Thursday, April 25, 2024

फेसबुक पोस्ट पर देशद्रोह के मामले में महिला को नहीं लेकिन पत्रकार को मिली जमानत

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कुछ फेसबुक पोस्टों पर एक महिला के खिलाफ देशद्रोह के आरोप में दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने से इनकार कर दिया था, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की आलोचना की थी। वहीं दूसरी ओर उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने देशद्रोह के आरोपी पत्रकार को अंतरिम जमानत देते हुए तल्ख टिप्पणी की कि क्या यह राज्य का क्रूर हाथ है, जो काम कर रहा है? 

यूपी में महिला द्वारा 2014-2017 के बीच किए गए फ़ेसबुक पोस्ट पर देशद्रोह सहित विभिन्न आपराधिक आरोपों को खारिज करने के लिए दायर एक याचिका (डॉ. इमराना खान बनाम यूपी राज्य) को खारिज करते हुए, जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस समित गोपाल की खंडपीठ ने कहा कि हमारा विचार है कि याचिकाकर्ता द्वारा जो सामग्री पोस्ट की गई है वह गंभीर प्रतीत होती है, जो सांप्रदायिक विद्वेष को उकसा सकती है। बोलने की स्वतंत्रता को इस हद तक नहीं छुट दी जा सकती है जो राष्ट्रीय हित के लिए पूर्वाग्रहपूर्ण हो। याचिकाकर्ता के खिलाफ एफआईआर संज्ञेय अपराध का खुलासा करती है, इसलिए, यह न्यायालय इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा।

याची महिला, एक यूनानी चिकित्सक है। उनके विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 124, 153-ए और 153-बी के तहत समुदायों के बीच देशद्रोह और नफरत फैलाने का आरोप लगाया गया है। इसमें सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधन) अधिनियम, 2008 की धारा 67 (अश्लील सामग्री का इलेक्ट्रॉनिक प्रसारण) के तहत भी मामला दर्ज किया गया है।

याची के वकील ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता को गलत इरादे से फंसाया गया है। उन्होंने 2014 और 2017 के बीच के पोस्टों को साझा किया है और उसके बाद याची ने इस तरह की पोस्टों को साझा नहीं किया है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट।

यह आग्रह करते हुए कि पोस्टों की सामग्री से विभिन्न धर्मों के बीच असहमति, दुश्मनी, घृणा या बदमजगी नहीं फैलेगी और वे राष्ट्रीय एकता के प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त नहीं हैं, उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता के खिलाफ किसी भी अपराध का खुलासा नहीं किया गया। उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत उन पोस्टों को साझा किया। उन्होंने यह भी सवाल किया कि आखिरी पोस्ट साझा करने के लगभग तीन साल बाद 2020 में एफआईआर क्यों दर्ज की गई। खंडपीठ ने याची के तर्कों को स्वीकार नहीं किया और याचिका ख़ारिज कर दी ।

उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने राजद्रोह के आरोपी पत्रकार को अंतरिम जमानत देते हुए तल्ख टिप्पणी की कि क्या यह राज्य का क्रूर हाथ है, जो काम कर रहा है? उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के समक्ष विस्तृत और गंभीर सवालों को उठाया और यह निर्देश दिया कि राज्य की ओर से उन सवालों के संबंध में जवाबी हलफनामा दाखिल किया जाए और तब तक जमानत के आवेदक को अंतरिम जमानत दे दी। न्यायमूर्ति रवींद्र मैथानी की पीठ राजेश शर्मा की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जो 2020 की प्राथमिकी संख्या 265 में धारा 420, 467, 468, 469, 471, 120-बी, 124-ए आईपीसी, पुलिस स्टेशन नेहरू कॉलोनी, जिला देहरादून के तहत जमानत की मांग कर रहा था।

लाइव लॉ के अनुसार देहरादून के डॉ. हरेंद्र रावत ने 31 जुलाई को नेहरू कॉलोनी पुलिस स्टेशन देहरादून में पत्रकार राजेश शर्मा के खिलाफ फर्जी खबर के चलते उनकी और उनकी पत्नी की छवि को धूमिल करने के मामले में एफआईआर दर्ज कराई थी। दरअसल कथित तौर पर आवेदक ने उनके खिलाफ वीडियो डाला था, जिसमें उन पर कुछ आरोप भी लगाए गए थे। याचिकाकर्ता ने अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया कि उसने उमेश शर्मा (जो पहले ही अदालत से सुरक्षा प्राप्त कर चुका है) की फेसबुक पोस्ट से उक्त समाचार आइटम/वीडियो को प्राप्त किया था। उक्त समाचार आइटम/वीडियो में कहा गया है कि डॉ. हरेंद्र रावत की पत्नी और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की पत्नी, बहनें हैं। उक्त समाचार में, राज्य के मुख्यमंत्री के खिलाफ भी कुछ आरोप लगाए गए थे।

आवेदक की ओर से यह दलील दी गई कि उसका नाम एफआईआर में भी नहीं लिया गया है; और वह अब 35 दिनों से हिरासत में है। प्राथमिकी में आरोप, उसके खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनाते हैं। एफआईआर में नामित दो व्यक्तियों में से, उमेश शर्मा को पहले ही अदालत से सुरक्षा प्राप्त हो चुकी है। राज्य की ओर से यह तर्क दिया गया था कि आवेदक की हिरासत में पूछताछ आवश्यक है। यह तर्क भी दिया गया कि यह तीसरी बार है, जब सरकार को विघटित करने का प्रयास किया गया है। वर्ष 2018 में पहले दो एफआईआर दर्ज की गई थीं, एक उत्तराखंड राज्य में और दूसरी झारखंड राज्य में।

खंडपीठ ने पाया कि प्राथमिकी 31 जुलाई 2020 को 4:20 बजे दर्ज की गई थी और आवेदक को उसी रात 11:00 बजे गिरफ्तार किया गया था। खंडपीठ ने सवाल उठाए कि क्या आवेदक के खिलाफ प्राथमिकी में कोई विशिष्ट मामला है? क्या आवेदक के खिलाफ जालसाजी के बारे में कोई विशिष्ट आरोप हैं? और यदि हां, तो वे क्या हैं? कौन से दस्तावेज़ जाली थे? कौन से जाली दस्तावेज असली के रूप में इस्तेमाल किए गए थे? धारा 124-ए आईपीसी को कैसे जोड़ा गया? राज्य इतनी जल्दबाजी में क्यों था? क्या यह राज्य का एक क्रूर हाथ है, जो कार्य कर रहा है? इसमें कई सवालों के जवाब की आवश्यकता होगी।

खंडपीठ ने राज्य को दो सप्ताह के भीतर एक जवाबी हलफनामा दायर करने के लिए कहा। यह निर्देशित किया गया कि काउंटर हलफनामे में स्पष्ट किया जाए कि क्या यह सच है कि तात्कालिक मामले में एफआईआर दर्ज करने से पहले पुलिस को सूचना देने वाले के द्वारा एक आवेदन दिया गया था? यदि हां, तो वह आवेदन कब दिया गया और कहां है? और कानून के किस प्रावधान के तहत यह आवेदन लिया जाता है? क्या यह सच है कि सूचना देने वाले के पहले के आवेदन पर कुछ जांच की गई थी और यदि हां, तो कानून के किस प्रावधान के तहत और किसने इसका संचालन किया है? वह जांच रिपोर्ट कहां है, इसे प्रतिवाद के साथ दायर किया जाए। क्या यह सच है कि उस जांच का परिणाम सूचना देने वाले को दिया गया था? यदि हां, तो उसने इसके लिए कब आवेदन किया और कानून के किस प्रावधान के तहत उसे दिया गया? मामले को आगे की सुनवाई के लिए 18 सितंबर, 2020 को सूचीबद्ध किया गया है।

दोनों आदेश 3 सितंबर 20 को दोनों हाईकोर्टों द्वारा अलग अलग पारित किए गए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)

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