21 अगस्त एसटी/एससी में आरक्षण मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ भारत बंद रहा, पूरे भारत के कई इलाकों में इसका व्यापक असर रहा है। जब से सुप्रीम कोर्ट ने इसपर फैसला सुनाया है तब से ही इसपर राजनीति शुरू हो चुकी है।
1 अगस्त को एससी/एसटी आरक्षण पर सात जजों की बेंच द्वारा 6 : 1 के बहुमत से सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला आया था। जिसका सार एसटी/एससी में आरक्षण से वंचित लोगों तक इसके लाभ को सुनिश्चित करने के लिए कहा गया है कि एसटी/एससी के भीतर एक ही जाति को 100% आरक्षण नहीं दिया जा सकता, आरक्षण में शामिल होने वाली जाति का कोटा तय करने से पहले उसकी हिस्सेदारी के पुख्ता सबूत होनी चाहिए ।
संक्षिप्त में एसटी/एससी के अंदर क्रीमीलेयर के कांसेप्ट और उपवर्गीकरण को लागू करने की बात कही गयी है। कोर्ट द्वारा कहा गया है कि सब कैटेगरी का आधार उचित होना चाहिए ऐसा करना संविधान के अनुच्छेद 341 के खिलाफ भी नहीं है। इसे लागू करने का उपाय राज्यों पर छोड़ दिया गया है क्योंकि भारत के विभिन्न राज्य में जातियाँ अलग-अलग अनुपात में वर्गीकृत है।
क्रीमी लेयर का कंसेप्ट इससे पहले ओबीसी आरक्षण में लागू की जा चुकी है, अब इसे एसटी/ एससी में भी लागू करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले आए हैं जिसके खिलाफ ही यह विरोध प्रदर्शन हुआ है। वैसे आरक्षण का मुद्दा हमेशा विवादित रहता आया है, इसके उद्देश्य पर भी राजनीति हमेशा हावी रही है। जमीनी स्तर पर कितना काम हुआ है यह अलग ही चर्चा का विषय है।
कांसेंप्ट की भी बात करें तो सामान्य वर्गों में तो इसके प्रति विशेष विरोधी भावनाएं देखने को मिलती है। सामान्य वर्ग में अक्सर ये भावना देखने को मिलती है कि आरक्षण के कारण उन्हें नौकरी नहीं मिल रही है, आरक्षण अगर एससी/एसटी और ओबीसी को मिल रहा है तो उन्हें भी मिलना चाहिए….. । इसलिए हम यहाँ पूरे आरक्षण के संवैधानिक परिभाषा और उसके महत्व पर चर्चा करने जा रहे हैं क्योंकि आरक्षण के मुद्दे के राजनीतिकरण इसे मूल धारणा से हटाकर अक्सर दूर ले जाता रहा है।
आरक्षण की संवैधानिक परिभाषा
हमारे संविधान के भाग- 3 में अनुच्छेद-16 लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता की बात करता है जिसका तात्पर्य समान वर्ग के लोगों के बीच समानता से है। इसी प्रकार अनुच्छेद 16(4) तथा अनुच्छेद 16 (4क) पिछड़े वर्ग तथा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को राज्य की सेवाओं में उनके प्रतिनिधित्व के बारे में है।
अनुच्छेद 16(4) के अनुसार इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य के पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य की सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।
अनुच्छेद 16(4 क) के अनुसार इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, राज्य के अधीन सेवाओं में (किसी वर्ग या वर्गों के पदों पर, पारिणामिक ज्येष्ठता सहित, प्रोन्नति के मामले में) आरक्षण के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।
यहां एक महत्वपूर्ण बिंदु पर जरूर ध्यान देना चाहिए-“जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य की सेवाओं में पर्याप्त नहीं है,” यही वह बिंदु है जो कि इस अनुच्छेद को अनुच्छेद 14- “विधि के समक्ष समानता के अधिकार” से जोड़ता है। अगर कोई वर्ग अपने प्रतिनिधित्व में सफल न हो पाए तो समानता की बात अधूरी रह जाती है और जनकल्याण की योजनाओं के विफलता को भी उजागर करती है जो राज्य का कर्तव्य है। कोई वर्ग अपना प्रतिनिधित्व तभी देने में अक्षम होगा जब वे पिछड़े अवस्था में ही रह जाएंगे। और ऐसा तभी होगा जब जनकल्याण योजनाएं जमीनी स्तर पर काम नहीं करेंगी। राज्य का कर्तव्य है कि इस अक्षमता को दूर करे।
इस तरह संविधान के अनुच्छेद 16, अनुच्छेद 16 (4) या अनुच्छेद 16 (4क) और अनुच्छेद 14 सभी एक ही उद्देश्य की ओर अग्रसर होते हैं। अनुच्छेद 16 लोक नियोजन में अवसर की समानता की बात करता है जिसका अर्थ एक तरह के वर्ग के बीच समान अवसर से है, जिसका अर्थ न्याय निर्णयों में भी स्पष्ट किए गए हैं। इसे हम उदाहरण से समझ सकते है।
मान लीजिए अगर सभी नागरिक के लिए किसी काम में भाषा में अंग्रेजी की जानकारी होनी चाहिए, तो अंग्रेजी जानने वालों के समक्ष अवसर समान होंगे पर जो सिर्फ हिंदी जान रहे हो उन्हें समान स्थिति में न रखकर अंग्रेजी का प्रशिक्षण देने की व्यवस्था करना जरूरी है, तभी समान अवसर का कन्सेप्ट क्लियर होता है तथा समानता के अधिकार की ओर बढ़ता है।
भारत एक विषमताओं वाला देश है साथ ही रूढ़ियां, परंपराएं, जातिवाद, धर्म के प्रभाव के कारण लोगों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति में बहुत असमानता है , इस कारण वह किसी काम के लिए निर्धारित योग्यता में पीछे हो जाता है। वर्षों से चली आ रही धर्म, जाति के धारणाओं ने एक बड़ी आबादी को बुरी तरह रौंदा है। कुछ बदलाव के प्रयास के बावजूद आज भी उसके प्रभाव बने हुए है, शोषित परिवार आज भी हासिये में जी रहा है।
इस तरह मजदूरी करने वाले एक व्यक्ति के बच्चे की शैक्षणिक योग्यता की तुलना एक सम्पन्न व्यक्ति के बच्चे से नहीं की जा सकती। अगर इन दोनों के बच्चों को समान रोजगार में अवसर देने की बात करें तो यह समानता के अधिकार का भी उल्लंघन होगा। क्योंकि उनकी परवरिश समान अवसरों पर हुई ही नहीं है। इसलिए अनुच्छेद 16 लोक नियोजन में अवसर की समानता एक समान स्थिति वाले लोगों के बीच करता है। असमानत वर्ग वाले लोगों के बीच नहीं। इस तरह आरक्षण खास वर्ग को दिया गया कोई गिफ्ट नहीं है बल्कि वर्षों से खोए गए अधिकार पाने के साधन का मात्र एक रूप है।
आरक्षण में क्रीमीलेयर
आरक्षण समानता के अधिकार की ओर एक प्रयास है मगर भेदभाव व असमानता को सिर्फ इससे खत्म नहीं किया जा सकता। अनुच्छेद 16 का आरक्षण लोक नियोजन में स्थान दिलाता है। वास्तविकता में ऊंचे पदों पर भी एक पीछड़े श्रेणी के लोग और सामान्य वर्ग के बीच भेदभाव देखने को मिल जाती है, सभी सभी जगह एक समान रूप से ट्रिट नहीं किए जाते, यह जातीय धारणा का प्रभाव है, पर इस कंसेप्ट को सिर्फ आरक्षण से समाप्त नहीं किया जा सकता उसके लिए अन्य प्रयास की सख्त जरूरत है।
नियोजन में आरक्षण लोगों को उपर उठने के साधन का एक रूप है, संपूर्ण रूप नहीं। पर आरक्षण का अनुपात चूंकि निश्चित है इसलिए जो आरक्षण के लाभ के साथ आगे बढ़ गए हैं, उनके अलावा बाकी लोगों को भी जो पीछे रह गये है अवसर मिलने की जरूरत है। इसलिए क्रीमीलेयर जो कि आरक्षण कैटेगरी में आने वाले बाकी दुर्बल स्थिति के लोगों तक आरक्षण की पहुंच एक तरह से रोक देता है का कंस्टेप्ट इस मायने में सही है। पर अफसोस यह है कि सत्ता की राजनीति इसके महत्व को ही तोड़- मरोड़ देती है।
वैसे भी सत्ता ये कभी नहीं चाहती कि वे मुद्दे सुलझे जिसपर सत्ता अपनी रोटियां सेंक कर जनता को उलझाए रखती है। यह वजह है कि किसी राज्य में नेता आरक्षित वर्ग के होने के बावजूद वहां की आरक्षण की श्रेणी में आने वाले वर्ग वाली जनता की स्थिति दयनीय ही बनी हुई है। इस कारण ही समाज का एक ऐसा वर्ग भी है जो कि शोषणकारी नीतियों के खिलाफ कमर कसकर संघर्ष कर रहा हैं और सत्ता उनकी समस्या सुनने के बजाय उन्हें पुलिस फोर्स के बल पर रौंद रहीं है।
आज की स्थिति और संवैधानिक परिभाषा का महत्व
अगर संविधान की बात करें तो हमारा संविधान धर्म और जातिवाद की बात नहीं करता फिर भी आज भी ये असमानता खत्म नहीं हुई है। जहां इस असमानता को खत्म करने के लिए कुछ चेतनशील लोग प्रयासरत हैं वहां असमानता बनाए रखने के लिए भी कई समाजिक तत्व तत्पर हैं, राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल करके संविधान निर्माण के इतने वर्षों बाद भी उस उत्पीड़न को बनाए रखा गया है।
ऐसे में हासिये में पड़ी जाति, वर्ग हासिये में पड़ी है। पर भले ही हासिये में पड़े ये लोग भेदभाव, असमानता के शिकार होकर शिक्षा, योग्यता में पीछड़ गए हो मगर देश की अर्थव्यवस्था को चलाने में इनका भी अपना पूरा योगदान है, अर्थव्यवस्था का चक्का हर व्यक्ति के अपनी मानवशक्ति के योगदान से चल रहा है, जब इसे चलाने में अपना योगदान हो तो इसके लाभ पाने में अपना अधिकार क्यों नहीं? अगर ये निर्धारित योग्यता तक अपनी स्थिति नहीं पहुंचा पा रहे है तो उन्हें अवसरों में छूट देकर वहां तक पहुंचने में मदद करना एक जरुरी कदम है।
आरक्षण का सामान्य कांसेप्ट और राजनीतिक फायदे
संविधान में आरक्षण के अवधारणा से स्पष्ट है कि आरक्षण क्या है और यह भी स्पष्ट है कि सामान्य कैटेगरी की बेरोजगारी का कारण आरक्षण नहीं है।
आज बढ़ती जनसंख्या के साथ साथ नौकरियों की जरूरत भी बढ़ गई है, पर इस अनुपात में रोजगार नहीं है। देश में जितने शिक्षित युवा है, उस हिसाब से नौकरियां नहीं है, इसलिए सौ पदों के लिए भी हजारों की भीड़ उमर पड़ती है, और असफलता पाने वाले 9 सौ लोगों में जितने भी सामान्य केटेगरी के होते हैं वे यही सोचते हैं कि उनका हिस्सा आरक्षण ने छिन लिया। यह आकलन किए बगैर कि आरक्षण केटेगरी में आने वाले भी सैकड़ों लोगों में चंद ने ही नौकरी पाई है बाकी उनकी तरह ही बेरोजगार है।
आरक्षण के भीतर आरक्षण में भी यही स्थिति लागू हो रही है। बेरोजगारी की इस समस्या का समाधान भी राजनीतिज्ञ युवाओं को आपस में उलझा कर निकाल लेते हैं। आरक्षण न ही समस्या का संपूर्ण हल है और न ही दूसरे के अधिकार को छिनने का हथियार। इस बात को युवाओं को समझना होगा। रोजगार की स्थिति तो यह है कि एक तरफ बेरोजगार युवाओं की भीड़ खड़ी है तो दूसरी तरफ लगभग सरकारी विभागों में एक व्यक्ति तीन-चार व्यक्तियों का काम अकेला करता पाया जाता है, कई पदों पर रिक्तियाँ भरती ही नहीं है। जितने लोग है उसके अनुपात में काम करने वाले की घोर कमी है, आखिर यह क्यों?
एक तरफ बेरोजगार युवाओं की लाइन दूसरी तरफ काम के क्षेत्र में कामगारों की कमी? इसे समझने की जरूरत है।
अब एसटी/ एससी मामले में सुप्रीम कोर्ट के नये फैसले के बाद एसटी/एससी वर्ग के अंदर भी विरोध के स्वर उभर रहे हैं जिसका एक रूप 21 अगस्त भारत बंद के रूप में देखने को मिला है, जाहिर है इसका भी राजनीतिक पार्टी अपने हिसाब से इस्तेमाल करेगी। इसे युवा वर्ग को समझने की जरूरत है।
समस्या सिर्फ आरक्षण की नहीं बेरोजगारी की है, सीमित रोजगार की है, युवाओं इसे जरूर समझें। वर्तमान में युवाओं को अपना ध्यान एक पद पर अपनी दावेदारी के लिए होड़ में शामिल होने के बजाय इन सवालों पर केंद्रित करना होगा, सोचना होगा कि पदों में रिक्तियों के बावजूद उनके लिए रोजगार क्यों नहीं है? उन्हें आरक्षण से नहीं बल्कि इस व्यवस्था से लड़ना होगा जो कि उनके रोजगार के अवसर को इतना सीमित करके रखती है।
(इलिका प्रिय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)