Saturday, April 20, 2024

प्रयागराज: बिरसा मुंडा जयंती के मौके पर फिर से उठी कोल आदिवासियों को जनजाति का दर्जा देने की मांग

इलाहाबाद। कल बिरसा मुंडा की 148 वीं जयंती के अवसर पर देश के कोने-कोने में कार्यक्रम आयोजित किये गये। जहां सरकार द्वारा आदिवासियों को वोट बैंक बनाने के लिये सरकारी पैसे पर कार्यक्रम आयोजित किये गये वहीं दूसरी ओर जन समुदाय व लोकतांत्रिक संगठनों द्वारा प्रतिरोध दिवस के तौर पर बिरसा मुंडा जयंती मनाई गई। इलाहाबाद के कोल आदिवासी बहुल कोरांव विधानसभा के खीरी में ‘बिरसा मुंडा यादगार समिति’ द्वारा एक विशाल धरना सभा का आयोजन किया गया। जिसे न होने देने के लिये सत्ता ने प्रशासन पर भरपूर दबाव बनाया, कभी मंजूरी के बहाने तो कभी किसी और बहाने। कार्यक्रम के संचालक भीमलाल ने इस दर्द को बयां करते हुए मंच से कहा – कोई कार्यक्रम करना चाहो तो सबसे पहले गांव के ज़मींदारों का डर, फिर पुलिस के डर का सामना करना पड़ता है।

कोरांव तहसील के खीरी में कोल आदिवासियों ने ब्रिटिश विरोधी संघर्ष के लिए बिरसा मुंडा की जय-जयकार की, तथा अपने जंगलों को कॉरपोरेट से बचाने के लिए संघर्ष जारी रखने का संकल्प लिया। धरना सभा मुख्य चार मांगों को लेकर किया गया जिसमें पहली मांग के तहत उत्तर प्रदेश के कोल आदिवासियों को जनजाति का दर्जा दिलाने के लिए करो या मरो के संघर्ष का संकल्प लिया गया। दूसरी मांग के तहत – वन अधिकार अधिनियम, 2006 लागू करना तथा तीसरी मांग वन संरक्षण नियम 2022 वापस लेने की मांग दोहराई गयी। चौथी मांग कृषि भूमि और आवास स्थलों का वितरण करना तथा महिलाओं पर अत्याचार बंद करना शामिल है। 

बिरसा मुंडा जयंती में भाग लेने के लिए क्षेत्र के विभिन्न गांवों से टोलियों के साथ जुलूस की शक्ल में आकर सभा स्थल पर पहुंचकर नारे लगाये । वक़्त का प्रभाव ऐसा कि ये लोग अपने पारंपरिक वाद्य यंत्रों को छोड़कर डीजे की धुन पर नाचते, नारे लगाते सभा तक पहुंचे। राजधानी दिल्ली से लेकर तमाम शहरों में होने वाले धरना प्रदर्शनों में महिलाओं की आनुपातिक भागीदारी के उलट यहां बड़ी संख्या में आदिवासी महिलाओं ने धरना सभा में भागीदारी की। बावजूद इसके कि इस समय कटाई का सीजन है और कोल आदिवासी कृषि मजदूर के तौर पर बहुत हद तक इस पर आश्रित हैं। इन आदिवासी महिलाओं पर हिंदू सवर्ण समाज की कुरीतियों का असर भी साफ दिखा, सभा में मौजूद अधिकांश स्त्रियों ने घूंघट कर रखा था। 

कार्यक्रम की शुरुआत बिरसा मुंडा की तस्वीर पर माल्यार्पण और पुष्पांजलि के साथ हुई। इसके बाद बिरसा मुंडा यादगार समिति के सचिव भीमलाल ने बिरसा मुंडा का जीवन परिचय ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ उनके संघर्ष तथा अंग्रेजों द्वारा उन्हें धीमा जहर देकर जेल में उनकी कस्टोडियल हत्या के बाबत बताया।

इसके बाद बिरसा मुंडा यादगार समिति के अध्यक्ष रज्जन कोल ने सभा को संबोधित करते हुए कहा कि इस देश में यदि कोई विदेशी कुछ साल रह ले तो सरकार उसे नागरिकता देकर बसा देती है और दूसरी ओर हम आदिवासियों को हमारी जगहों से उजाड़ा निकाला भगाया जा रहा है। 

कार्यक्रम के मुख्य वक्ता के तौर पर छत्तीसगढ़ से आये बंगाल से एआईकेएमएस के नेता व, झारखंड मुक्ति मोर्चा के पूर्व नेता मानस दा ने कहा कि भारत सरकार बड़े कॉर्पोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सेवा कर रही है, यह आदिवासियों को जंगलों से उजाड़ने और उनकी वन संपदा को छीनने की ब्रिटिश काल की नीति को ही जारी रख रही है। भारी मुनाफ़ा कमाने के लिए, विस्थापित आदिवासियों को पूंजीपति वर्ग द्वारा सस्ते श्रम के रूप में काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। उनसे शहरों में सस्ते घरेलू मजदूर के रूप में काम कराया जाता है। उन्होंने आगे कहा कि संघर्ष से ही आत्म सम्मान प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने आज की बैठक की सराहना की और पूरे देश में यूपी के कोल आदिवासियों के सवाल को उठाने का वादा किया। उन्होंने नए वन नियमों के खिलाफ संघर्ष के सख्त कदम उठाने की अपील की।

मानस दा ने सभा को संबोधित करते हुए सिधो कान्हो व बिरसा मुंडा के नेतृत्व समेत तमाम आदिवासी आंदोलनों व संघर्षों को याद करते हुए उनकी परंपरा में मौजूदा आदिवासी संघर्षों को जोड़ा। उन्होंने बताया कि झारखंड की जनसंख्या देश की आबादी की महज 2% है जबकि झारखंड में मौजूद खनिज सम्पदा देश की कुल खनिज सम्पदा का 30% है। इतनी सम्पदा के बावजूद झारखंड की 66% आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन के लिये विवश है। उन्होंने कहा कि झारखंड आज सस्ते मजदूरों का हब बना हुआ है। असम और बंगाल के चाय बाग़ानों में काम करने वाले मजदूर झारखंड के ही हैं। मानस दा ने यह भी बताया कि ब्रिटिश हुकूमत के समय झारखंड में 80 प्रतिशत क्षेत्र जंगल था जबकि आज केवल 20 प्रतिशत क्षेत्र जंगल बचा है। मानस दा ने आगे बताया कि झारखंड में अंग्रेजों के समय जितने क्षेत्र की सिंचाई होती थी आज सिंचाई उससे भी कम हो गई है।

इससे स्पष्ट है कि सरकार द्वारा आदिवासियों के कृषि के लिये स्थितियां जानबूझकर खराब की गईं ताकि आदिवासी जंगल छोड़कर भाग जायें। झारखंड में सबसे ज्यादा विस्थापन हुआ है। क़रीब 1.56 करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं। अभी जो बचे हैं वो संघर्ष के दम पर टिके हुए हैं। उन्होंने आदिवासियों के हौसले की दाद देते हुए कहा कि दुनिया का जाना माना कार्पोरेट लक्ष्मी मित्तल वहां स्टील प्लांट लगाने आए थे वो प्लांट लगता तो पूरे 250 गांव के लोग विस्थापित होते लेकिन लोग उठ खड़े हुये और दुनिया का इतना बड़ा कार्पोरेट भाग खड़ा हुआ। आदिवासियों ने अपने हक़ के लिए पत्थलगड़ी आंदोलन किया। 

इसके पहले बिरसा की 148वीं जन्मतिथि के अवसर पर, वक्ताओं ने इस बात पर प्रकाश डाला कि सत्तारूढ़ दलों ने कोलों को एसटी का दर्जा देने पर वर्षों से लगातार आदिवासियों को धोखा दिया है। अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा नेता राम कैलाश कुशवाहा ने सभा में बताया कि ‘वन अधिकार क़ानून 2006’ गरीब आदिवासियों के अधिकारों के लिये था जिसे बदलकर कार्पोरेट हित में मौजूदा सरकार ‘वन संरक्षण क़ानून 2022’ लेकर आयी है। सरकार ग़रीबों के लिये नहीं कार्पोरेट के लिये क़ानून बनाती है। उन्होंने बताया कि वन संरक्षण क़ानून 2022 के जरिये पंचायतों से ज़मीन का मालिकाना अधिकार छीन लिया गया है। अब वो आपसे नहीं पूछेंगे। पुलिस और सेना के दम पर आदिवासियों से गांव के गांव छीन लेंगे और कंपनियों को सौंप देंगे। 

डॉ विजय कुमार ने कार्यक्रम में बिरसा मुंडा पर जनगीत सुनाया। इसके बाद महिला मोर्चा नारी शक्ति करछना की मंजू देवी ने खुद को अपने घर की इज्ज़त बताते हुये  कहा कि मैं अपने घर की इज़्ज़त हूं फिर भी संघर्ष करने के लिये घर से बाहर निकली हूँ। हमें अपना अधिकार अब मांगना नहीं छीनना है। 

सेना से रिटायर होकर किसानों की लड़ाई लड़ रहे मणिदेव चतुर्वेदी ने सभा में कहा कि वन अधिकार क़ानून 2006 खत्म करके वन संरक्षण क़ानून 2022 बनाने वाली सरकार आज बिरसा मुंडा दिवस मनाकर हमारे जले पर नमक छिड़क रही है। उन्होंने आगे कहा कि किसान आंदोलन की बदौलत ही हम जिंदा हैं। उन्होंने आगे बताया कि हाल ही में सरकार ने 32 हिंदुओं को बांग्लादेश से लाकर उन्हें कृषि योग्य ज़मीन पट्टा पर दिया है। लेकिन देश में लाखों आदिवासी बेघर हैं, भूमिहीन हैं उन्हें पट्टा कब दिया जायेगा। मणिदेव ने सभा में आगे कहा कि वो कहते हैं हर घर तिरंगा हो। हम कहते हैं बेशक़ हर घर तिरंगा हो पर हर घर रोज़गार भी हो। हर हाथ को काम भी हो। 

इसके बाद कार्यक्रम को संगम लाल ने संबोधित करते हुये सवाल उठाया कि जिन आदिवासियों को ज़मीन पट्टे पर मिली थी, थोड़ी ही सही सम्पत्ति मिली थी, कॉलोनी मिली थी वो सब किसने बेचा। शादी ब्याह के लिये अपनी ज़मीन, घर आदि मत बेचिये। अपनी हैसियत के हिसाब से शादी कीजिये। बच्चों को पढ़ाइये तभी वो ग़ुलामी से मुक्त हो पायेगा। 

वहीं जयप्रकाश ने सभा को संबोधित करते हुए कहा कि चुनाव के समय हम कोल आदिवासियों के घर घर दारू मुर्गा भिजवाया जाता है। लेकिन चुनाव के बाद कोई नहीं पूछता। हमारी बेटी का अपहरण हो जाता है और पुलिस थाना- कोर्ट – कचहरी में हमारी फरियाद नहीं सुनी जाती है। उन्होंने 6 दिसंबर को दिल्ली के जंतर-मंतर चलने का आह्वान सभा में किया। 

इसके बाद पेशे से इंजीनियर आशीष कोल ने आदिवासी संस्कृति को मुद्दा बनाते हुये कहा कि आज बिरसा जयंती के अवसर पर किसी स्कूल में छुट्टी नहीं है। अपनी संस्कृति से जुड़े बिना हम कोई संघर्ष नहीं कर पायेंगे। उन्होंने शिक्षा का मुद्दा उठाते हुए सभा में कहा कि शिक्षा के बिना संघर्ष नहीं हो सकता है। शिक्षा के बिना समाज का निर्माण भी नहीं हो सकता है। हम शिक्षित नहीं होंगे तो अपने अधिकारों को जानेंगे भी नहीं। उन्होंने आगे कहा कि अगर आपके बच्चे पढेंगे, लिखेंगे नहीं तो आपको आपके समाज को ग़ुलामी करनी पड़ेगी। 

इनके अलावा सभा को डॉ. राजेश, तेजबली, निखिल,  मंगलदेव, जयप्रकाश , रामदास, राममनि, लवकुश आदि ने संबोधित किया। सभा का संचालन भीमलाल व अध्यक्षता हरिप्रसाद कोल ने किया।

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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