‘सेव द टाइगर’ का उजला पक्ष मीडिया कल दिन भर आपको बतलाता रहा। मोदी जी बढ़ते बाघों की संख्या ट्वीट कर अपनी पीठ ठोकते रहे। लेकिन बरसों से इस ‘सेव द टाइगर’ अभियान के पीछे एक ऐसा घिनौना खेल खेला जाता रहा है यह एक ऐसा स्याह पक्ष है जिसके बारे में कोई बात करना भी पसंद नहीं करता।
बाघ बचाओ परियोजना 1973 में शुरू हुई थी। पहले पहल इसमें 9 बाघ अभयारण्य बनाए गए थे। आज इनकी संख्या बढ़कर 50 हो गई है। इसी परियोजना को अब ‘नेशनल टाइगर कंजर्सेशन अथॉरिटी’ के अधीन कर दिया गया है।
लेकिन आपको यह मालूम नहीं होगा कि जिस भी वन क्षेत्र को टाइगर रिजर्व घोषित कर दिया जाता है वहां रहने वाले आदिवासियों के अधिकार शून्य हो जाते हैं, इसका बड़ा कारण यह है कि बाघ संरक्षण की अवधारणा में समुदायों को शामिल नहीं किया गया है। समुदायों को जोड़कर, उन्हें तैयार कर, उनके लिए आर्थिक स्रोत संरक्षण व्यवस्था में विकसित कर साथ लेने के बदले उन्हें उस पूरी प्रक्रिया से काट दिया गया है।
28 मार्च 2017 को नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी’ यानी NTCA के असिस्टेंट इंस्पेक्टर जेनरल ऑफ फॉरेस्ट डॉ. वैभव सी माथुर ने 18 राज्यों में स्थित सभी 50 टाइगर रेंज के चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डेन को पत्र भेजा था। उन्होंने इसमें लिखा कि वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 के तहत टाइगर हैबिटेट्स में किसी अन्य को रहने नहीं दिया जा सकता।
वन सरंक्षण के नाम पर ही 13 फरवरी 2019 को एक बेहद अहम फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 21 राज्यों को आदेश दिए हैं कि वे अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों को जंगल की ज़मीन से बेदखल कर के जमीनें खाली करवाएं, कोर्ट ने भारतीय वन्य सर्वेक्षण को निर्देश दिए हैं कि वह इन राज्यों में वन क्षेत्रों का उपग्रह से सर्वेक्षण कर के कब्ज़े की स्थिति को सामने लाएं और इलाका खाली करवाएं जाने के बाद की स्थिति को दर्ज करवाएं।
यह याचिका भी एक एनजीओ ‘वाइल्डलाइफ फर्स्ट’ ने दाखिल की थी जिसमें यह कहा गया था कि वन्य अधिकार अधिनियम 2006 संविधान के खिलाफ है और इस अधिनियम की वजह से जंगल खत्म हो रहे हैं। लेकिन हम यह नहीं देख रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से देश भर में लाखों आदिवासी परिवार जंगलों से बाहर फेंक दिए जाएंगे।
2017 के एनटीसीए के आदेश का अर्थ यह है कि वन अधिकार कानून 2006 भी इस क्षेत्र में प्रभावी नहीं होगा इस आदेश से टाइगर रिजर्व में रहने वाले आदिवासियों को न सिर्फ जंगलों से बाहर किया जाएगा, बल्कि वनों पर उनके अधिकार को भी खत्म कर दिया जाएगा। दरअसल सरकार जानवरों से भी गया गुजरा आदिवासियों को मानती है।
सच तो यह है कि इन आदेशों के जरिए आदिवासियों को उनके जल, जंगल जमीन से बेदखल करके बेशकीमती संसाधनों पर कब्जे की साजिश की जा रही है।
2018 में महाराष्ट्र के यवतमाल में एक तथाकथित आदमखोर बाघिन अवनि को गोली मार दी गई और वह सिर्फ इसलिए कि वह उस क्षेत्र में रह रही थी जिसके आस-पास अनिल अंबानी की रिलायंस को जमीन बेच दी गयी थी। जनवरी 2018 में मोदी सरकार ने अनिल अंबानी की रिलायंस ग्रुप को सीमेंट फैक्ट्री लगाने के लिए यवतमाल के जंगल का 467 हेक्टयर दे दिया था।
अवनि मार दी गयी उसके दो शावकों की भी मृत्यु हो गयी सिर्फ इसलिए क्योंकि उद्योगपति की जमीन की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।
इस टाइगर बचाओ खेल की असलियत यही है कि पहले बड़े-बड़े वन क्षेत्र को टाइगर के नाम पर जंगल के नाम पर सरंक्षित करने की बात करो वहां रहने वाले आदिवासी समुदाय को जंगल से बाहर कर दो फिर तस्कर, शिकारी, होटल रिसोर्ट वालों को यहां खुली छूट दे दो।
सच तो यह है इन टाइगर रिजर्व पार्कों में होटल और टूर व्यवसायियों का राज चलता है अवैध खनन चलता है कोई वहां जा नहीं सकता। कोई रिपोर्टिंग वहां से की नहीं की जा सकती। ये लोग राजनीतिज्ञों और वन विभाग के बड़े अधिकारियों को अपने साथ मिला कर इतने प्रभावशाली हो जाते हैं कि कोर जोन तक में मनचाहा सड़क निर्माण करवा लेते हैं।
अब “सेव द टाइगर” कोई पवित्र लक्ष्य नहीं है यह एक उद्योग बन चुका है। जिसमें सत्ताधारी दल के बड़े नेताओं के लग्गू भग्गूओं को जो अपने NGO खोल कर बैठे हैं बड़ी मात्रा में फंड उपलब्ध कराया जाता है। विदेशों से यूएन से भी जो भी फंडिंग आती है उसे मिलजुलकर हड़पने की योजना बनाई जाती है। यूपीए सरकार के समय NDTV इन NGO की अगुआई कर रहा था। अब कोई और कर रहा है। हजारों करोड़ रुपये का फंड “सेव द टाइगर” के नाम पर कलेक्ट किया जाता है। सैकड़ों करोड़ के विज्ञापन मीडिया संस्थानों को रिलीज कर दिए जाते हैं। इन्हीं विज्ञापनों के चक्कर मे Men Vs Wild जैसे प्रोग्राम बनाए जाते हैं। जिसमें हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी बड़े शौक से हिस्सा लेते हैं।
(लेखक गिरीश मालवीय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और आजकल इंदौर में रहते हैं।)