शेयर बाजार से उड़े 37 लाख करोड़, लेकिन बहुलांश की बर्बादी में किसका लगा दिवाली जैकपॉट?

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वित्तीय सेवाओं के मामले में विश्व की सबसे अव्वल फर्म जे.पी. मॉर्गन ने पिछले माह भारतीय स्टॉक मार्केट का मूल्यांकन करते हुए इसे 5 ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक बताया था, जिसका अर्थ है कि भारत की समूची अर्थव्यवस्था जिस मुकाम को 2027 में छूने जा रही है, उसे भारतीय स्टॉक मार्केट पहले ही लांघ चुकी है। 

यह कमाल है भारतीय अर्थव्यवस्था के वित्तीय अर्थव्यवस्था में तब्दील होते जाने की, जहां पर रियल इकॉनमी अर्थात, कृषि, विनिर्माण, सर्विस सेक्टर तो जस का तस है, या इसमें कमी देखी जा रही हो, लेकिन शेयर बाजार, कंपनियों के वैल्यूएशन और म्युचुअल फंड, एसआईपी इत्यादि में भारी वृद्धि हो चुकी हो। 

फिलहाल भारतीय शेयर बाजार में बीएसई सेंसेक्स जो आज से ठीक एक महीने पहले, 26 सितंबर 2024 को 85,836 अंक के साथ रिकॉर्ड ऊंचाई पर था।

और कॉर्पोरेट सहित कुछ बड़े निवेशक यहां तक दावा कर रहे थे कि 1 लाख अंक तक पहुंचने के लिए भारतीय शेयर बाजार को 2026 नहीं 31 दिसंबर 2024 में ही यह गौरव हासिल हो जायेगा। पिछले कुछ समय से लगातार गिरता ही जा रहा है। कल साप्ताहिक बाजार बंदी तक यह 79,402 पर बंद हुआ। 

इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले एक माह में सेंसेक्स 5,500 अंक लुढ़का है। इस प्रकार सिर्फ एक माह में निवेशकों को 37 लाख करोड़ का नुकसान हुआ है। सेंसेक्स में यह गिरावट 5.8% कही जा रही है, जबकि निफ्टी में तो यह गिरावट 6.3% बताई जा रही है।

यह अलग बात है कि इसी वित्तीय वर्ष में बाजार ने धूम मचाई और पहली छमाही में ही बाजार 87 लाख करोड़ रूपये बढ़ा था। इसलिए कहा जा रहा है कि अभी भी निवेशकों के मुनाफे में सिर्फ 43% ही कम हुआ है। 

लेकिन बड़ा सवाल तो यह है कि शेयर बाजार से करोड़ों-अरबों कमाने वाले तो ऊपर चढ़ने पर भी कमाते हैं और बाजार के धड़ाम होने पर भी उनकी चांदी ही चांदी होती है, तो फिर इस बुल और बीयर (तेजी और मंदी) की दौड़ में छोटे और खुदरा निवेशकों की तबाही की कहानी तो कभी सामने नहीं आने पाती, उसका क्या करें? 

शेयर बाजार आज और कल रविवार के बाद जब सोमवार, 28 अक्टूबर को खुलेगा तो क्या रंग लाएगा, इसको लेकर करोड़ों भारतीय खुदरा निवेशक सांस रोके बैठे हैं। 550 लाख करोड़ के भारतीय शेयर बाजार में करीब 18% हिस्सेदारी विदेशी संस्थागत निवेशकों की मानी जाती है। इस हिसाब से उसकी हिस्सेदारी लगभग 100 लाख करोड़ के शेयर मूल्य पर बनी हुई है।

इसमें से 1 लाख करोड़ रूपये एफपीआई बाजार से निकाल चुके हैं, और 2024 में अभी तक तकरीबन 2.5% निकासी हो चुकी है। 

इस 2.5% एफपीआई की निकासी से बाजार 6% गिरा है, जो बताता है कि मार्केट विदेशी संस्थागत निवेशकों की बिकवाली से बाजार का सेंटिमेंट कई गुना प्रभावित होता है। भारतीय शेयर बाजार में यह उछाल जीडीपी ग्रोथ के आंकड़ों के आधार पर बनी थी, जिसमें म्युचुअल फंड और एसआईपी की लगातार आवक ने मांग में तेजी बनाये हुए थी। 

भारत में दीपावली के आसपास भारी खरीदारी, सोने-चांदी और वाहनों की खरीद का सीजन माना जाता है। ऐसे मौके पर लाखों परंपरागत निवेशक स्टॉक मार्केट में भी नया निवेश करते हैं, लेकिन इस बार भारतीय बाजार और निवेशक इसे काली दिवाली के तौर पर देख रहे हैं।

ऐसा माना जा रहा है कि चीन में हालिया बाजार प्रोत्साहन के उपायों ने विदेशी संस्थागत निवेशकों को बड़ी मात्रा में भारतीय बाजार के बजाय चीन के स्टॉक मार्केट में लौटने के लिए मजबूर कर दिया है। 

ऐसा कहा जा रहा है कि पिछले एक माह में करीब 19 अरब डॉलर का विदेशी धन चीनी बाजारों में आया है, जबकि निवेशक भारत से अपना बोरिया-बिस्तर समेट रहे हैं।

13 सितंबर तक जहां शंघाई शेयर बजार 2,780 अंक पर दिख रहा था, वह 24 अक्टूबर 2024 को 3,280 अंक पर बंद हुआ था। दो महीने में चीनी बाजार में 18% का उछाल बेहद असाधारण घटना है, जो ज्यादा से ज्यादा एफपीआई को अपनी ओर लुभा रहा है। 

3 दिन पहले इंडिया टुडे ने इस भगदड़ के बारे में लिखा था, इस अक्टूबर में भारतीय इक्विटी से रिकॉर्ड तोड़ 10 बिलियन डॉलर (लगभग 84,000 करोड़ रुपये) के पलायन के साथ, हर किसी के दिमाग में सबसे बड़ा सवाल यह बना हुआ है कि: क्या वैश्विक निवेशक भारतीय निवेश के बजाय चीनी शेयरों को चुन रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे इस त्यौहारी सीजन में भारतीय दीयों के बजाय आम भारतीय चीनी पटाखे चुन रहे हैं?

म्यूच्यूअल फंड और भविष्य निधि फंड से फलता-फूलता शेयर बाजार कितना सही 

पैसे कमाने की भूख होना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन सवाल है कि क्या यह कमाई वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन के जरिये हो रही है या सिर्फ कैसिनो की तरह सट्टेबाजी के माध्यम से देश के करोड़ों युवाओं को हमेशा के लिए बेकार किया जा रहा है?

वास्तविकता तो यह है कि देश का कॉर्पोरेट कोविड-19 से पहले से ही कॉर्पोरेट टैक्स में भारी छूट के चलते बड़े मुनाफे के ऊपर बैठा हुआ था, जिसे महामारी के दौरान पिछले वर्ष तक कई गुना मुनाफाखोरी की आदत लग चुकी है।

अब शायद ही कोई नया उद्योग देश में लगाया जा रहा है, जिसमें लाखों युवाओं को रोजगार भी मिल सकता था और उत्पादन के साथ-साथ बाजार में मुद्रास्फीति पर भी नियंत्रण लग सकता था और देश की जीडीपी में भी योगदान होता। 

लेकिन 2017 से ही भारतीय कॉर्पोरेट साफ़ देख रहा है कि उसे उत्पादन बढ़ाने से कोई लाभ नहीं होने जा रहा, उल्टा स्टॉक जमा होने पर उसकी पूंजी अटक सकती है। इसलिए वह इसके बजाय कोविड के बाद मोनोपली या CARTEL के माध्यम से बाजार में एकाधिकार कायम कर वस्तुओं के दाम को ऊंचा बनाये रखते हुए भारी मुनाफावसूली में लगा हुआ है। 

देश की 80% आबादी के पास आवश्यक वस्तुओं की खरीद के लिए भी पैसे नहीं हैं, इसलिए खपत में वृद्धि का सवाल ही नहीं उठता। ऐसे में छोटे और मझौले निवेशक भी नए उद्योग धंघों को खड़ा करने के बजाय चीन से आयातित माल को बेचने के उपक्रम में लगे हुए हैं।

और करे भी क्यों नहीं, जब अडानी और अंबानी जैसे देश के सबसे बड़े कॉर्पोरेट इसी तरह के कारोबार में लगकर पूरे बाजार पर कब्जा जमाये बैठे हैं, तो वे भला क्यों अपनी पूंजी को लुटने-पिटने के लिए छोड़ दें।

भारत सरकार तो खुद सार्वजनिक उपक्रमों में निवेश के बजाय ज्यादा से ज्यादा बिकवाली की ताक में है, और जो भी पूंजीगत निवेश उसकी ओर से किया जा रहा है उसे ऐसे इन्फ्रास्ट्रक्चर में लगाया जा रहा है, जिसमें नियमित रोजगार की कोई संभावना नहीं है, और इसका लाभ बड़े कॉर्पोरेट की झोली में ही जा रहा है। 

ऐसे में बचता है मध्य वर्ग, जिसके हाथ में कुछ पैसे हैं, जिसे वह शेयर बाजार में निवेश करने के लिए धड़ाधड़ डीमेट अकाउंट खोलने या म्यूच्यूअल फंड और एसआईपी के माध्यम से निवेश को प्राथमिकता दे रहा है।

वही उद्योग धंधे हैं, वही आईटी और बैंकिंग सेक्टर है, लेकिन नए-नए निवेशकों और म्यूच्युअल फंड, एलआईसी, प्रोविडेंट फंड और न्यू पेंशन फंड से हर माह दसियों हजार करोड़ रूपये बाज़ार में डालकर उसे आसमान पर पहुंचा दिया गया है।

इसका लाभ विदेशी निवेशकों को लुभाने से लेकर भारतीय अर्थव्यवस्था की रंगीन तस्वीर नुमाया कर एक बड़े मतदाता वर्ग को मरुस्थल में भी सावन का अंधा बनाने की मुहिम बनी हुई है, जिसे 2017 से केंद्र की मोदी सरकार बेहद सफलतापूर्वक संचालित करती आ रही है।

यह गुब्बारे में हवा भरने की प्रकिया कब तक जारी रह सकती है, इसका ठीक-ठीक अंदाजा लगाना बेहद मुश्किल है। लेकिन पिछले एक माह में विदेशी संस्थागत निवेशकों की भगदड़ ने इस खोखली इमारत की एक झलक तो अवश्य दिखला दी है। 

खून पसीना किसी का, मजे कोई और उड़ाए 

पिछले कुछ वर्षों से देखने को मिल रहा है कि भारतीय शेयर बाजार में यदि कभी-कभार हिचकोले भी देखने को मिलते हैं तो झट उसे म्यूच्युअल फंड के निवेश से भर दिया जाता है। वर्ष 2023-24 में यह बढ़कर करीब 14 लाख करोड़ रूपये वार्षिक पहुंच गया था, और कुल मिलाकर म्यूच्युअल फंड निवेश 53.40 लाख करोड़ का हो चुका था। 

मौजूदा वर्ष में इसके नए रिकॉर्ड को छूने की संभावना है। यदि हम सितंबर के आंकड़े पर गौर करें तो म्यूच्युअल फंड मार्केट में कुल 81,981 करोड़ रूपये का इनफ्लो देखने को मिला, जो अगस्त के 43,342 हजार करोड़ रूपये से करीब दोगुना है। 

इस प्रकार कहा जा सकता है कि विदेशी संस्थागत निवेशकों के भारत से बिदकने के बावजूद शेयर बाजार को मजबूती से टिकाये रखने के लिए कॉर्पोरेट ही नहीं भारत सरकार भी दिन-रात मुस्तैदी से जुटी हुई है।

सेबी प्रमुख माधवी बुच सहित बिना मेहनत के सारी उंगलियां और सिर घी की कड़ाही में डाले रखने की चाहत रखने वाला प्रभु वर्ग हर हाल में भारतीय शेयर बाजार की तेजी और मंदी में अपने लिए आपदा में अवसर निकाल ही लेगा। 

सवाल है, उस 80% आबादी का, जिसके लिए दीवाली पहले ही भारी हो रखी थी, लेकिन अब सब्जी, दाल और तेल में हालिया तेजी ने उसे दिया-बाती करने की बात सोचने पर भी झुरझुरी महसूस करा दी है।   

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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