जनपक्षधर पत्रकारिता और डिजिटल सेंसरशिप

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पत्रकारिता को दिन-ब-दिन मुश्किल बनाया जा रहा है। अख़बारों और टीवी चैनलों की धूर्तता अब किसी से छिपी नहीं है, लेकिन AI टूल्स, गूगल, फेसबुक, यूट्यूब और दूसरे डिजिटल प्लेटफॉर्म्स भी आपकी आवाज़ को अपने तरीक़े से दबाने का काम कर रहे हैं। यह सेंसरशिप इतनी बारीक और पेचीदा होती है कि अक्सर हमें इसका एहसास तक नहीं होता।

मैंने यूट्यूब पर काम कर रहे कुछ सफल और कुछ असफल लोगों के कंटेंट का जायज़ा लिया। इसमें मैंने पाया कि सोशल मीडिया आपको कुछ ख़ास मुद्दों पर और एक ख़ास ढंग से काम करने के लिए प्रेरित करता है। अगर आप इन संकेतों को नज़रअंदाज़ कर जनपक्षधर पत्रकारिता करने की कोशिश करते हैं, तो आपको अलग-अलग तरीक़ों से रोका जाता है।

सबसे आसान तरीका यह है कि आपकी आवाज़ को उन्हीं लोगों तक सीमित कर दिया जाए, जो पहले से आपकी बातों से सहमत हैं। यह काम इतनी ख़ामोशी से किया जाता है कि आपको अंदाजा भी नहीं होता कि आपकी पहुँच पर रोक लगाई जा चुकी है। दूसरा तरीका आपके अकाउंट को अस्थायी या स्थायी रूप से बंद करना है। हालाँकि, अब यह तरीका कम अपनाया जाता है; इसकी जगह आपकी रीच को कम कर दिया जाता है, जिससे आपके वीडियो या लेख ज़्यादा लोगों तक नहीं पहुँचते।

AI टूल्स और गूगल सर्च भी आपकी अभिव्यक्ति को अपने हिसाब से नियंत्रित करते हैं। कई बार जब आप किसी संवेदनशील मुद्दे पर सर्च करते हैं, तो आपको मुख्यधारा की मीडिया से हटकर जानकारी नहीं मिलती। मसलन, अगर आप गूगल पर “भारत में मुसलमान विरोधी सांप्रदायिक हिंसा” खोजते हैं, तो हो सकता है कि आपको वह रिपोर्ट न मिले जो निष्पक्ष दृष्टिकोण से तैयार की गई हो। इसके बजाय, सर्च रिज़ल्ट में मुसलमानों को ही दंगाई के रूप में पेश करने वाली खबरें ज़्यादा दिखाई दें, जबकि हिंदू अतिवादियों की हकीकत को बड़े ही सलीक़े से छिपा दिया जाए।

इसी तरह, अगर आप OpenAI या अन्य AI चैटबॉट्स से इज़राइल-फ़िलिस्तीन के मुद्दे पर निष्पक्ष जानकारी माँगते हैं, तो आपको गोलमोल जवाब मिलेंगे। कभी-कभी ये टूल्स आपको पूरी तरह भटका देते हैं, और अगर आपकी सियासी समझ गहरी नहीं है, तो आप इस भटकाव के शिकार भी हो सकते हैं।

आज की डिजिटल दुनिया में निष्पक्ष और जनपक्षधर पत्रकारिता के लिए जगह तेज़ी से सिकुड़ती जा रही है। मुख्यधारा की मीडिया कॉर्पोरेट और सत्ता प्रतिष्ठानों के दबाव में काम करती है, जबकि डिजिटल मीडिया भी अपने एल्गोरिदम के ज़रिए यह तय करता है कि कौन-सी जानकारी को ज़्यादा फैलाया जाए और कौन-सी दबा दी जाए। अब सूचना महज़ सूचना नहीं रही, बल्कि एक टूल, एक हथियार बन चुकी है। सूचना का सही इस्तेमाल सत्ता बना और बिगाड़ सकता है, तो इसके ज़रिए किसी समाज में अमन और शांति भी क़ायम की जा सकती है।

डिजिटल मार्केटिंग आज पूरी तरह आपसे छीनी गई या चोरी की गई सूचनाओं पर निर्भर है। आपके मोबाइल में कम से कम दो दर्जन ऐप होंगे, जिनको आपने अपने कॉन्टैक्ट्स, मीडिया फाइल्स, माइक्रोफोन और कैमरे तक पहुँच की अनुमति दे रखी है। यानी यह छोटा-सा मोबाइल आपकी इतनी ख़ामोशी से जासूसी कर रहा है कि अगर यही काम इंसानों से करवाया जाए, तो एक शख़्स की निगरानी पर लाखों रुपये खर्च होंगे।

सोचिए, आपकी उँगलियाँ जो इस वक़्त कीबोर्ड पर चल रही हैं, उनकी हर हरकत दुनिया के कई हिस्सों में रिकॉर्ड हो रही है। आपकी पसंद, नापसंद, विचारधारा और यहाँ तक कि आपकी सियासी सोच भी कहीं न कहीं दर्ज हो रही है। ये डेटा सिर्फ़ विज्ञापन कंपनियों के लिए नहीं, बल्कि सरकारों और ख़ुफ़िया एजेंसियों के लिए भी बेहद क़ीमती होता है।

अगर आप समझते हैं कि पत्रकारिता सिर्फ़ सच को सामने लाने का नाम है, तो आप ग़लत हैं। आज पत्रकारिता एक ख़तरनाक पेशा बन चुका है, ख़ासतौर पर अगर आप सत्ता और कॉर्पोरेट के ख़िलाफ़ लिखते हैं। ग़ाज़ा में 120 पत्रकारों को मौत के घाट उतार दिया गया, क्योंकि वे वह सच दिखा रहे थे जिसे कुछ ताक़तें छिपाना चाहती थीं। हमारे देश में भी पत्रकारों की हत्या अब आम बात हो गई है।

सबसे आसान तरीका है कि पत्रकारों पर फ़र्ज़ी मुक़दमे कर दिए जाएँ। भले ही वे बाद में बरी हो जाएँ, लेकिन मुक़दमे की दौड़-धूप में उनकी सामाजिक, आर्थिक और मानसिक हालत इतनी ख़राब हो जाती है कि वह दोबारा उठ भी नहीं पाते। हाल ही में नागपुर में हुई सांप्रदायिक हिंसा पर मेरी एक वीडियो रिपोर्ट पर एक व्यक्ति ने धमकी दी कि अगर मैं इस तरह की रिपोर्टिंग जारी रखता हूँ, तो वह पुलिस में शिकायत करेगा। जबकि उस वीडियो में सिर्फ़ तथ्य पेश किए गए थे और उन्हीं का विश्लेषण किया गया था। सोचिए, ये कौन लोग हैं जो सच सामने लाने वालों को डराने की कोशिश कर रहे हैं?

ऐसे हालात में स्वतंत्र पत्रकारों और वैकल्पिक मीडिया संस्थानों के लिए चुनौतियाँ और भी बढ़ जाती हैं। सोशल मीडिया पर बने रहना मुश्किल होता जा रहा है, क्योंकि जिन मुद्दों को मुख्यधारा की मीडिया नज़रअंदाज़ करती है, उन्हें डिजिटल प्लेटफॉर्म भी दबाने की कोशिश करते हैं।

सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया का अपना महत्व है, लेकिन इन पर पूरी तरह निर्भर रहना बेहद जोखिम भरा हो सकता है। अगर हम निष्पक्ष और जनपक्षधर पत्रकारिता को ज़िंदा रखना चाहते हैं, तो हमें नए विकल्पों की तलाश करनी होगी। स्वतंत्र वेबसाइटें, वैकल्पिक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स और प्रत्यक्ष संवाद के ज़रिए लोगों तक सही जानकारी पहुँचाने की कोशिश करनी होगी। पत्रकारिता को सिर्फ़ बाज़ार और सत्ता के चश्मे से देखने के बजाय, इसे समाज के हाशिए पर खड़े लोगों की आवाज़ बनाना ही असली चुनौती है।

आने वाले वक़्त में हमें डिजिटल निगरानी और सेंसरशिप से निपटने के नए तरीक़े विकसित करने होंगे। अगर हम अपनी निजता और अभिव्यक्ति की आज़ादी को बचाना चाहते हैं, तो हमें इस लड़ाई को सिर्फ़ सोशल मीडिया तक सीमित रखने के बजाय ज़मीन पर भी लड़ना होगा। पत्रकारिता को बचाने के लिए ज़रूरी है कि हम सच के साथ खड़े हों, चाहे हालात कितने भी मुश्किल क्यों न हों।

“जो लिखेंगे सच, वो सताए जाएँगे

जो बोलेंगे हक़, वो दबाए जाएँगे

लेकिन मिटेगा नहीं हौसला सच का

हर दौर में, दीए जलाए जाएँगे।”

(डॉ.सलमान अरशद  का लेख।)

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