Friday, April 26, 2024

महिला दिवस पर विशेष: समाज के बदलाव के लिए शीला मरांडी ने कर दिया अपना सब कुछ कुर्बान

टुंडी (धनबाद)। ‘‘शीला दीदी बहुत ही अच्छी हैं, वे हमेशा हम गरीबों व महिलाओं के हित की बात करती थीं। वे बच्चों व युवाओं को पढ़ाई के लिए प्रेरित करती थीं। वे हमेशा कहती थीं कि बिना लड़े आपको अपना अधिकार नहीं मिल सकता है।’’ यह बोलते-बोलते उनके आंगन में मौजूद कई लोग भावुक हो गये और इतना सा भी वे तभी बोले जब उन्हें विश्वास हो गया कि मैं पुलिस या किसी खुफिया एजेंसी का आदमी नहीं हूं। इससे पहले तो वे सिर्फ यही बोलते रहे कि वे 2016 में मात्र कुछ महीने घर पर रहीं थीं, इसलिए हम लोग उनके बारे में कुछ नहीं जानते हैं।

झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 170 किलोमीटर दूर धनबाद जिले के टुंडी प्रखंड अंतर्गत फतेहपुर पंचायत के नावाटांड़ गांव में एक गरीब संथाल आदिवासी परिवार में माओवादी नेत्री शीला मरांडी का जन्म हुआ था। उनके बचपन का नाम बाहामुनी हांसदा था। जन्म का साल तो किसी को पता नहीं हैं, लेकिन 14 नवंबर 2021 को भाकपा (माओवादी) की केंद्रीय कमेटी की पूर्वी रीजनल ब्यूरो के प्रवक्ता कामरेड साकेत ने जारी प्रेस विज्ञप्ति में उनकी उम्र 61 वर्ष बतायी थी, तो हम मान सकते हैं कि उनका जन्म 1960-61 में हुआ होगा। शीला मरांडी के पिता का नाम भादो हांसदा था और इनकी मां का नाम किसी को पता नहीं है, क्योंकि जब शीला मरांडी 1-2 साल की ही थीं, तो इनकी मां की मृत्यु हो गयी थी और अब उस उम्र का गांव में कोई है नहीं, जो उनका नाम बता सके। पत्नी की मृत्यु के कुछ साल बाद ही भादो हांसदा ने दूसरी शादी कर ली और उनसे भी एक पुत्र हुआ, जिसका नाम था देवन हांसदा।

शीला मरांडी ने झारखंड में महिला आंदोलन को एक नई दिशा दी

मैं गिरिडीह, बोकारो व हजारीबाग जिलों के सुदूर देहात इलाके में रिपोर्टिंग के दौरान नारी मुक्ति संघ व शीला मरांडी का नाम अक्सर सुनता था। पिछले दिनों 12 नवंबर, 2021 को झारखंड के सरायकेला-खरसावां जिले के कांड्रा टोल प्लाजा पर शीला मरांडी व उनके पति प्रशांत बोस उर्फ किसान दा (माओवादी के पोलित ब्यूरो सदस्य व पूर्वी रीजनल ब्यूरो सचिव) को उनके 4 अन्य सहयोगियों के साथ इलाज के लिए बाहर जाते समय गिरफ्तार कर लिया गया था। उसके बाद भाकपा (माओवादी) ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर बताया था कि कामरेड शीला मरांडी उनकी पार्टी की केंद्रीय कमेटी सदस्य हैं व नारी मुक्ति संघ की संस्थापक अध्यक्ष भी रही हैं।

शीला मरांडी और प्रशांत बोस।

मैं जब खोजते-पूछते शीला मरांडी के गांव पहुंचा, तो मिट्टी के बने एक साफ-सुथरे घर को उनका घर बताया गया। मैंने जैसे ही उनके घर के अंदर प्रवेश किया, तो कई टीन एज के युवा मोबाइल में लगे हुए थे। मुझे देखते ही सारे युवा उठकर चले गये और एक 15-16 वर्षीय किशोर मेरे साथ अंदर आंगन में आया। वह मुझे देखकर डर रहा था, तभी बगल की 2-3 बूढ़ी महिलाएं व कुछ और भी लोग आंगन में आ गये। मैं अपना परिचय देते हुए उन लोगों से शीला मरांडी के बारे में पूछने लगा। पहले तो कोई भी कुछ बताने के लिए नहीं तैयार था, फिर धीरे-धीरे कुछ लोगों ने उनके बारे में बताना प्रारंभ किया। कुछ लोगों का कहना था कि गांव में कई एसपीओ निगरानी रखते हैं, जो उनके घर पर आने वाले हर व्यक्ति की रिपोर्ट पुलिस को देते हैं।

शीला मरांडी के पड़ोसी 54 वर्षीय रामलाल मुर्मू उर्फ मुखिया जी कहते हैं, ‘‘20 फरवरी, 2016 को वो राउरकेला जेल (उड़ीसा) से रिहा हुई थीं, तब वे गांव आयी थीं। मैंने पहली बार उन्हें तब ही देखा था, क्योंकि उनके काम-काज का क्षेत्र यह नहीं था, इसलिए उन्हें पहले इस गांव के अभी के जिंदा बचे लोगों में किसी ने नहीं देखा था। 2016 में ही वे कुछ महीने गांव में रहीं और तारीख पर कोर्ट भी जाती रहीं। फिर एक बार जब कोर्ट गयीं, तो वापस गांव नहीं आयीं। मुझे तो यह भी पता नहीं था कि वे जिंदा भी हैं। जब उनकी गिरफ्तारी की खबर पढ़ा, तभी पता चला। वे जब तक गांव में रहीं, सभी के अभिभावक के बतौर ही रहीं।’’

रामलाल मुर्मू उर्फ मुखिया जी ने शीला के बारे में विस्तार से बताया

नावाटांड एक मिश्रित आबादी का 110-120 घरों वाला गांव है। यहां सबसे अधिक यानी आधी आबादी संथाल आदिवासियों की है। अन्य में यादव, लोहार, बनिया, रविदास, गंझू व रजवार जाति के लोग हैं। पूरे गांव में रोजगार का एकमात्र साधन खेती ही है। इस गांव के आने के रास्ते (मनियाडीह से नावाटांड) में इतने गड्ढे हैं कि छोटी कार तो आ नहीं सकती है। यह इलाका नक्सलबाड़ी आंदोलन के बाद माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) का शुरुआती कार्यक्षेत्र रहा है।

नावाटांड़ की एक वृद्ध महिला बताती हैं, ‘‘मैं भी दीदी की उम्र की ही हूं। उनकी शादी कम उम्र में ही धनबाद जिले के कतरास प्रखंड के दरिदा गांव मे हुई थी। (पति का नाम याद नहीं है) लेकिन उनके पति पियक्कड़ थे और दीदी शराब से शख्त नफरत करती थीं। इसलिए दोनों में जल्द ही अनबन शुरू हो गयी और एक दो साल के बाद ही दीदी अपने पति को छोड़कर मायके आ गयीं। यहां रहते हुए ही वे लालखंडियों के संपर्क में आयीं और घर छोड़कर भी चली गयीं। बाद में दोबारा कब शादी कीं, इस बात की जानकारी मुझे नहीं है।’’

पिछले साल महिला आंदोलन पर निकाला गया पर्चा

शीला मरांडी के एकमात्र भाई देवन हांसदा की मृत्यु जनवरी, 2020 में हो गयी है। इस बारे में इसी गांव के गोविंद यादव बताते हैं, ‘‘20 जून, 2018 को मैं अपने बोलेरो से गांव आ रहा था, तभी पुलिस ने मुझे पकड़ लिया और वो लोग हमें टुंडी थाना लेते गए। दूसरे दिन मुझे टुंडी के सीआरपीएफ कैंप ले जाया गया। वहां मैंने देवन हांसदा को देखा, जब पुलिस की बर्बर पिटायी के बाद उसे कमरे से निकाला जा रहा था। फिर तो मुझे भी देवन हांसदा व अन्य 4 के साथ एक ही मुकदमे से जोड़ दिया गया और हमारी गिरफ्तारी धनबाद के टुंडी थाना क्षेत्र के बजाय गिरिडीह के खुखरा थाना क्षेत्र के शहरपुरा से दिखायी गयी व हमें गिरिडीह सेंट्रल जेल भेज दिया गया। मेरी भी जमकर पिटाई की गयी

वह आगे बताते हैं, मैं अभी भी ठीक से चल नहीं पाता हूं। जेल में रहने के दौरान ही देवन हांसदा गंभीर रूप से बीमार हो गये। उनकी मृत्यु के एक सप्ताह पहले उन्हें जेल के बाहर के अस्पताल में भर्ती किया गया। बाद में रांची के रिम्स अस्पताल में न्यायिक हिरासत में ही उनकी मृत्यु हो गयी। मैं अभी भी सप्ताह में एक बार मनियाडीह थाना में हाजिरी लगाने जाता हूं। हम सभी को नक्सली समर्थक बताया गया था।’’

शीला मरांडी के भाई देवन हांसदा के बारे में सभी लोग कहते हैं कि वह बहुत ही गरीब थे और किवाड़-चौखट बनाने यानि लकड़ी मिस्त्री का काम करते थे। शीला दीदी के भाई होने की कीमत देवन हांसदा को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। अभी शीला मरांडी के मायके में उनकी विधवा भाभी नूनी देवी अपने तीन बच्चों के साथ रहती हैं। उन्हें 2 बेटी व दो बेटा है। बड़ी बेटी की शादी हो चुकी है और वह ससुराल में रहती है। जबकि दसवीं में पढ़ने वाले भवदेव हांसदा, 6ठीं में पढ़ने वाले सुदेश हांसदा व चौथी में पढ़ने वाली रौमी हांसदा के साथ नूनी देवी किसी तरह अपना पेट पाल रही है

नूनी देवी कहती हैं, ‘‘जब दीदी कुछ महीने घर पर रही थीं, तो हम लोगों को बहुत अच्छा लगता था। जब सुने कि वह जेल में हैं, तो बहुत मन करता है कि उनसे जाकर मिलें। लेकिन डर भी लगता है कि अगर उनसे मिलने जेल जाएंगे, तो कहीं पुलिस मेरे पति की तरह ही बच्चों की जिंदगी भी ना बर्बाद कर दे। इस डर के अलावा आर्थिक तंगी भी एक कारण है कि मैं उनसे ना मिल पायी हूं। रांची जाने के लिए उतना पैसा कहां से लाउंगी? यहां तो खाने के भी लाले पड़े हैं। फिर भी उनसे मिलने के लिए कोशिश कर रही हूं।’’

शीला मरांडी की भाभी अपने बच्चों के साथ

देवन हांसदा की न्यायिक हिरासत में हुई मौत के बाद टुंडी के झामुमो विधायक मथुरा महतो उनके घर आए थे और जांच का आश्वासन दिये थे। लेकिन उस आश्वासन का कुछ भी नहीं हुआ, आज शीला मरांडी के भाई देवन हांसदा का परिवार डर व आर्थिक तंगी के चंगुल में फंसा हुआ है।

शीला मरांडी के गांव में उनके राजनीतिक जीवन व क्रियाकलाप के बारे में तो ज्यादा जानकारी नहीं मिली, लेकिन नारी मुक्ति संघ की एक वर्तमान नेत्री ने उनके बारे में काफी कुछ बताया। (सुरक्षा कारणों से उस नेत्री का नाम नहीं दे रहा हूं।)

नारी मुक्ति संघ की वर्तमान नेत्री ने बताया कि कामरेड शीला मरांडी गिरिडीह-धनबाद जिला के क्रांतिकारी कम्युनिस्ट नेता रावण मुर्मू उर्फ भक्ति दा, जिन्हें लोग लाल मशालची के नाम से भी जानते थे, से काफी प्रभावित थीं। उन्हीं के संपर्क में आकर वे महिलाओं की समस्याओं व समाधान के रास्ते के बारे में जानी व संघर्ष में उतर पड़ी। उन्होंने क्रांतिकारी महिला आंदोलन के लिए सैकड़ों महिलाओं को तैयार किया। वे नारी मुक्ति संघ की महिलाओं व इलाके की महिलाओं के लिए मां समान थीं। उनकी बातों व विचारों में चुम्बकीय गुण था, जो लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता था।

वे बताती हैं कि वैसे तो नारी मुक्ति संघ की आधारशिला तत्कालीन बिहार में 1986-87 से ही रखी जा रही थी। कई जगह पर क्षेत्रीय कमेटी भी बन गयी थी, लेकिन 20 मार्च 1990 को सम्मेलन के जरिये पहली बार राज्य कमेटी बनी और उसकी अध्यक्ष शीला दी बनी थीं। शीला दी के नेतृत्व में नारी मुक्ति संघ ने गया, नवादा, औरंगाबाद, जहानाबाद, गिरिडीह, हजारीबाग, बोकारो, धनबाद, पलामू, गुमला, लातेहार, कोल्हान आदि क्षेत्रों में कई सफल लड़ाइयां लड़ी गयीं। सामंतों, महाजनों, वन विभाग के अधिकारियों, मजदूरी वृद्धि, इज्जत-सम्मान, अंधविश्वास, डायन प्रथा से लेकर आततायी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ लड़ी गयी लड़ाई इतिहास में दर्ज हो चुकी है।

गोविंद यादव

नारी मुक्ति संघ के वर्तमान कार्य के बारे में वो कहती हैं कि अभी हम लोग गाँव तथा शहर हर जगह में नारी मुक्ति संघ की सांगठनिक इकाई निर्माण करने, नारियों की इज्जत तथा आर्थिक व राजनीतिक अधिकार कायम करने की आवाज बुलन्द करने, सामाजिक-पारिवारिक जीवन के हर क्षेत्र में पुरुष और महिलाओं को समान अधिकार और समान मर्यादा प्रतिष्ठित करने के लिए जन-आन्दोलन का निर्माण करने, जमीन सहित सभी प्रकार की सम्पत्ति पर पुरुषों एवं महिलाओं का समान अधिकार कायम करने, मेहनतकश महिलाओं के लिए काम की व्यवस्था तथा एक ही काम के लिए महिलाओं और पुरूषों को समान मजदूरी तथा खेती-बारी के काम में हिस्सा लेने वाली महिलाओं के लिए भी समान मजदूरी का अधिकार चालू करने, नारियों पर चले रहे सामाजिक बन्धन-उत्पीड़न और यातना के खिलाफ जन-आन्दोलन का निर्माण करने, गन्दे नाच-गान, गन्दे सिनेमा, गन्दे वीडियो, गन्दी किताब व उपन्यास, गन्दे पेपर तथा गन्दी संस्कृति के खिलाफ क्रान्तिकारी विचारधारा से लैस जन-आन्दोलन तैयार करने एवं जात-पात, छुआछूत, साम्प्रदायिकता तथा साम्प्रदायिक दंगा का कड़ा विरोध करने के लिए महिलाओं को गोलबंद कर रहे हैं।

वे बताती हैं कि नारी मुक्ति संघ के कार्यक्रमों में खासकर 8 मार्च को केंद्रित कार्यक्रम में काफी भीड़ होती थी। 2003 में रांची में आयोजित कार्यक्रम में 50 हजार लोग शामिल हुए थे, लेकिन 2005 से हमें केंद्रित कार्यक्रम करने से रोका जाने लगा। कार्यक्रम में जाने वाली महिलाओं को माओवादी बताकर गिरफ्तार किया जाने लगा। फलतः हमलोग अब 8 मार्च से 31 मार्च तक हर साल विकेंद्रित रूप से दर्जनों जगहों पर ग्रामीण इलाके में कार्यक्रम करते हैं, जिसमें भारी भीड़ उमड़ती है। 2008 में हमारे संगठन को झारखंड सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया है, फिर भी हमारे कई ग्रुप जनता के बीच में ‘पानी में मछली’ की तरह रहते हैं। आज हमारे कई नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया है, फिर भी महिला मुक्ति की लड़ाई से हम पीछे नहीं हटे हैं और ना ही हटेंगे।

वे बताती हैं कि नारी मुक्ति संघ का अपना कार्यक्रम व संविधान, घोषणापत्र, आह्वान आदि कई दस्तावेज हैं। नारी मुक्ति संघ का मुखपत्र ‘मुक्ति’ भी पहले प्रकाशित होता था, जो फिलहाल बंद है।

पर्चा का दूसरा हिस्सा।

नारी मुक्ति संघ की पत्रिका ‘मुक्ति’ में 2005 में छपे शीला मरांडी के एक लेख को भी वो मुझे देती हैं, जिसका शीर्षक है- ‘मेरी राजनीतिक जीवन गाथा की दो टूक बातें।’’

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2022 के लिए नारी मुक्ति संघ कोल्हान प्रमंडल द्वारा जारी पर्चे में शीला मरांडी के बारे में लिखा गया है कि कामरेड शीला दीदी महिला अधिकारों के लिए संघर्षशील महिला नेत्री हैं। वे एक गरीब संथाल आदिवासी परिवार में पैदा हुईं। 1970 के दशक के शुरू में वह क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ीं और 1991 में नारी मुक्ति संघ का गठन कर धनबाद-गिरिडीह-हजारीबाग जिले में अपना कार्य आरंभ किया और जमींदारों के उत्पीड़न, वन विभाग के अधिकारियों व ठेकेदारों के जुल्म के खिलाफ महिलाओं को संगठित किया।

उनके नेतृत्व में लड़े गये जुझारू जन संघर्षों की वजह से ही उन क्षेत्रों में आदिवासी औरतों का आर्थिक व लैंगिक शोषण कम हुआ, ठेकेदारों व वन विभाग के उत्पीड़न का अंत हुआ। उत्तरी छोटानागपुर से शुरू कर उनका आंदोलन दक्षिणी छोटानागपुर, संथाल परगना व पलामू प्रमंडल, बिहार के गया, औरंगाबाद, जमुई बांका, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, पश्चिमी व पूर्वी चंपारण, शिवहर आदि तक फैला। पंजाब में नारी मुक्ति संघ की इकाईयां बनीं तथा संघर्ष का कार्यक्रम भी लिये। उनके डायन-बिसाही के विरुद्ध चलाए गये जागरूकता अभियानों व संघर्षों की वजह से ही इन संघर्ष के इलाकों में डायन के नाम पर मार-पीट व हत्याओं में कमी आई है, जबकि झारखंड के अन्य इलाकों में यह महिला उत्पीड़न का बड़ा कारण बनी हुई है। वे उच्च उक्त चाप, वेंट्रीकुलर, हाईपरट्रोपी, थाईराईड की बीमारी हाइपो थायराइडीजम, ओस्टीयाप्रोसिस व गठिया से पीड़ित हैं। 2006 में उनकी पहली बार गिरफ्तारी के दौरान पुलिस की मार से उनका एक कान भी खराब हालत में था। आज वे जेल में बीमार हालत में बिना इलाज के हैं। 

(टुंडी, धनबाद से स्वतंत्र पत्रकार रूपेश कुमार सिंह की रिपोर्ट।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles