जिसे कोई भी ठेकेदार हांक ले जा रहा है। यही हमारे लोकतन्त्र की सबसे बड़ी विडंबना है। जहां चुने गए प्रतिनिधि खुशी-खुशी वोट की मंडी में भेड़-बकरियों की तरह बिकने को तैयार हों, वहां लोकतंत्र तो मिमियाता हुआ ही होगा।

(लेखक इंद्रेश मैखुरी उत्तराखंड के लोकप्रिय वामपंथी नेता हैं।)

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