उत्तर प्रदेश। बरेली के टाह प्यारी नवादा गांव के एक साइबर कैफे में रिजल्ट देखकर लौटी काजल बहुत दुखी और उदास थी। वो काफी देर गुमसुम अपने कमरे में बैठी रही। घरवाले भी समझा बुझाकर अपने अपने काम में लग गये। लेकिन जब काजल बहुत देर तक कमरे से बाहर नहीं निकली तो परिजनों ने दरवाजा खटखटाया, दरवाजा नहीं खुला तो तोड़ दिया गया। काजल फंदे से लटकी हुई थी। परिजन अस्पताल लेकर भागे, पर वो जिन्दा नहीं बची।
काजल के पिता पिता हरीश कुमार गांव से दूर ऊधमसिंह नगर में एक प्राइवेट मिल में मज़दूरी करते हैं। मां रेशमवती और भाई भी पिता के साथ ही रहते हैं। वहीं दोनों बहनों को पिता ने अपने पैतृक गांव टाह प्यारी नवादा, नवाबगंज बरेली में बड़े भाई के साथ गांव रहकर पढ़ने के लिए छोड़ रखा था। बड़ी बेटी काजल (19 वर्ष) इंटरमीडिएट में पढ़ती थी। 25 अप्रैल को यूपी बोर्ड का रिजल्ट आया तो वो तीन विषयों में फेल थी।
फरेंदा महराजगंज के मथुरानगर टोला ढोंढ़ापुर निवासी रामचंद्र का बेटा ध्रुव चौधरी (18 वर्ष) लाल बहुदार शास्त्री इंटर कॉलेज में कक्षा 12 विज्ञान वर्ग का छात्र था। घरवालों को बेटे से बहुत उम्मीदें थीं। लेकिन 25 अप्रैल को रिजल्ट आया तो वह फेल हो गया। दुखी, उदास और ग़ुमसुम ध्रुव अपने कमरे में चला गया। और दोपहर क़रीब तीन बजे उसने दूध की गिलास में सल्फास की 5 गोलियां घोलकर पी लिया। घरवालों को पता चला तो अस्पताल लेकर भागे। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।
झांसी, कोतवाली गुदरी के शंकर सिंह का बगीचा मोहल्ला निवासी समीर गौतम का इंटरमीडिएट में ये दूसरा साल था। पिछले साल वो फेल हो गया था। इस बार जैसे जैसे रिजल्ट का दिन नज़दीक आ रहा था उसके दिल की धड़कनें बढ़ रही थीं। मां उषा देवी दो दिन पहले ही एक रिश्तेदार के यहां शादी में चली गयी थीं। घर पर पिता जगजीवन और छोटा बेटा समीर ही थे।
पिता बताते हैं कि दोपहर में रिजल्ट आया तो समीर ने मोबाइल में रिजल्ट देखा। जब पिता ने पूछा तो समीर ने उन्हें बताया कि अभी सर्वर डाउन है रिजल्ट नहीं दिख रहा। और फिर ऊपर अपने कमरे में चला गया। पिता बताते हैं कि काफी देर तक जब वो नीचे नहीं आया तो उन्होंने ऊपर जाकर देखा। समीर फंदे से लटका हुआ था। विज्ञान गणित वर्ग का छात्र समीर गौतम भौतिक विज्ञान और गणित में फेल था।
ऐसे जाने कितने किशोर छात्र-छात्राओं की आत्महत्याएं दर्ज़ नहीं हो पातीं। हर साल सीबीएसई और तमाम राज्यों के बोर्ड परीक्षाओं का रिजल्ट आने के बाद हजारों बच्चें असमय ही अपनी जान दे देते हैं। आखिर परीक्षाओं का इतना टैबू क्यों है? इस साल यूपी बोर्ड की इंटरमीडिएट परीक्षा का परिणाम 75.52% और हाईस्कूल का 89.78% आया है।
बता दें कि शैक्षणिक सत्र 2022-23 में कक्षा 10 के लिए 31,16,487 छात्रों ने नामांकन करवाया था जबकि 28,63,621 छात्रों ने परीक्षा दिया था। यानि 2,52,866 छात्रों ने परीक्षा छोड़ दिया। वहीं कक्षा 12 के लिए कुल 27,69,258 छात्रों ने नामांकन करवाया था। कक्षा 12 में 24.48% यानि कुल 6,29,285 छात्र फेल हुए हैं। वहीं कक्षा 10 में कुल 2,92,634 छात्र फेल हुए हैं।
इसी तरह दिल्ली में शैक्षणिक सत्र यानि 2022-23 में कक्षा 9 और कक्षा 11 में लगभग डेढ़ लाख बच्चे फेल हो गये हैं। जबकि 4 लाख बच्चों ने कक्षा 9 और 11 में नामांकन करवाया था। आखिर इतने बड़े पैमाने पर छात्रों को फेल करने का क्या तुक है। इसे समझने के लिए एक नज़र शिक्षा के अधिकार के सेक्शन 16 (नो रिटेंशन पॉलिसी) के पक्ष में तत्कालीन केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय का तर्क जान लेते हैं।
‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009’ जब पारित हुआ तो शिक्षा मंत्रालय ने एक सरकारी नोट में बच्चों को फेल न करने के सेक्शन 16 के पक्ष में यह तर्क दिया– “परीक्षाओं का इस्तेमाल अक्सर उन बच्चों को फेल करके स्कूल से हटाने के लिए किया जाता है जिनके नंबर कम आते हैं। फेल करके बच्चों को क्लास में रोकने से वो हताश और निरुत्साहित हो जाते हैं।
दोबारा उसी कक्षा में रोकने से बच्चे को किसी भी तरह की ऊर्जा या नये संसाधन नहीं मिलते जिससे वह उसी पाठ्यक्रम को फिर एक साल के लिए दोबारा कर पायें। फेल होना बच्चे की कमी नहीं ज्यादातर सिखाने के माहौल की दुर्दशा दर्शाता है। यह तंत्र का फेल होना है। ज़रूरत है कि तंत्र ही हालत सुधारी जाए, न कि बच्चे को दंड देकर रोक लिया जाये। कोई भी शोध यह नहीं दिखाता कि फेल करने से बच्चे की सीखने की क्षमता बेहतर होती है। बल्कि वे स्कूल ही छोड़ देते हैं।”
यूपी बोर्ड के सचिव दिव्यकांत शुक्ला और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षा में पास होने वाले छात्रों के उज्जवल भविष्य की कामना की लेकिन फेल होने वाले छात्रों के बारे में उन लोगों ने एक भी शब्द नहीं कहा। क्यों? इसी तरह नेता प्रतिपक्ष अखिलेश यादव ने भी पास छात्रों को बधाई देते हुए मुख्यमंत्री से उन्हें लैपटॉप देकर प्रोत्साहित करने की मांग की, लेकिन फेल छात्रों के लिए उन्होंने भी कुछ नहीं कहा? इसका अर्थ है कि फेल छात्रों के लिए मौजूदा व्यवस्था में कोई जगह नहीं है।
फिर मौजूदा व्यवस्था में क्या है? मौजूदा व्यवस्था में परीक्षाएं हैं, एक के बाद एक, एक के बाद एक और… परीक्षाओं का न टूटने वाला एक लम्बा सिलसिला है। देश के जाने-माने शिक्षाविद् अनिल सद्गोपाल ‘परीक्षाओं’ को टूल ऑफ रिजेक्शन करार देते हैं। उनकी इस बात को प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं के संदर्भ में बेहतर समझा जा सकता है जहां लाखों बच्चे एक परीक्षा में बैठते हैं और चयन महज कुछ बच्चों का किया जाता है। संख्याबल के आधार पर कह सकते हैं कि परीक्षाएं सेलेक्शन के लिए नहीं बल्कि रिजेक्शन के लिए आयोजित की जाती हैं।
रिजेक्शन का मनोविज्ञान यह होता है कि युवा छात्र खुद को क़सूरवार मानकर इस दोषपूर्ण व्यवस्था से शिक्षा और रोज़गार पाने की उम्मीद छोड़ देते हैं। कुछ युवा जो संघर्ष करने की मनोदशा में होते हैं वो दूसरे रास्ते पर चल पड़ते हैं और जो युवा संघर्ष करने की इच्छाशक्ति को छोड़ देते हैं वो आत्महन्ता क़दम उठा लेते हैं।
मौजूदा व्यवस्था में मार्क्स (अंकों) को छात्रों की योग्यता के मूल्यांकन का एकमात्र और आखिरी ‘मानक’ मान लिया गया है। फिर चाहे शिक्षा देना हो या रोज़गार, छात्रों को परीक्षा में उच्चतम अंक हासिल करने की प्रतिस्पर्धा में हांक दिया जाता है। शिक्षाविद् अनिल सद्गोपाल ‘अधिकतम अंक’ के लिए छात्रों के बीच प्रतिस्पर्धा आयोजित कराने की राजनीति का खुलासा करते हैं।
वो कहते हैं कि परीक्षा में जो सवाल पूछे जाते हैं वो मौजूदा सिस्टम के मुफीद पूछे जाते हैं। यानि इन परीक्षाओं में ज़्यादा अंक हासिल करने वाला छात्र व्यवस्था के मौजूदा ढांचे में बेहतर फिट होगा। क्योंकि वो भी बिल्कुल उसी तरह से सोचता है जैसे व्यवस्था सोचती है। इसी कारण उसने ज्यादा अंक हासिल किये। जबकि कम अंक पाने वाला छात्र व्यवस्था के ढांचे में कम फिट बैठेगा या नहीं फिट बैठेगा। उसके कम अंक हासिल करने का अर्थ है कि वो वैसा नहीं सोचता जैसा व्यवस्था चाहती है।
आज भी यूपी बोर्ड का रिजल्ट आने पर लोग-बाग कल्याण सिंह सरकार के शासन काल में यूपी बोर्ड का रिजल्ट ज़रूर याद करते हैं और याद करके सिहर उठते हैं। साल 1992 में हाईस्कूल बोर्ड परीक्षा परिणाम में सिर्फ़ 14.70% और इंटरमीडिएट बोर्ड परीक्षा में 30.30% छात्र ही पास हुए थे। तब शिक्षामंत्री राजनाथ सिंह थे। आजकल वो केंद्र सरकार में रक्षा मंत्री हैं।
साल 2019 में नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने शिक्षा का अधिकार क़ानून 2009 के अनुच्छेद-16 (नो-डिटेंशन पॉलिसी) को खत्म कर दिया था। जिसके तहत नियम था कि कक्षा 8 तक के छात्रों को फेल नहीं किया जा सकता है।
जबकि राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केन्द्र (NCERT) ने केंद्र सरकार की संसदीय समिति को साल 2016 में सलाह दी थी कि बच्चों को फेल न करने की नीति को खत्म न किया जाये। कहने का आशय यह कि छात्रों के मानसिक, मनोवैज्ञानिक दमन और दक्षिणपंथ की विचारधारा का आपस में गहरा सम्बन्ध है।
(उत्तर प्रदेश से स्वतंत्र पत्रकार सुशील मानव की रिपोर्ट)