Wednesday, April 24, 2024

भारत में संसदीय लोकतंत्र अपने अंतिम पड़ाव पर : चिदंबरम

अमेरिका स्थित संस्थान ‘फ्रीडम हाउस’ ने भारत की रैंकिंग घटाकर इसे ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र लोकतंत्र’ की श्रेणी में डाल दिया है। स्वीडन के ‘वी-डेम’ संस्थान ने भारत की वर्तमान प्रणाली को ‘चुनावी निरंकुशता’ के रूप में चिह्नित किया है। ‘इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट’ के डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत फिसलकर 53वें स्थान पर पहुंच गया है। इस गिरावट में संसद के दोनों सदनों और उनके सदस्यों ने अपनी भूमिका निभाई है।

भारत के संसदीय लोकतंत्र को कैसे कमजोर किया गया है, इसकी एक छोटी सूची मैं प्रस्तुत कर रहा हूं, पाठक अपने उदाहरणों को भी इसमें शामिल कर सकते हैं। मेरी सूची यह है:

1. राज्यसभा की प्रक्रिया नियमावली के नियम 267 (ऐसा ही नियम लोकसभा में भी है) के तहत अत्यावश्यक सार्वजनिक महत्व के मामले पर चर्चा कराने के लिए विपक्ष के सदस्यों द्वारा मांग की जाती है। पिछले कई महीनों में, अत्यावश्यक सार्वजनिक महत्व के मामलों पर चर्चा कराने के लिए दोनों सदनों में कई बार मांग की गयी। इन मामलों में भारत में चीनी घुसपैठ से लेकर हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट तक शामिल है।

लेकिन सभापति ने हर प्रस्ताव को खारिज कर दिया। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि रोजमर्रा के कामकाज के अलावा ​​कोई ऐसा मामला नहीं है जिसे भारत की संसद ‘अत्यावश्यक सार्वजनिक महत्व’ का समझती हो और जिस पर चर्चा करने की आवश्यकता हो। आपको यह विश्वास करना होगा कि भारतीय लोग इतने सुरक्षित, निश्चिंत और संतुष्ट हैं कि उनसे संबंधित कोई भी बात संसद में तत्काल चर्चा के योग्य नहीं है।

राष्ट्रपति-प्रणाली वाला प्रधानमंत्री

2. प्रधानमंत्री, यदि वह लोकसभा का सदस्य है, तो सदन का नेता होता है। प्रधानमंत्री मोदी 17वीं लोकसभा के नेता हैं। वह दोनों सदनों में कम ही उपस्थित होते हैं। वह हर साल राष्ट्रपति के अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस का जवाब देते हैं। मुझे उनके द्वारा की गयी किसी अन्य बड़ी बहस में भागीदारी की याद नहीं आती।

पीएम मोदी संसद में सवालों के जवाब नहीं देते, आमतौर पर कोई मंत्री उनकी ओर से बोलता है। (काश ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ की तरह हर बुधवार को प्रधानमंत्री का प्रश्नकाल होता।) श्री मोदी का संसद के प्रति दृष्टिकोण जवाहरलाल नेहरू, डॉ. मनमोहन सिंह या अटल बिहारी वाजपेयी से मुख़्तलिफ़ है। प्रधानमंत्री ‘राष्ट्रपति’ बन गए हैं। यदि प्रधानमंत्री राष्ट्रपति-प्रणाली के राष्ट्रपति जैसा बन जाएंगे और वैसा ही व्यवहार करते रहेंगे तो भारत अधिक समय तक संसदीय लोकतंत्र नहीं रह पाएगा।

3. ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ की बैठकें साल में 135 दिन होती हैं। 2021 में लोकसभा की सिर्फ 59 और राज्यसभा की 58 बैठकें हुईं। 2022 में लोकसभा और राज्यसभा दोनों की सिर्फ 56 बैठकें हुईं। व्यवधानों के कारण कई ‘बैठकें’ बर्बाद हो गईं। अरुण जेटली का एक चर्चित बयान था कि ‘अड़चनवाद वैध संसदीय रणनीति का एक हिस्सा है।’ नतीजतन 2010 का पूरा शीतकालीन सत्र एक मंत्री के इस्तीफे और एक जेपीसी के गठन की मांग पर बर्बाद हो गया था।

उस सत्र में, लोकसभा ने आवंटित समय का 6 प्रतिशत और राज्यसभा ने 2 प्रतिशत का उपयोग किया। इतने वर्षों में उस रणनीति को और धार दे दी गयी है। चालू बजट सत्र के द्वितीय भाग में खुद सत्ता पक्ष की ओर से हर दिन व्यवधानों की अगुआई की गयी है। थोड़ी सी बैठकें और अधिकाधिक व्यवधान संसद सत्रों को अप्रासंगिक बना देंगे। बिना किसी बहस के विधेयकों को पारित किया जा सकता है (जैसा कि उन्होंने अतीत में किया है)। हम एक ऐसे समय की कल्पना करना शुरू कर सकते हैं जब संसद साल में कुछ दिन ‘बैठेगी’, कोई बहस नहीं होगी, और हो-हल्ले और हंगामे के बीच सभी विधेयकों को पारित कर देगी।

बहस-विहीन संसद

4. संसद के दोनों सदन वाद-विवाद के मंच हैं। भारत की संसद में महान बहसें होती रही हैं। 1962 का चीन-भारत युद्ध जिसमें भारत को अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा था, उस पर भी बहस हुई थी। हरिदास मूंदड़ा की कंपनियों के शेयरों में एलआईसी के निवेश के आरोपों पर बहस हुई। बोफोर्स तोपों के आयात से जुड़े आरोपों पर कई बार बहस हुई। बाबरी मस्जिद के विध्वंस पर बहस हुई। बहस के बाद कभी भी वोटिंग नहीं हुई।

संसदीय लोकतंत्र में, सरकार को बहस से डरने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि उसके पास हमेशा सदस्यों का बहुमत होता है, या माना जाता है कि है। फिर भी, वर्तमान सरकार बहस की अनुमति देने से इनकार कर रही है। एक पुरानी कहावत है: ‘विपक्ष अपनी बात कहता है, सरकार अपनी मनमानी करती है’। मुझे यकीन है कि सरकार को इस बात का डर नहीं है कि बहस हुई, और वोटिंग हुई, तो वह गिर जाएगी।

सरकार को डर इस बात का है कि विपक्ष अपनी ‘बात कहने’ के दौरान असहज करने वाली सच्चाइयों को सामने ला देगा। क्या भारत बहस-विहीन संसद के युग में चला गया है? मुझे ऐसा डर है, और अगर मेरा डर सच साबित होता है तो हमें यह निष्कर्ष निकालना होगा कि संसदीय लोकतंत्र की विदाई का समारोह जल्द ही शुरू होगा।

5. कल्पना कीजिए कि संसद का सत्र बुलाया जाता है। कल्पना कीजिए कि सभी सदस्य केंद्रीय कक्ष में एकत्रित होते हैं। कल्पना कीजिए कि सभी सदस्य गणराज्य के राष्ट्रपति के रूप में एक नेता का चुनाव करने के लिए मतदान करते हैं। प्रत्याशी के विरोध में कोई मत नहीं है। कोई ऐसा नहीं है जो मतदान में भाग न ले। वास्तव में कोई दूसरा उम्मीदवार ही नहीं है।

पूरा देश इस परिणाम को ‘जनता के लोकतंत्र’ की जीत के रूप में मनाता है। क्या भारत में ऐसा हो सकता है? यह हो सकता है, क्योंकि हम लगातार एकदलीय शासन की ओर बढ़ रहे हैं। अगर 15 राज्यों में एक पार्टी का शासन है और अगर वह पार्टी (और उसकी कट्टर सहयोगी पार्टियां) लोकसभा के 362 सदस्यों और राज्यसभा के 163 सदस्यों का चुनाव करने में सक्षम हों, तो भारत को एक और “पीपुल्स रिपब्लिक” (चीन जैसा) बनने से कोई नहीं रोक सकता।

शुक्र है कि वह भयानक संभावना अभी कुछ दूर है लेकिन इसे पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता है। जब भारत एक ‘पीपुल्स रिपब्लिक’ बन जाएगा, तो भारत में संसदीय लोकतंत्र अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच जाएगा।

(‘इंडियन एक्सप्रेस, 19.03.2023, से साभार)-अनुवाद शैलेश

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